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प्रोफेसर नामवर सिंह (1 मई 1927-19 फरवरी 2019) नहीं रहे. (Professor Namwar Singh (1 May 1927-19 February 2019) is no more.) लंबी बीमारी के बाद 92 वर्ष की उम्र में कल 19 फरवरी की रात को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (All India Institute of Medical Sciences) में उनका निधन हो गया. वे हिंदी के प्रखर आलोचक और विद्वान थे. उनको श्रद्धांजलि देते वक्त ठीक ही कहा जा रहा ही कि उनके निधन से एक शून्य और सन्नाटा पैदा हो गया है. नामवर जी की उपस्थिति और योगदान हिंदी संसार के बाहर भी था. मैं खुद ऐसे बहुत से विद्वानों को जनता हूँ जिनका नामवर जी के लेखन और व्यक्तित्व से गंभीर जुड़ाव था. हिंदी संसार के भीतर तो वे शिक्षक, आलोचक, सम्पादक, वक्ता के रूप में सबसे महत्वपूर्ण उपस्थिति थे ही. नामवर जी ने स्वाध्याय और स्वतंत्र लेखन/विचारों के बल पर ऐसी हैसियत हासिल कर ली थी कि उन्हें सभा-सेमिनारों के लिए हिंदी के अधिकांश शिक्षकों-आलोचकों की तरह अपनी तरफ से कुछ कहने-करने की जरूरत नहीं होती थी. हर महत्वपूर्ण आयोजन में उन्हें बुलाया जाता था.
एक बार प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी ने कहा था कि हिंदी में दो ही तरह के सेमीनार होते हैं - एक वह जिनमें नामवर सिंह उपस्थित होते हैं और दूसरे वह जिनमें नामवर सिंह उपस्थित नहीं होते.
हिंदी साहित्य के हाशिये पर देश-विदेश में फैले अनेक लेखकों की एक बड़ी दुनिया है. वे भी अपनी रचनाओं पर नामवर जी की सम्मति प्राप्त करने को लालायित रहते थे.
Namwar Singh was a very good teacher
नामवर जी बहुत अच्छे शिक्षक थे, यह उनके छात्र बताते हैं. पाठ-संपादन, भाषा-ज्ञान, पाठ्यक्रम-निर्माण, शोध-निर्देशन, पत्रिका-संपादन जैसे अकादमिक कार्यों में उनकी विलक्षण दक्षता थी.
नामवर जी की आलोचना का क्षेत्र विस्तृत है. आलोचना में वे वाद शैली के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने खुद भी यह स्वीकार किया है. उन्होंने साहित्यिक मूल्यों और मान्यताओं को लेकर कई विवाद पैदा किये. अपने पूर्ववर्ती और समकालीन लेखकों एवं आलोचकों को लेकर भी उन्होंने विवादों को जन्म दिया.
यहां उन विभिन्न विवादों की तफसील नहीं दी जा सकती. लेकिन 'विवाद-प्रिय' नामवर जी कुछ विवादों में सीधे पड़ने से अपने को बचाते भी थे. मसलन, डॉ. धर्मवीर के आलोचना-कर्म (Criticism work of Dr. Dharmaveer) से जो तूफानी विवाद खड़ा हुआ, उसमें नामवर जी ने यह कहते हुए पड़ने से इनकार कर दिया कि डॉ. धर्मवीर का विरोध करने से ब्राह्मणवाद मज़बूत होगा. जबकि कुछ मार्क्सवादी आलोचक डॉ. धर्मवीर को फासीवादी तक घोषित कर रहे थे. दो साल पहले के लेखकों के पुरस्कार वापसी के फैसले से भी उन्होंने अपने को अलग रखा था.
Namwar ji has significant contribution in the field of shuklottar criticism
शुक्लोत्तर आलोचना के क्षेत्र में नामवर जी का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे उनके परवर्ती आलोचकों ने कई तरह से स्वीकार किया है. उन्होंने हिंदी की 'मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति' (Communist culmination of Marxist criticism) को बज़िद होकर रोकने में सतत और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके लिए उन पर रूपवादी-प्रभाववादी होने के आरोप लगे. लेकिन उन्होंने साहस के साथ रूपवादी-प्रभाववादी आलोचना दृष्टि/पद्धति के सार्थक अंशों का उपयोग मार्क्सवादी आलोचना की कड़ी गांठों को ढीला करने के लिए किया. उनकी आलोचना को पढ़ने पर लगता है कि वे साहित्य के नियंता नहीं, पाठक हैं, जिसके लिए संस्कृत काव्यशास्त्र में सहृदय पद मिलता है. वे साहित्य में शास्त्र से पहले जीवन-संवेदनों की तलाश करते हैं. उनकी तलस्पर्शी आलोचना का यही मुख्य आधार है. 'कहना न होगा' कि यह उन पर उनके गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रभाव है. और उनके अपने कवि-ह्रदय का भी.
व्यक्ति नामवर सिंह भी खासे चर्चित रहे हैं. साहित्य जगत में उनका व्यक्तित्व अंत तक एक दुर्निवार उपस्थिति बना रहा. साहित्यिक मान्यताओं को लेकर अज्ञेय जी से उनकी कड़ी टक्कर चलती थी. 'पर्सनेलिटी कल्ट' के मैदान में भी प्रगतिवादी खेमे से अकेले नामवर जी ने ही अज्ञेय जी को कड़ी टक्कर दी. अज्ञेय जी ने व्यक्तित्व, विशेषकर लेखकीय व्यक्तित्व की अद्वितीयता को लेकर काफी टिप्पणियां की हैं. आत्मवक्तव्य भी उन्होंने पर्याप्त दिए हैं.
अज्ञेय लेखकीय 'पर्सनेलिटी कल्ट' के प्रति स्पष्ट रूप से सचेत लेखक हैं. नामवर जी वैसा सचेत प्रयास करते दिखाई नहीं देते. सही मायने में आत्म-वक्तव्य उन्होंने दिए ही नहीं हैं. इतनी लोकप्रियता, अंतरंगताओं और सार्वजनिक उपस्थियों के बावजूद वे एक तटस्थ और वस्तुनिष्ठ व्यक्तित्व बनाये रखते थे. उनका वह व्यक्तित्व सहजता से स्थापित हो जाता है. इस सहजता के पीछे की साधना की सही जानकारी उनके अंतरंग लोग ही दे सकते हैं.
एक आलोचक और विद्वान के रूप में नामवर जी से मेरा भी सम्बन्ध रहा है. अध्यापक के नाते कक्षा में उनकी आलोचना पढ़ाता भी रहा हूं. मैंने पाया है कि छात्र उनके आलोचना कर्म के साथ उनके व्यक्तित्व में भी गहरी रूचि रखते हैं. उनमें से कई छात्र-छात्राएं इधर उनके स्वास्थ्य के बारे में शिक्षकों से बराबर पूछताछ कर रहे थे. प्रार्थना भी कर रहे थे कि इस बार स्वस्थ होकर घर आयें तो वे भी उनसे मिलने जायेंगे. समीक्षा और पवन के नाते नामवर जी से मेरा संबंध व्यक्तिगत भी बन गया था.
जब प्रभाष जोशी ने नामवर जी के पचहत्तर वर्ष पूरा होने पर पूरे देश के स्तर पर 'नामवर के निमित्त' भाषण/संगोष्ठी श्रृंखला का आयोजन किया तो उस दौरान उनके काफी निकट आने का अवसर मिला. अस्सी वर्ष पूरा होने पर नामवर जी के सम्मान में प्रोफेसर भीम सिंह दहिया की पहल पर हरियाणा के यमुना नगर स्थित डीएवी गर्ल्स कॉलेज में आलोचना पर दो-दिवसीय सेमीनार का आयोजन किया गया था. कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. सुषमा आर्य ने नामवर जी के प्रति बहुत आदर और प्रेम के साथ वह खर्चीला आयोजन किया था. नामवर जी उसमें आये थे. कहा था, मैं बोलूँगा नहीं.
अंतिम सत्र समाप्त होने पर वहां बड़ी तादाद में उपस्थित हिंदी और अंग्रेजी के अध्यापकों ने उनसे बोलने का अनुरोध किया. नामवर जी बोले तो गोया बांध तोड़ कर देर तक बोलते रहे. वह लम्बा भाषण उनके अन्य कई भाषणों की तरह अविस्मरणीय है. उस मौके पर मैंने कहा इस अच्छे भाषण की तरह ही आपकी आयु भी लंबी बनी रहे.
नामवर जी ने लम्बा जीवन जिया. अपने होने का हक़ अदा किया. हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष को विनम्र श्रद्धांजलि!
प्रेम सिंह
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