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तीन तलाक बिल लोक सभा में लाया गया है. इस बिल का लक्ष्य क्या है? सही है, यह पुरुषों का अधिकार मुस्लिम महिलाओं के समानता के अधिकार का हनन करता है और पुरुष प्रधान समाज का द्योतक! क्या अन्य धर्म की महिलाएं अपने पुरुषों के बराबर हैं? हम सब जानते हैं, ऐसा नहीं है.
1990 से 92 तक मैं अरुणाचल प्रदेश में काफी घूमा हूँ, एक हेलिकॉप्टर पायलट के हैसियत से. मंत्रियों और विधायकों को भी काफी उड़ाया है. वहां पर इन “बड़े” लोगों की 4-5 पत्नियाँ होती थीं, भिन्न-भिन्न जगहों पर, जो कि पत्नियों को भी मालूम होता था, पर नाराजगी नहीं दिखी. वे सारे हिन्दू ही थे.
यह बहु विवाह प्रथा सामंतवाद और उसके भी पूर्व की प्रथा है, जहाँ यह कुछ स्वाभाविक भी था. पर मानव सभ्यता के विकास (यह श्रम विभाजन और उस पर आधारित निजी पूंजी के कारण) के साथ-साथ “एक पुरुष एक स्त्री” की प्रथा सामाजिक ही नहीं, कानूनन भी लागु होता गया.
तीन तलाक प्रथा निश्चित रूप से अप्राकृतिक और महिला विरोधी थी और इसे पहले ही हटा देना चाहिए था. पर यह “एक अर्ध सामंती अर्ध पूंजीवादी” भारत में कायम रही और 1990 के बाद भी, जबकि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था सर्वव्यापी हो गया, कायम रहा. कानूनन हटाने के बावजूद धर्मिक परजीवी इसका समर्थन करेंगे, जैसे कि सती प्रथा हटाने के बाद हुआ था.
पर सवाल यह है कि क्या कानून बन जाने से हमारी महिलाएं पुरुषों के बराबर हो जाएँगी, या फिर कुछ वैसे ही होगा जैसे कि दहेज़ प्रथा के बावजूद उनके हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया!
महिलाओं की गैर बराबरी, असुरक्षा, गुलामी का आधार धर्म, जाति, क्षेत्र, रंग, लिंग नहीं है बल्कि आर्थिक है! “एक काम, एक मजदूरी” की मांग केवल अल्पसंख्यकों, दलितों के लिए ही नहीं बल्कि महिलाओं के लिए भी है, जिसकी मांग कभी भी नहीं मानी गयी. कारण? सत्तासीन वर्ग, आज पूंजीपति वर्ग के बेहतर मुनाफे के लिए. यह आधार है महिलाओं के शोषण और पितृ सत्तात्मक समाज में जहाँ उसका शारीरिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक शोषण और प्रतारणा भी होती है!
इस शोषण के आधार को बिना नेस्तनाबूद किये, महिलाओं की बराबरी की बात करना बेकार है. आज कई तथाकथित आन्दोलन चलते रहते हैं, जहाँ महिला सशक्तिकरण की बातें होती हैं, जिसका असर कई महिलाओं की पत्रिकाओं में नजर आता है; जिसमें उन्हें स्वेटर बुनना, लजीज खाना बनाना, बच्चों की देख भाल करना, पति को खुश करने के तरीके सिखाये जाते हैं. किट्टी पार्टी के आयोजन से लेकर फिल्मों की अभीनेत्रियों तक के गुणगान होते हैं और उनकी स्वतंत्रता की चर्चा होती है! जैसे यदि पुरुष शराब और सिगरेट पी सकता है तो महिलाएं क्यूँ नहीं? पर नतीजा? ढाक के तीन पात!
जब तक महिलाओं के शोषण के आधारित, यानी जब तक पूंजीवादी मुनाफे का आधार नहीं तोड़ा जाता (जिसकी अंतिम कड़ी कम मजदूरी वाली महिला श्रमिक, बाल मजदूर, सामाजिक रूप से प्रताड़ित दलित और धार्मिक अल्पमत समूह, आदिवासी, आदि हैं और ज्यादा मुनाफा दर पैदा करने वाले श्रम शक्ति के मालिक), महिलाये और समाज के अन्य प्रताड़ित समूह बराबरी, भाईचारा, स्वतंत्रता को नहीं पा सकते!
आज, भाजपा या आरएसएस (पहले काँग्रेस और अन्य बुर्जुआ पार्टी भी यही करते थे, पर भिन्न स्तर पर) महिलाओं की खिदमत में काफी शोर मचा रहे हैं। “बेटी बचाओ बेटी पढाओ” के नारे के साथ साथ तीन तलाक को ख़त्म करने की बात। जब कि हकीकत यह है कि किसी भी अन्य बुर्जुआ दलों के जैसे ही यह भी घोर महिला विरोधी हैं। यह फासीवादी विचारों के समर्थक हैं और मजदूर विरोधी, किसान विरोधी भी हैं. और तो और, यह जमात विज्ञान विरोधी भी है।
सवाल यह उठता है कि ये काम किसके लिए कर रहे हैं? अंग्रेजों की मुखबिरी से लेकर आज तक इनका इतिहास भी यही बताता है कि यह बड़े पूंजीपतियों के लिए काम करते हैं, विदेशी पूंजी के लिए तो और भी जोर लगाते हैं. पर यह भयानक चापलूसी क्यूँ? दलाली के लिए.
तो, अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर. चाहे मुसलमान महिला हो या हिन्दू महिला, या फिर किसी और धर्म की, उसका स्त्रीत्व और विकास का विरोधी कौन है? पूंजीवाद, जहाँ हर उत्पादन या सेवा मुनाफे के लिए होता है और मजदूरों को भी अपने आप को बेचने के लिए मजबूर करता है। महिलाओं को भी उत्पाद बना दिया है। वेश्यागिरी को भी सामंतवाद और पूंजीवाद ने उत्पाद बना दिया है।
रास्ता, इन महिलायों के मुक्ति का? पूंजीवाद से मुक्ति! केवल क्रांति के द्वारा ही पूंजीवाद से मुक्ति सम्भव है। क्रांति ही समाजवाद की स्थापना कर सकती है। क्रांति केवल मजदूर और इसके सहयोगी वर्गों से ही संभव है। शोषित वर्ग को ही क्रांति की जरूरत है और करेगा, पर क्या मजदूर महिला के सहयोग के बिना क्रांति संभव है? नहीं, बिलकुल नहीं।
सोवियत क्रांति में भी महिला श्रमिकों का भरपूर साथ था। दास प्रथा के खिलाफ जब विद्रोह हुआ था तब भी दास महिलाओं का साथ था। हाँ, यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि सोवियत क्रांति के बाद समाजवाद की स्थापना में सोवियत महिलायें भी पूर्ण सहयोगी थीं, पुरुष मजदूरों के साथ।
यह भी बताना चाहूँगा कि द्वितीय विश्व युद्ध में, सोवियत आर्मी (रेड आर्मी) में 9 लाख महिला सैनिक थीं, जिसमें से कई लड़ाकू पायलट थीं, जिनके आने पर नाज़ी पायलट और आर्मी भयभीत होते थे और उन्हें “चुड़ैल” कहते थे, क्यूंकि उनके निशाने और हिम्मत की मिसाल कहीं भी मिलना मुश्किल था! और इसी महिला आर्मी का एक अंग, जमीन पर, दुश्मन आर्मी के पीछे से लड़ने में शामिल थीं, यानि गुरिल्ला युद्ध, खतरों से भरे काम पर, समाजवाद की रक्षा के लिए, मजदूर वर्ग की पहली सत्ता की रक्षा के लिए!!
जीहाँ, तो बिना समाजवादी क्रांति के बिना महिला मुक्ति नहीं और बिना महिलाओं के हिस्सेदारी के क्रांति संभव नहीं! क्रन्तिकारी नेता और और पार्टी इस बात को अवश्य समझें और बुर्जुआ वर्ग के पार्टी के झांसे में ना आयें!
इंकलाब जिंदाबाद! मजदूर एकता जिंदाबाद!
कैप्टन के के सिंह