/hastakshep-prod/media/post_banners/op7LENQuF3xnNykiSohf.jpg)
मैं मीडिया के चमचमाते करोड़पति चेहरे रवीश को नहीं पसंद करता हूँ। इसकी जगह जल जंगल जमीन माफियाराज के खिलाफ़ लड़ाई में फर्जी मुकदमों के कारण जेल में बन्द, बेघर, बरबाद पत्रकारों को पसंद करता हूँ तो आपकी दिक्कत क्या है।
हिन्दुस्तान में इंसान कम पाए जाते हैं। चाहे हत्यारे हों या हत्यारों के विरोधी सबके अपने अपने भगवान होते हैं।
इलैक्ट्रानिक मीडिया ग्लैमर की दुनिया है, यहाँ सब कुछ जादू है। पैसा है। पावर है। और पहचान है। भक्त हैं। भभका है। और अन्तहीन भुलावा है। जो टीवी में दिखता है वह वास्तविक नहीं होता तमाम चरणों से और अभ्यास से बहस के बाद लाभ हानि तथा टीआरपी के पक्ष में होने के साथ आपको दिखता है। फिर भी यहाँ ईमानदार पत्रकार हैं और रहे हैं, जो अपनी नौकरी से निकाले गए क्योंकि वह "चाकरी" और टीआरपी में अन्तर जानते थे।
सवाल है क्या रवीश ने कांग्रेस के समय ऐसा विरोध किया ? सपा और लालू मुलायम मायावती पर प्राइम टाइम किया ? यह क्यों अगर आप ईमानदार हो तो जनता का पक्षकार होइए न। सत्ता के क्यूँ रहे।
दूसरा सवाल चैनल मालिक फायदा देखता है। कांग्रेस के समय तमाम चैनल बीजेपी समर्थक हो गये थे। उनका अनुमान था भविष्य में बीजेपी आएगी। आपकी पक्षधरता विपक्ष के साथ थी आप उनसे जुड़े रहे। सबका अपना पक्ष होता है। आपने अपना पक्ष चुना।
लेकिन प्रिन्ट मीडिया में संपादक को छोड़ दें न पावर है। न पैसा है। न चमक है न धमक है। यहाँ गाँव कस्बों और मुहल्लों में जीवन निर्वाह के लिए हर रोज संघर्ष कर रहे पत्रकार हैं और रहे हैं। वह केवल पत्रकार नहीं हैँ समाज से सीधे जुड़े हैं और समाज के लिए कार्यकर्ता हैं। लड़ते हैं। जूझते हैं। भूखे मरते हैं। सूखी रोटी खाते हैं और लिखते हैं। अखबार बेंचते हैँ। दबंग के खिलाफ आवाज उठाकर जेल में सड़ते हैं। सब कुछ खो देते हैं फिर भी लिखते हैं। मगर उनका नाम नहीं होता क्योंकि न उनके पास पैसा है। न पावर है। न पहचान है। न भक्त हैं। न भभका है।
किसी को बुरा लगे तो लगे मैंने हमेशा रवीश कुमार, कुमार विश्वास, चेतन भगत, गुलजार और केजरीवाल को एक सीधी रेखा में रखा है। क्योंकि ये लोग विभिन्न क्षेत्रों में पूँजी और ग्लैमर द्वारा रचित पक्ष और प्रतिपक्ष हैं .... जहाँ से जनता अपदस्थ होती है वहाँ ग्लैमर काबिज होता है।
रवीश को विश्व के क्रूरतम हत्यारे के नाम का करोड़पति सम्मान मिल गया तो आप खुश होइए। मगर इतना मत खुश होइए कि आपकी भावुक भाषा की सीमा सबको पता चल जाये। इस भावुकता का मतलब क्या है जो यह मान बैठे कि रवीश के अलावा बाकी सब पत्रकार आज तक भाँड थे या बेइमान थे या हैं।
मैं ऐसे पत्रकारों को भी जानता हूँ जिसने सत्ता की दादागिरी का विरोध किया अपना घर, अपना परिवार खो दिया, अपनी बहन की नौकरी खो दी, और दाने दाने के लिए मुहताज दसियों साल घूमता रहा। मगर आप नहीं जानेगे।
एक पत्रकार ऐसा भी था जिसकी हत्या प्रशासन ने कर दी थी क्योंकि वह ईमानदार था उसकी मौत के बाद उसे याद किया गया लेकिन अब नहीं याद किया जाता।
एक ऐसा पत्रकार भी है जो जुनूनी है अपना घर फूँक कर अपने सिद्धांतों का निर्वहन करता है। किसी भी सरकार से माफिया से नहीं डरता। उसकी अखबारों से नहीं पटी तो वह अकेला लड़ रहा है। बड़े-बड़े धन्नासेठों के शोषण के विरुद्ध सड़क में लड़ता है।
बाँदा मे एक पत्रकार है जिसने रक्तदान को आन्दोलन बना दिया। इसके लिए उसने संस्था बनाई मुहिम चलाई। और रक्त भंडारण की लचर पचर व्यवस्था के लिए प्रशासन से लड़ा। आज भी किसी को रक्त की जरूरत होती है वही एकमात्र व्यक्ति है जो हर गरीब और अमीर को याद आता है।
मगर छोटे लोगों को कौन जानता है। हर जगह ईमानदार हैं हमेशा रहे हैं आगे भी रहेगे। लेकिन सबको समेटा बेइमान कहना गलत है।
उमाशंकर सिंह परमार
(उमाशंकर सिंह परमार, जनवादी लेखक संघ से जुड़े साहित्यकार हैं। उनकी एफबी टिप्पणियों के संपादित अंशों का समुच्चय)
World's Ruthless Assassin, Millionaire Honor, Ravish Kumar, Kumar Vishwas, Chetan Bhagat, Gulzar,