सन 2015 के अंतिम महीनों में कई जाने-माने लेखकों और प्रतिष्ठित नागरिकों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता के प्रति अपना विरोध व्यक्त करने के लिए उन्हें प्राप्त राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिए थे। पुरस्कार लौटाने वालों की सूची लम्बी थी और उनके इस विरोध प्रदर्शन के नतीजे में, समाज में कुछ आत्मचिंतन भी हुआ। परन्तु सत्ताधारी पार्टी और उसके हिन्दू दक्षिणपंथी सहयोगी संघ परिवार ने पुरस्कार लौटाने वालों के खिलाफ मुहिम शुरू कर दी और उन्हें राजनीति से प्रेरित बताया। ऐसा भी आरोप लगाया गया कि पुरस्कार लौटाने वाले, (तत्समय) आगामी बिहार विधानसभा चुनाव को प्रभावित करना चाहते थे। उन लोगों, जिन्होंने अपना क्षोभ व विरोध व्यक्त करने के लिए पुरस्कार लौटाए थे, ने इन सभी आरोपों का खंडन किया और जोर देकर कहा कि देश में सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में है और इसलिए उन्हें अपनी आवाज़ उठानी पड़ रही है।
सहिष्णु समाज में बढ़ती असहिष्णुता (Increasing intolerance in tolerant society)
देश में सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में है- यूएस कमीशन फॉर इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम – US Commission for International Religious Freedom (यूएससीआईआरएफ)इस बात की पुष्टि यूएस कमीशन फॉर इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (यूएससीआईआरएफ) ने अपनी 2015 की रपट में की है।
क्या है यूएससीआईआरएफ What is USCIRF
यूएससीआईआरएफ अमरीका की संघीय सरकार का द्विपक्षीय आयोग है। यह अपनी ढंग की दुनिया की एकमात्र संस्था है और उसका उद्देश्य है पूरे विश्व में धर्म और आस्था की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करना। भारत के संदर्भ में रपट अत्यंत तीखे शब्दों में कहती है कि देश में धार्मिक स्वतंत्रता की दृष्टि से हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। धार्मिक सहिष्णुता घटी है और सन 2015 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन की कई घटनाएं हुई हैं।
क्या कहती है यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट What does the USCIRF report say?
रिपोर्ट कहती है कि,‘‘सन् 2015 में धार्मिक सहिष्णुता (religious tolerance) घटी और धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के कई मामले सामने आए…अल्पसंख्यक समुदाय, विशेषकर ईसाईयों, मुसलमानों और सिक्खों को डराने धमकाने, परेशान करने और उनके विरूद्ध हिंसा की घटनाओं में वृद्धि हुई। इस तरह की अधिकांश घटनाओं को हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों ने अंजाम दिया।’’
रिपोर्ट में ऐसे कई उल्लंघनों का विवरण देते हुए कहा गया है कि यूएससीआईआरएफ, भारत की स्थिति पर नज़र रखेगा और हो सकता है कि उसे अमरीकी विदेश विभाग को यह सिफारिश करनी पड़े कि भारत को ऐसे देशों की श्रेणी में रखा जाए जो दुनिया की चिंता का सबब हैं।
यह एक महत्वपूर्ण रपट है जिसमें यह भी कहा गया है कि अमरीकी सरकार को भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों के संदर्भ में इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए और भारत के साथ ‘‘रणनीतिक व सामरिक वार्ताओं’’ का भविष्य इसी आधार पर तय किया जाना चाहिए।
एससीआईआरएफ की रिपोर्ट की सिफारिशें (SCIRF report recommendations)
रपट में यह सिफारिश की गई है कि भारत सरकार को ऐसे धार्मिक नेताओं और अन्य व्यक्तियों, जो अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के बारे में अपमानजनक वक्तव्य जारी करते हैं, को चुनौती देनी चाहिए और उनकी बातों का खंडन करना चाहिए।
दरअसल, मूल मुद्दा यही है। जो लोग भारतीय राजनीति को समझते हैं, वे इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ अपमानजनक वक्तव्य और भाषण देने वाले या तो सत्ताधारी दल से सीधे जुड़े हुए हैं (जैसे केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति और गिरिराज सिंह व संसद सदस्य जैसे योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज) या संघ परिवार के सदस्य संगठनों जैसे विहिप और बजरंग दल के नेता हैं।जब भी इस तरह की भड़काऊ या नफरत फैलाने वाली बातें कहीं जाती हैं, सत्ताधारी दल के अधिकृत प्रवक्ता इतना भर कह देते हैं कि यह पार्टी के आधिकारिक विचार नहीं है। परंतु वे यहीं रूक जाते हैं। न तो संबंधित व्यक्ति को डांटा-फटकारा जाता है और ना ही उसे पदानवत किया जाता है। गिरिराज सिंह जैसे लोगों द्वारा कई आपत्तिजनक बातें कहने के बावजूद, भाजपा के सत्ता में आने के बाद उन्हें केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया।
नरेन्द्र मोदी, जिन्हें अत्यंत शक्तिशाली प्रधानमंत्री बताया जाता है, इन मुद्दों पर लंबे समय तक चुप्पी साधे रहते हैं और फिर कोई आधा-अधूरा सा वक्तव्य देते हैं, जिसमें नफरत फैलाने वाली बातों का पुरज़ोर खंडन निहित नहीं होता।
ऐसा लगता है कि यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत किया जाता है। एक व्यक्ति कोई भड़काऊ वक्तव्य देता है, फिर संघ परिवार का कोई सदस्य उसका बचाव करता है और उसकी बात को औचित्यपूर्ण ठहराता है। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि यह पार्टी की आधिकारिक सोच नहीं है और प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहते हैं। यह दिलचस्प है कि कुछ वक्तव्य शुरू में बहुत सामान्य से दिखलाई देते हैं परंतु बाद में उन्हें तोड़-मरोड़ दिया जाता है। उदाहरणार्थ संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत का भारत माता की जय का नारा लगाने के संबंध में वक्तव्य। पहले उन्होंने कहा कि हमें युवा पीढ़ी को यह नारा लगाने की शिक्षा देनी चाहिए। फिर वे एक कदम आगे बढ़कर बोले कि यह नारा लगाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया में, एमआईएम के असादुद्दीन ओवैसी ने एक निहायत बेहुदा और अनावश्यक वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि अगर कोई उनके गले पर छुरी भी अड़ा दे तब भी वे यह नारा नहीं लगाएंगे। तत्पश्चात, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने चेतावनी दी कि जो लोग भारत में रहना चाहते हैं, उन्हें यह नारा लगाना ही होगा।
तथ्य यह है कि भारत माता की जय के संबंध में जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह मुसलमानों को आतंकित करने का अपरोक्ष प्रयास है। मुसलमानों के एक तबके का मानना है कि इस्लाम उन्हें अल्लाह के अलावा किसी की आराधना करने की इजाज़त नहीं देता और भारत माता की जय का नारा लगाना, उनके धार्मिक विश्वासों के विरूद्ध है।
आरएसएस के साथी योग गुरू व व्यवसायी बाबा रामदेव ने कहा कि अगर संविधान नहीं होता तो अब तक लाखों लोगों की गर्दन काट दी गई होती। इस तरह की टिप्पणियां शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व द्वारा की जा रही हैं।
यूएससीआईआरएफ की रपट में यह कहा गया है कि शीर्ष नेतृत्व को इस तरह के वक्तव्यों पर रोक लगानी चाहिए परंतु शायद रपट के लेखक इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि इस प्रकार की बांटने वाली बातें कहने वालों को शीर्ष नेतृत्व का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है।
भारतीय प्रजातंत्र के लिए अच्छी नहीं यह स्थिति
यह स्थिति भारतीय प्रजातंत्र के लिए अच्छी नहीं है। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की सफलता को मापने का एक महत्वपूर्ण मानक यह है कि उसमें धार्मिक अल्पसंख्यक स्वयं को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं। यह सही है कि भारत में पहले भी अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा होती रही है परंतु भाजपा के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से असहिष्णुता और विघटनकारी वक्तव्यों व संवादों में न केवल तेजी से वृद्धि हुई है बल्कि इनका चरित्र भी बदल गया है। पुरस्कार लौटाने वालों को जो खतरा महसूस हो रहा था वह अकारण नहीं था। देश में एक ओर असहिष्णुता का प्रसार हो रहा है तो दूसरी ओर अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा जा रहा है और अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव बढ़ रहा है।
यह रिपोर्ट उस समय आई है जब मोदी अमरीका की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे हैं परंतु शायद यह रपट उनकी लायब्रेरी में धूल खा रहे अन्य दस्तावेजों की भीड़ में गुम हो जाएगी।
राम पुनियानी
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)