मनोज कुमार झा की दो कविताएँ
1. पार ले चलो
मुझ को पार ले चलो
साँझ ये नदी व्याकुल है
तुम आओ
आओ
मुझ को पार ले चलो
यहाँ से किसी और बेला में
मुझ को इस मँझधार में
अकेला मत छोड़ो
तुम आओ
आ कर
मुझ को ले चलो
पार अपने ही साथ !
2. आने वाले मौसम की बात
आओ, अब हम आने वाले मौसम की
बात करें
गुज़रे ज़माने की तरह नहीं हैं मौसम
फ़िर से बार-बार लौट आते हैं
उनमें वही गन्ध होती है
वही रूप, फूलों, वनस्पतियों में वही रस लिए
लौट आते हैं मौसम
आओ, अब हम उसी मौसम की बात करें
मौसम आता-जाता है
हम और भी जवाँ हो जाते हैं
इस मौसम से निकल कर
धूप-घाम में तप कऱ
बारिश में भीग कर
कीचड़ में लथपथ होकर
हम फ़िर से तुम्हारे पास लौट
आते हैं…
यह मौसम तो जाएगा
इस मौसम में ख़तरा है
ख़तरा है, डर है मृत्यु का
धुआँ भर रहा है ज़हरीली गैसों का
परमाणु-भट्ठियाँ धधक रही हैं
पर प्रकृति तो मिटने पर भी
फ़िर से जीवन का श्रृंगार कर देगी
मिट जाए जो मिटना है
मनुष्य ही मिटेगा…
पहाड़ नदियाँ समन्दर आसमान तो
नहीं मिटेगा
नहीं मिटेगा सपना
सपने से निकल कर हम
फ़िर से मिल जाएँगे
नए मौसम में जब फूल
खिल जाएँगे
हम अपने बचपन में लौटेंगे
और पहाड़ की
किसी चट्टान पर मिलेंगे !