Advertisment

उप्र नगर निकाय चुनाव : जो जीता वही सिकंदर, मगर कैसा?

author-image
hastakshep
23 Mar 2019
New Update
राजेंद्र शर्मा
Advertisment

कहावत ही है, जो जीता वही सिकंदर। उसके ऊपर से हमारी चुनावी व्यवस्था का तो आधार ही है--जो सबसे आगे आए, सब ले जाए। इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि भाजपा, उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में जीत के दावे कर रही है।

इसमें भी अचरज की बात नहीं है कि भाजपा, गुजरात के अपने चुनाव प्रचार में इस ‘जीत’ को यह बताकर भुनाने की कोशिश कर रही है कि उत्तर प्रदेश से गुजरात तक, देश भर में भाजपा की और वास्तव में नरेंद्र मोदी की हवा चल रही है। हां! उत्तर प्रदेश में इसमें योगी की हवा भी शामिल है।

याद रहे कि प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए नरेंद्र मोदी जिस तरह गुजरात के मौजूदा चुनाव में इस कदर धुंआधार प्रचार कर रहे हैं कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि चुनाव तक के लिए केंद्र सरकार गुजरात शिफ्ट कर गयी है, उसी तरह मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए योगी आदित्यनाथ ने शहरी निकाय चुनाव में जबर्दस्त प्रचार किया था और कम से कम तीस सभाएं की थीं। फिर भी, जब यह दावा किया जाता है कि उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक या अभूतपूर्व जीत हुई है, जब यह दावा किया जाता है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने योगी राज के फैसलों तथा नीतियों पर जोरदार तरीके से मोहर लगा दी है या जब यह दावा किया जाता है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने विधानसभा चुनाव में नोटबंदी का अनुमोदन करने के बाद, अब जीएसटी का भी अनुमोदन कर दिया है, तो इस पर जरा नजदीक से नजर डालना जरूरी हो जाता है कि इस चुनाव में भाजपा की वास्तव में किस तरह जीत हुई है और क्या उसकी असंदिग्ध रूप से जीत हुई भी है?

Advertisment

                बेशक, नगर निगमों के चुनाव में भाजपा की उल्लेखनीय जीत हुई है और ऐतिहासिक तथा अभूतपूर्व जैसे विशेषण इसी जीत को पूरे चुनाव पर फैलाने पर आधारित हैं।

राज्य के कुल 16 नगर निगमों में से दो, अलीगढ़ तथा मेरठ को छोडक़र, बाकी सभी में नगर प्रमुख के पद पर भाजपा के उम्मीदवार जीते हैं। लेकिन, यह इस नतीजे का एक ही पक्ष है।

इसी नतीजे का दूसरा पक्ष यह है कि 2012 में हुए नगर निगमों के चुनाव में भी भाजपा ने दो को छोडक़र सभी नगर निगमों पर कब्जा किया था। बेशक, इस बार नगर निगमों की संख्या बढ़ाकर 16 कर दी गयी थी। लेकिन, नगर निगमों की संख्या में यह बढ़ोतरी योगी के राज में ही की गयी थी और अचरज की बात नहीं है कि अयोध्या-फैजाबाद नगर निगम समेत, चारों नये नगर निगमों में जनता ने भाजपा को जिताकर, अपने शहरी निकाय का दर्जा ऊपर उठाने के लिए योगी के प्रति कृतज्ञता जतायी है। इसके साथ ही नगर निगम चुनाव के ही एक और हिस्से पर नजर डाल लें। यह हिस्सा है नगर निगमों के ही पार्षदों के चुनाव का। बेशक, इस पहलू से भी भाजपा, 564 सीटों लेकर, अपनी निकटतम प्रतिद्वंद्वी सपा की 201 सीटों से काफी आगे रही है। लेकिन, कुल 1300 सीटों में से यह संख्या, 45 फीसद भी नहीं बैठती है। इसे कम से कम प्रधानमंत्री की तरह ‘भव्य’ जीत का लक्षण तो नहीं ही कहा जाएगा।

Advertisment

                इसके अलावा नगर निगम के चुनाव में जो हुआ, वह तो उत्तर प्रदेश के हाल के नगर निकाय चुनाव की आधी ही कहानी है। इस चुनाव की शेष आधी कहानी, जो जाहिर है कि सत्ताधारी भाजपा के लिए उतनी मनचीती नहीं है, राज्य के छोटे शहरों की नगर पालिकाओं में और अर्द्ध-ग्रामीण कस्बों की नगर पंचायतों में लिखी गयी है। इस चुनाव में भाजपा की शानदार जीत के दावों में इसे प्राय: अनदेखा ही कर दिया गया है कि इन दोनों ही प्रकार के निकायों में, जो ग्रामीण जनता से कहीं ज्यादा नजदीक पड़ते हैं, भाजपा बहुत मुश्किल से ही खींच-खींचकर किसी जीत का दावा कर सकती है। नगर पालिका परिषद की कुल 198 सीटों में से कुल 67 यानी एक-तिहाई से जरा ही ज्यादा परिषदों में जीत पर ही भाजपा को संतोष करना पड़ा है। हां! वह चाहे तो इस अर्थ में जीत का दावा जरूर कर सकती है, अपनी निकटतम प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के 45 के आंकड़े से वह ठीक-ठाक आगे रही है। इसके अलावा भाजपा इस आधार पर भी कम से कम सीमित प्रगति का दावा तो कर रही सकती है कि 2012 के चुनाव में उसके हिस्से में 42 ही नगर पालिका परिषद अध्यक्ष पद आए थे।

इस चुनाव में कुछ-कुछ ऐसी ही कहानी कस्बों की नगर पंचायतों की भी रही है। कुल 438 नगर पंचायतों में से 100 में या चौथाई से भी कम में जीत के साथ भाजपा राजनीतिक पार्टियों में जरूर सबसे आगे रही है, लेकिन वास्तव में 182 नगर पंचायतों पर कब्जा कर निर्दलीयों ने भाजपा समेत सभी राजनीतिक पार्टियों को पछाड़ दिया है। राजनीतिक पार्टियों में भी सपा अपनी 85 नगर पंचायतों के साथ भाजपा से ज्यादा पीछे नहीं है। हां! इस मामले में भाजपा इस पर संतोष जरूर कर सकती है कि नगर पंचायतों के मामले में, 2012 के चुनाव के मुकाबले उसकी प्रगति, नगर पालिका परिषदों से भी प्रभावशाली रही है और उसने 36 से बढ़ाकर अपनी संख्या 100 कर ली है।

इसके अलावा उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव की ही कहानी का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है। मोटे अनुमान के अनुसार इस चुनाव में कुल 4 करोड़ लोगों ने मतदान किया था। इनमें से करीब 2.65 करोड़ ने नगर पंचायतों में, 1 करोड़ ने नगर पालिकाओं में और 35 लाख ने नगर निगमों में वोट डाला था। इसमें से भाजपा के हिस्से में नगर निगमों में ही करीब आधा वोट आया है, जबकि नगर पालिका परिषदों में उसके हिस्से में 35.5 फीसद और नगर पंचायतों में 22 फीसद वोट ही आया है। वास्तव में नगर पंचायतों में निर्दलीयों के हिस्से में भाजपा से दोगुने से थोड़ा ही कम, कुल 41.5 फीसद वोट आया है। एक आकलन के अनुसार, इस सबको जोडक़र भाजपा को इस चुनाव में पड़े कुल करीब 4 करोड़ वोट में से, 30 फीसद से ज्यादा वोट नहीं मिले हैं। यह निकटतम प्रतिद्वंद्वी सपा समेत दूसरी राजनीतिक पार्टियों से बेशक ठीक-ठाक ज्यादा हो, लेकिन 2014 के आम चुनाव और 2017 में ही हुए विधानसभाई चुनाव के 42 फीसद के मुकाबले, भाजपा के वोट में उल्लेखनीय गिरावट को दिखाता है। विधानसभा चुनाव के बाद गुजरे आठ ही महीनों में मत फीसद में यह भारी गिरावट, न तो योगी राज का अनुमोदन दिखाती है और जीएसटी के लिए यूपी की जनता का समर्थन। उल्टे मौजूदा निजाम से जनता के बढ़ते मोहभंग को ही दिखाती है।

                और यह तब है जब हम यह मानकर चल रहे हैं कि मतदान मशीन के प्रयोग में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। वर्ना सत्ताधारी पार्टी की ईवीएम से चुनाव में 46 फीसद सीटों पर जीत और बैलट पेपर से चुनाव में सिर्फ 16 फीसद जीत से, संदेह तो पैदा होते ही हैं।   

 

Advertisment
सदस्यता लें