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याकूब मेमन को हमारी न्याय व्यवस्था से इंसाफ नहीं मिला। यह इंसाफ का मखौल उड़ाना है
बी रमन साहब, काश आप ने अपने जीवन में ही वह लेख छपने दिया होता और सच्चाई बयान करने की ताकत जुटा पाते- सतीश माने शिंदे
12 मार्च 1993 को जब बम्बई (उस समय बम्बई ही था) में सिलसिलावार बम धमाके हुए तब कोर्ट में लंच ब्रेक की वजह से मैं अपने सीनियर राम जेठमलानी और महेश जेठमलानी के साथ नैरिमन प्वाइंट के आफिस में था। तेज़ धमाके की आवाज़ सुनने के बाद सबसे पहला काम हमने फोन पर अपने परिजनों की हाल खैरियत लेने का किया।
कुछ ही मिनटों में मालूम हुआ कि शहर 12 धमाकों से दहल उठा है। पूरी बम्बई में अफरातफरी मच गई, सुरक्षा की दृष्टि से हमें दफ्तर में ही रहने का निर्देश दिया गया।
शाम को जब हम बाहर निकले तो हमने एअर इंडिया बिल्डिंग, स्टाक एक्सचेंज और अन्य कई भवनों की तबाही देखी। हर तरफ अफरातफरी थी। बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए थे जिसमें हर धर्म के मानने वाले थे।
धमाकों के समय दोपहर 1 बजे से 3 बजे तक को देख कर मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि यह मुस्लिम समुदाय से सम्बंध रखने वाले लोगों का काम हो सकता है, क्योंकि जिन स्थानों को निशाना बनाया गया था वह मुस्लिम आबादियों से काफी दूर थे और ठीक जुमा की नमाज़ के समय उक्त महत्वपूर्ण जगहों को निशाना बनाया गया था।
उस समय हमारे दिमाग के किसी कोने में भी यह बात नहीं आई कि एक दिन हम इसी केस से जुड़े कुछ लोगों का अदालत में बचाव कर रहे होंगे।
कुछ दिनों बाद एक पुलिस कान्सटेबल जो वरली में हमारी बिल्डिंग की सुरक्षा पर लगाया गया था, से मुझे मालूम हुआ कि हथियार ले जाने के लिए जिस कार का इस्तेमाल हुआ था, वह वरली की है और केस में डीसीपी राकेश मारिया (उस समय डीसीपी ही थे) बहुत जल्द किसी बड़ी कामयाबी की घोषणा कर सकते हैं।
उसकी बात अक्षरश: सही साबित हुई, क्राइम ब्रांच ने शहर में मेमन परिवार की कई सम्पत्तियों को जब्त किया, जिसमें शीतला देवी मंदिर के पास स्थित एक इमारत भी शामिल थी।
मुझे अपने दोस्तों से मालूम हुआ कि इस बिल्डिंग में मेमन परिवार के कुछ लोग रहते थे जो अब फरार थे।
18 अप्रैल 1993 को दत्त परिवार ने अदालत में अपने बचाव के लिए जेठमलानी से सम्पर्क किया और इस तरह मैं 1993 में बम्बई ब्लास्ट केस नम्बर 1 में उस टीम से जुड़ गया, जो संजय दत्त का बचाव कर रही थी।
5 मई 1993 को हाईकोर्ट के एक आदेश के तहत और उसके साथ चार अन्य लोगों को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। हम इस केस में अबू आसिम आज़मी, एसएन थापा, मोहम्मद बरिया और कुछ अन्य आरोपियों का बचाव कर रहे थे।
चार्जशीट के अनुसार दाऊद इब्राहीम और टाइगर मेमन ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की मदद से बम धमाके करवाए थे। 175 लोगों के खिलाफ टाडा जैसे क्रूर कानून के तहत चार्जशीट दाखिल हुई।
माहिम की अलहुसैनी बिल्डिंग जिसमें मेमन भाई रहते थे समेत विभिन्न क्षेत्रों से एके 47 रायफल और अन्य हथियार और बड़ी मात्रा में आरडीएक्स बरामद करने की कहानियां गश्त कर रही थीं।
मुकदमा अर्थर रोड जेल के कायम की गई विशेष टाडा अदालत में विचाराधीन ही था कि इस बीच यह कहानी सार्वजनिक रूप से सामने आई कि याकूब मेमन को 4 अगस्त को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से सबूतों से भरे सूटकेस के साथ गिरफतार किया गया है।
यह दस्तावेज़ धमाकों में आईएसआई की सक्रिय भूमिका के खुले हुए सबूत थे। याकूब के पास से जो चीज़ें मिली हैं उनमें पाकिस्तान में उसके परिवार के कई लोगों के भारतीय पास्पोर्ट, उनके पाकिस्तान की नागरिकता के दस्तावेज़, कराची में उन्हें रहने के लिए दिए गए शानदार बंगलों की वीडियो कैसेट और दाऊद इब्राहीम व टाइगर मेमन समेत भारत से फरार आरोपियों को आईएसआई द्वारा पनाह दिए जाने के सबूत मौजूद थे।
फौजदारी का वकील होने के हैसियत से मैं यह मानने को तैयार नहीं था कि याकूब को वास्तव में उसी समय, उसी जगह और उन्हीं परिस्थितियों में “हिरासत” में लिया गया है जिनका दावा किया जा रहा है। मुझे यकीन था कि यह गिरफतारी किसी डील (समझौते) का नतीजा है।
बाद में जब धीरे धीरे तथ्य सामने आने लगे तो यह बात साफ हो गई कि याकूब को वास्तव में उन सबूतों के साथ हिरासत में लिया गया था जो भारतीय अधिकारियों को यह साबित करने में सहायक हो सकें कि बम धमाकों का ऑपरेशन आईएसआई द्वारा किया गया था और उसका मकसद बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके बाद होने वाले दंगों का बदला लेना था। इसके लिए भारतीय नौजवानों को मानसिक रूप से तैयार किया गया, उन्हें प्रशिक्षण दिया गया और भारत की ज़मीन पर उस तबाही के लिए इस्तेमाल किया गया।
बाद में याकूब की मदद से पूरे मेमन परिवार को दुबई के रास्ते भारत लाने में सफलता मिली अलावा टाइगर मेमन, अय्यूब मेमन और उसकी पत्नी के।
मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि मेमन परिवार जैसा कोई “गुनहगार” परिवार किसी डील के बिना इस तरह भारत आ जाएगा। वह भी इस स्थिति में कि उन्हें कराची में पूरी सुरक्षा प्राप्त थी, रहने के लिए बड़े बड़े बंगले मिले थे और आर्थिक रूप से अपने को स्थापित करने के लिए बड़ी रक़म दी गई थी।
उन्हीं दिनों टाडा कोर्ट में लंच ब्रेक में मुझे याकूब मेमन से बातचीत करने का अवसर मिला। वह सभ्य, पढ़ा लिखा और खुदा से डरने वाला इंसान था। उसने अपनी बेटी और मां–बाप की कसम खा कर मुझे बताया कि उसने कोई ग़लत काम नहीं किया है। उसने कहा कि अगर वह या उसके परिवार के लोग वास्तव में “गुनहगार” होते तो कभी कराची छोड़ने की कल्पना भी न करते जहां उनका पूरी तरह ध्यान रखा जा रहा था।
उसने बताया कि उसके परिवार के कुछ लोग भारत वापसी के विरुद्ध थे मगर उसने समझाया कि चूंकि उन सब ने कोई गलत काम नहीं किया है, इसलिए उन्हें अपने वतन वापस लौट कर अपनी बेगुनाही साबित करनी चाहिए।
उसने यह भी बताया कि कराची पहुंचने के बाद भारतीय खुफिया एजेंसियों के कुछ अधिकारी उसके सम्पर्क में आए और फिर कराची और दुबई में उनके साथ कई मुलाकातें हुयीं। भारतीय अधिकारियों के साथ पर्याप्त समय बिताने और बातचीत के बाद एक डील हुई जिसके तहत उसको ऐसे सबूत अपने साथ लाने थे जिनसे बम धमाकों के हर चरण में आईएसआई और पाकिस्तान के लिप्त होना साबित हो जाए।
यह भी तय हुआ था कि वह काठमांडू के रास्ते भारत आ जाएगा जहां उसे “हिरासत” में ले लिया जाएगा और सुरक्षित भारत लाया जाएगा।
याकूब इस बात को भी निश्चित करना था कि उसका पूरा परिवार दुबई में भारतीय दूतावास से सम्पर्क करेगा, भारत के प्रति अपना प्रेमभाव प्रकट करेगा और शपथपर्वक अपने मातृभूमि भारत वापसी की इच्छा व्यक्त करेगा।
याकूब ने बताया कि सब कुछ योजना के अनुसार ही हुआ मगर भारतीय एजेंसियां अपना वादा पूरा करने में नाकाम रहीं। उसके बावजूद उनका कहना था कि उसे अल्लाह पर पूरा भरोसा है और एक न एक दिन उसकी बेगुनाही साबित हो जाएगी।
उसने मुझे बताया कि रॉ, आईबी, सीबीआई और अन्य एजेंसियों के कई अधिकारियों ने उसके और मेमन परिवार के साथ दग़ाबाज़ी की है। उसका कहना था कि उसने सिर्फ उन अधिकारियों के भरोसा दिलाने पर अपने पूरे परिवार को खतरे में नहीं डाला था और अपनी नन्हीं सी बेटी को भारत नहीं लाया था जिसके सिर पर एक आतंकवादी की बेटी कहलाने का खतरा मंडरा रहा था बल्कि उसके अनुसार हर तरह की दिक्कतों के बावजूद उसे भारतीय न्यायपालिका पर भरोसा है और उसी भरोसे के तहत वह भारत लौटा है।
हम सब के लिए यह महत्वपूर्ण है कि सीबीआई के भूतपूर्व अधिकारी शान्तनो सेन से यह पूछें कि 28 जूलाई 1994 को काठमांडू में हिरासत में लिए जाने से लेकर 4 अगस्त 1994 को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उसकी गिरफ्तारी दिखाए जाने तक याकूब मेमन क्या कर रहा था और कहां था।
वास्तविक्ता एक दिन अवश्य सामने आएगी मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
21 जूलाई 2015 को जब बंगलौर से मैंने एनडीटीवी से बातचीत की तो मेरे पक्ष का समर्थन करने वाला कोई व्यक्ति नहीं था। मैं याकूब मेमन का वकील नहीं था, मैंने मेमन परिवार के किसी भी व्यक्ति का अदालत में बचाव नहीं किया, मैं इस मामले में बिल्कुल अकेला पड़ गया था।
फिर दूसरे ही दिन रेडिफ डाट काम पर बी रमन का वह लेख आया जो उन्होंने 2007 में लिखा था।
उसके बाद इंडिया टूडे में 2007 में प्रकाशित होने वाला मसीह रहमान का लेख इंडियन एक्सप्रेस ने फिर से छाप दिया। उसके बाद हमारे सामने सीबीआई के विशेष दस्ते के प्रमुख शान्तनो सेन आए, जिन्होंने स्वीकार किया कि याकूब को भारत वापसी के लिए “प्रेरित” किया गया था।
सहयोग, प्रेरित करना और इस तरह के अन्य शब्द मुझे यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि याकूब मेमन को हमारी न्याय व्यवस्था से इंसाफ नहीं मिला (Yakub Memon did not get justice from our judicial system)। यह इंसाफ का मखौल उड़ाना (Make a mockery of justice) है कि जिस दिन यह घोषणा होती है कि फांसी की सज़ा पाने वालों की सज़ा को अजीवन कारावास में बदलने का फैसला पूरी तरह सही है, उसी दिन हम अपनी खुफिया एजेंसियों की दग़ाबाज़ी पर बहस कर रहे थे, जिसने एक आरोपी को लालच देकर और वादा कर के यहां बुलाया मगर वादा पूरा नहीं किया।
इस दग़ाबाज़ी की वजह से 1993 के केस नम्बर1 के कम से कम 6 आरोपी जो एक समय में आत्मसमर्पण के बारे में सोच रहे थे, अब अपने इरादे से पलट गए थे।
मैं नहीं समझता कि याकूब मेमन के साथ जो कुछ हुआ उसके बाद अब भविष्य में कभी भी यह एजेंसियां किसी आरोपी को वापसी के लिए “प्रेरित” करने या उनका “सहयोग” प्राप्त करने में कामयाब हो पाएंगी।
अगर किसी को आत्मसमर्पण करना भी होगा तो वह पूरे क़ानूनी परामर्श के बाद ऐसे पश्चिमी देश में आत्मसमर्पण करेगा जिसकी भारत के साथ प्रत्यार्पण संधि हो और जो मृत्युदंड के खिलाफ हो।
श्री बी रमन साहब, काश आप ने अपने जीवन में ही वह लेख छपने दिया होता और सच्चाई बयाने करने की ताकत जुटा पाते।
(सतीश माने शिंदे, लेखक अधिवक्ता हैं)
साभार रोज़नामा इंक़लाब, नई दिल्ली (वाराणसी), 2 अगस्त, 2015
अनुवाद: मसीहुद्दीन संजरी