धूल भरे मौसमों की ख़ुमारी पर दो बूँद की बारिश....
सौंधी महक से बौराई..
फ़िज़ां में....
शबनमी अल सुबहा के जोगिया लशकारे..
दरख़्तों के चेहरों से सरकते हैं..
तो..
अलसाये मजबूत काँधो वाले आबनूसी जिस्म..
उठाकर बाज़ुओं को अंगडाईयाँ..
लेने लगते हैं...
इक मनचली शाख़..
उंगलियों में लपेट-लपेट कर
कभी खोलें..
कभी बाँधे सिरे...
अटका के सुबह को पहलू से सरकने नहीं देती...
और रख देती हैं फ़ूलों में कलेजा निकाल कर लचकती सब्ज़ डालियाँ मुहब्बतों में...
तो हया से..
सुर्ख़ चेहरे पर उतर आती है....
अब्र की साँवली टुकड़ियाँ...
ना जाने क्यूँ ..
इन मंज़रों के बीच ..
महुआ महुआ सी सब़ा का धड़कनों की सुरताल पर...
क़ाबू नहीं रहता....
हर सिम्त उतरते हुए रंगों की..
यह झलक....
दो हाथ का फलक समेटे तो समेटे कहाँ तलक...
उँगलियों की दरज़ से...
छनी..छनी नूर की यह बूँदे ..
जो ..पी ...ले ...
वो ..इश्क़ ..इश्क़
डॉ. कविता अरोरा