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Tragedy of division tamas
विभाजन की त्रासदी पर एक से बढ़ कर एक कृतियां सामने आईं, पर भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ सबसे अलग ही है। यह एक ऐसी कृति है जिसका नाम भारतीय साहित्य के इतिहास में अमिट रहेगा। देश के विभाजन, उसके बाद होने वाले लोमहर्षक दंगों और उस समय की राजनीति का जैसा चित्रण इस उपन्यास में हुआ है, वैसा शायद ही किसी अन्य कृति में हुआ हो। श्रेष्ठ साहित्य अपने समय का सबसे प्रामाणिक और जीवंत सामाजिक इतिहास होता है। वह इतिहास का चाक्षुष रूप होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो तमस को पढ़े बिना विभाजन की त्रासदी को पूरी तरह समझ पाना संभव नहीं हो सकता।
वीणा भाटिया
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विभाजन को लेकर यशपाल का उपन्यास ‘झूठा सच’ और राही मासूम रजा का उपन्यास ‘आधा गांव’ भी श्रेष्ठ कृतियां हैं, पर तमस उस समय के अंधेरे की जितनी परतों को खोलता है और सच्चाई को जिस तरह उसकी संपूर्णता में प्रस्तुत करता है, वैसा किसी अन्य कृति में देखने को नहीं मिलता। यही कारण है कि भीष्म साहनी का यह उपन्यास सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। 1986 में प्रसिद्ध फिल्मकार गोविंद निहलानी ने इस पर टीवी सीरियल भी बनाया, जिसमें खुद भीष्म साहनी ने भी अभिनय किया। यह उपन्यास सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले हिंदी उपन्यासों में एक है। टीवी सीरियल बनने के बाद तो घर-घर में लोग इसे जानने लगे और इसके बाद यह उपन्यास और भी ज्यादा पढ़ा जाने लगा।
इस उपन्यास ‘तमस’ में आजादी के ठीक पहले साम्प्रदायिकता के चरम उभार और दंगों का ऐसा चित्रण किया गया है कि वह पाठकों की आत्मा को झकझोर डालता है।
'तमस' में केवल पांच दिनों की कहानी है। वहशत में डूबे हुए पांच दिनों की कहानी को भीष्म साहनी ने इतनी कुशलता से बुना है कि पाठक दम साध कर एक सांस में पढ़ने को मज़बूर हो जाए।
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तमस की पृष्ठभूमि में देश के विभाजन की वो घटनाएं हैं, जिनमें लाखों बेगुनाह लोग जो अलग-अलग धर्मों को मानने वाले थे या तो मारे गए या बेघर हुए। औरतों ने अपनी आत्मरक्षा के लिए कुएं में कूदकर जानें दीं और उनकी लाशें फूल-फूल कर ऊपर आने लगीं। कई मांओं के बच्चे मर गए। कई बूढ़े बेसहारा हो गए। इन सबके बीच हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के बीच नफ़रत, संदेह और द्वेष की भावना फैलाकर राजनीतिक दलों ने अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश की। यह वो जमाना था जब कई तथाकथित समझदार लोग भी बड़ी नासमझी की बात करने लगे थे, वहीं बहुत से आम लोग इंसानियत की मिसाल भी पेश कर रहे थे। ये वह वक़्त था जब देशभक्ति की आड़ में सांप्रदयिकता का ज़हर घोला जा रहा था। उस समय जितना खून-खराबा हुआ, उसकी भरपाई असंभव है।
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अंग्रेज शासकों की सरपरस्ती में जिन समाजविरोधी तत्वों ने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए जिस घृणा और दुर्भावना को फैलाया था, वो कभी खत्म नहीं हुआ, बल्कि उसकी जड़ें मजबूत ही होती गईं, जिसके नतीजे आज भी देखने को मिल रहे हैं। राजनीति में विभाजनकारी तत्वों का वर्चस्व बढ़ता ही चला जा रहा है। ऐसे में, समझा जा सकता है कि इस उपन्यास की प्रासंगिकता आज भी कितनी है।
तमस में साम्प्रदायिक तत्वों के मंसूबों को बहुत ही बारीकी से बताया गया है। इस उपन्यास के कई दृश्य सीधे दिल में उतरते हैं और कई सवाल करते हैं जैसे एक दृश्य -
"नाम ?'
"हरनाम सिंह"
"वल्दियत?”
"सरदार गुरदयाल सिंह"
"मौज़ा"
"ढोक इलाहीबख्श"
"तहसील"
"नूरपुर"
"कितने घर हिंदुओं, सिखों के थे?"
"केवल एक घर, मेरा घर जी।"
बाबू ने सिर उठाया। बड़ी उम्र का एक सरदार सवालों के जवाब दिए जा रहा था।
"तुम बचकर कैसे आ गए?"
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एक और मार्मिक दृश्य-
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जसबीर कौर कुएं में कूदी। उसके कूदते ही न जाने कितनी ही स्त्रियां कुएं की जगत पर चढ़ गयीं। देवसिंह की घरवाली अपने दूध पीते हुए बच्चे को छाती से लगाकर कूद गयी। प्रेमसिंह की पत्नी तो कूद गयी, पर उसका बच्चा पीछे ही खड़ा रह गया। उसे ज्ञान सिंह की पत्नी ने मां के पास धकेलकर पहुंचा दिया। देखते ही देखते गांव की कई औरतें कुएं में कूद गयीं।
सवाल है, वो कौन-सी परिस्थितियां थीं जो औरतें दुधमुंहें बच्चों के साथ कुएं में छलांग लगा रही थीं? वो परिस्थितियां थीं जान जाने की और उससे पहले अस्मत लुटे जाने की, सामूहिक बलात्कार की। जान तो हर हाल में जानी ही थी, फिर इज़्जत न लुटे, इसलिए कुएं में छलांग लगा कर मरना कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प था। ऐसे न जाने कितने लोमहर्षक दृश्य इस उपन्यास में हैं, जो उस सच का बयान करते हैं जो मानव इतिहास पर एक काले धब्बे की तरह है।
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दंगे किस तरह सुनियोजित ढंग से करवाए जाते हैं और इसके लिए साजिश रची जाती है, मंदिरों में गाय का मांस और मस्जिदों में सुअर का मांस फिकवाया जाता है, इसका भी यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। एक दृश्य में दंगा फैलाने वाले जानवरों की खाल उतारने वालों को सुअर मार कर मस्जिद में फेंकने को कहता है। जवाब मिलता है - 'सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन काम है। हमारे बस का नहीं होगा हुजूर। खाल-बाल उतारने का काम तो कर दें। मारने का काम तो पिगरी वाले ही करते हैं।' इस पर वे कहते हैं, ‘पिगरी वालों से करवाना हो तो तुमसे क्यों कहते? यह काम तुम्हें ही करना होगा...और यह कह उनकी जेब में कुछ रुपए ठूंस देते हैं।
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भीष्म साहनी का परिवार विभाजन के बाद रावलपिंडी से दिल्ली आया था। उन्हें दंगों और उस समय की परिस्थितियों का प्रत्यक्ष अनुभव था। भीष्म साहनी जब अपने बड़े भाई बलराज साहनी के साथ भिवंडी में दंगे वाले इलाकों में गए और उन उजड़े मकानों, तबाही और बर्बादी का मंज़र को देखा तो उन्हें 1947 के रावलपिंडी का दृश्य याद आया और दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने 'तमस' लिखना शुरू कर दिया। प्रकाशित होने के तुरंत बाद ही यह उपन्यास चर्चित हो गया। नामवर सिंह का कहना है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी की तुलना किसी अन्य लेखक से नहीं की जा सकती। उनका मानना है कि भीष्म साहनी प्रेमचंद के बाद सबसे महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक रहे हैं। नामवर सिंह तमस को उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानते हैं। तमस को 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। साथ ही, अंग्रेजी समेत अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद हुआ। तमस के बारे में सभी आलोचकों का मानना है कि यह सर्वकालिक श्रेष्ठ कृति है।
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