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विश्व पर्यावरण दिवस : प्रकृति जननी है, माता है, माँ है...

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hastakshep
23 Mar 2019
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विश्व पर्यावरण दिवस विशेष

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राहुल प्रसाद

हर वर्ष की तरह इस बार भी 5 जून को अधिकांश लोग फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर पर्यावरण के प्रति अपना प्रेम जताते दिखेंगे।  केंद्र और राज्य सरकारें भी विज्ञापनों और सोशल मीडिया प्रचार के इस होड़ में पीछे नहीं रहेंगी। गौरतलब ये है कि 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस के तौर मनाया जाता है।

शायद हमें ये समझने और समझाने की ज़रूरत आन पड़ी है की मदर्स डे और वुमनस डे की तरह ही पर्यावरण दिवस की भी महत्ता केवल 5 जून तक ही सीमित नही रहनी चाहिए। प्रकृति जननी है, माता है, माँ है।

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शायद समाज की नारी के प्रति व्यापक उपेक्षा और उदासीनता, पर्यावरण के प्रति हमारे व्यवहार में भी प्रतीत होती है। 

इस मानसिकता का सीधा संबंध विश्व में संचयी प्राथमिकता और वास्तविकता के घटते तालमेल से है।

अगर हम समकालीन राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो पाएँगे की विश्व की कई सरकारों की प्रतिबद्धता सूची में पर्यावरण सरक कर नीचे गिरता जा रहा है। इस बदलाव का तर्क अक्सर बढ़ती जनसंख्या और इसके कारण संसाधन पूर्ति में आई असमर्थता को बताया जाता है। ये विभाजन दरअसल हमारे समाज में बनते नये समीकरणों का प्रतीक है।

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जनसंख्या नियंत्रण और आर्थिक विकास बरकरार रखने के इस दौर में, भारत की स्थिति भी कुछ भिन्न नहीं है; अपने प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन की जटिलता से हमें भी गुज़रना पड़ रहा है। सरकारी आकड़ों के अनुसार, हमारे यहाँ आज भी 28.3 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है।

भारत की आर्थिक उदारीकरण की जांच करते हुए, सेंटर फॉर ईक्विटी स्टडिस द्वारा हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट में पाया गया है कि विगत 25 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था जहाँ एक ओर तेजी से बढ़ी है, वहीं समाज में सबसे अमीर और सबसे गरीब तबके के बीच की असमानता में भी बढ़ोतरी आई है।

वर्ष 2001 से 2011 के बीच नौ लाख किसानों को मजबूर हो कर कृषि छोड़नी पड़ी, जिसमें से एक बड़ी संख्या शहरों की ओर पलायन कर गयी स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा भूत और भविष्य के दो अवलोकनों से और ज़्यादा स्पष्ट होता है - पिछले 20 वर्षों (1994-2014) में, भारत में 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है और 60 वर्ष से ज़्यादा उम्र के करीब 10.3 करोड़ बुज़ुर्ग आज भी किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा योजना के दायरे में नहीं आते हैं। आर्थिक और सामाजिक असमानताओं के इस द्वंद में, अवसर और सुविधाओं का समान वितरण और भी अनिवार्य हो जाता है।

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परिस्थितियों की पेचीदगी बस इतने तक ही सीमित नहीं है। स्थिति और ज़्यादा चिंताजनक तब बनती है जब संसाधन न्यूनता का आकलन संसाधन पूर्ति की आवश्यकता की पृष्ठभूमि में होता है। उदाहरण के तौर पर - सरकारी आकड़ो के मुताबिक आज भी भारत में लगभग 60 करोड़ लोग यानि आबादी का आधा हिस्सा, बिजली से वंचित है। अब अगर हम परंपरागत पद्धति से, जीवाश्म ईंधन जलाकर, बिजली का निर्माण करने की कल्पना करें, ताकि इन लोगों को उर्जा वितरण प्रणाली की परिधि में लाया जा सके, तो इसका सीधा प्रभाव हमारे वातावरण को और ज़्यादा प्रदूषित करने में होगा। हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जारी स्टेट ऑफ एन्वाइरन्मेंट रिपोर्ट की अनुसार, भारत के कुल ग्रीन हाउस गॅस उत्सर्जन में ऊर्जा क्षेत्र का लगभग 71% योगदान है। जीवाश्म ईंधन द्वारा देश में निर्मित 6000 करोड़ किलोवाट घंटा बिजली में से लगभग 70 प्रतिशत कोयले से उत्पन्न होता है जो की सभी ऊर्जा स्रोतों में, सबसे अधिक प्रदूषण और उत्सर्जन का कारक है।

वर्तमान में, उर्जा निर्माण में जलाए जाने वाले कोयले का भारत के संपूर्ण वायु प्रदूषण में लगभग 40% योगदान है। ग्रीनपीस इंडिया की वायु गुणवत्ता पर आधारित रिपोर्ट 'ऐरपोकैलिप्स' के अनुसार प्रति वर्ष वायु प्रदूषण से, देश में करीब 12 लाख लोग अपनी जान गवाँ रहें हैं। उर्जा निर्माण में वायु गुणवत्ता को नज़रअंदाज़ करना एक जानलेवा जोखिम बन चुका है। पर्यावरण का हमारे जीवन से सामंजस्य और हमारी संसाधन पूर्ति में पर्यावरण का बढ़ता क्षय, इसी बात से सिद्ध होता है। ऐसे में ये अनिवार्य हो जाता है कि हम अपनी आधुनिकता और आपूर्ति सुनीयोजन के प्रयत्नों में पर्यावरण संरक्षण का खास प्रावधान रखें। जहाँ मांग में वृद्धि के जवाब में भारत की ऊर्जा उत्पादन में और बढ़ोतरी होने की उम्मीद है वहीं इस क्षेत्र के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करना अब एक जरूरी आवश्यकता बन चुका है। 

ऊर्जा सुरक्षा एवं ऊर्जा संपन्नता की दिशा में कठोर प्रदूषण मानक, सौर उर्जा में अधिक से अधिक निवेश और संचरण-वितरण घाटे को कम करना एक कारगर कदम साबित होगा। पेरिस समझौते के तहत भारत ने 2030 तक स्वच्छ ऊर्जा संसाधनों से बिजली की मात्रा में 40% तक की वृद्धि करने की प्रतिबद्धता जताई है। वर्ष 2022 तक सरकार ने नवीकरणीय ऊर्जा स्थापित क्षमता को कुल 175 गीगावॉट तक पहुँचाने का संकल्प लिया है, जिसमें से 100 गीगावॉट अकेले सौर ऊर्जा के लिए निर्धारित लक्ष्य है।

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हालांकि सौर ऊर्जा की कई योजनाओं के होते हुए भी आम लोग सौर क्रांति का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं। पर्यावरण संस्था ग्रीनपीस इंडिया के एक विश्लेषण में यह तथ्य सामने आया है कि बहुत सारे राज्यों में सोलर नीतियों, नेट मीटर मानदंड और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा 30 प्रतिशत सब्सिडी देने के बावजूद मुंबई और चेन्नई, दिल्ली जैसे देश के कई प्रमुख शहर छत पर सोलर लगाने में काफी पीछे हैं।

भारत की अधिकांश विकास महत्वाकांक्षाओं का परिपूर्ण होना देश के हर छोर में विश्वसनीय ऊर्जा की पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने पर निर्भर करता है। विषमताओं के बावज़ूद पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करने में ही भविष्य निर्माण का सार छुपा है।

लेखक- राहुल प्रसाद, कम्यूनिकेशन कैंपेनर, ग्रीनपीस इंडिया

 

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