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लोगों की दुर्गति और गहराते आर्थिक संकट की सरकार अनदेखी कर रही है- और इस आर्थिक संकट का कोई समाधान भी नज़र नहीं आ रहा है...
देश के भीतर आर्थिक उत्पादन से जुड़े हाल ही में जारी अनुमानों से पता चलता है कि लोग पर्याप्त खर्च नहीं कर पा रहे हैं। इसका एकमात्र कारण यह हो सकता है कि उनके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त आय नहीं है, और इसलिए उनकी क्रय शक्ति सीमित (limited purchasing power) है या बहुत कम हो गई है। दूसरी ओर, सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें (prices of essential commodities) चिंताजनक रूप से तेजी से बढ़ रही हैं। यह खर्च को और सीमित करेगा।
औद्योगिक उत्पादन घोंघे की गति से बढ़ा है, और लोगों के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त आय नहीं होने के कारण, मांग में कमी बनी रहेगी और औद्योगिक उत्पादन भी कम हो जाएगा। बड़े उद्योगों का बैंक ऋण (bank loans to big industries) बहुत धीमी गति से बढ़ रहा है। इसलिए, बढ़ती बेरोजगारी पर किसी भी तरह की रोक की संभावनाएं धूमिल बनी हुई हैं क्योंकि नए निवेश की संभावना नज़र नहीं आ रही हैं जो रोजगार पैदा करने का कारण हो सकता था।
मोदी सरकार के 'सुशासन' के आठ साल के बीच स्थिति ख़राब और डरावनी
यह एक ख़राब और डरावनी स्थिति है- और मोदी सरकार, जो 'सुशासन' के आठ साल का जश्न मना रही है, इस सब के प्रति उदासीन नज़र आ रही है। उनके सभी नवउदारवादी नुस्खे शानदार रूप से विफल रहे हैं - कॉर्पोरेट क्षेत्र में कर कटौती (Tax deduction in the corporate sector) ने नए निवेश को बढ़ावा नहीं दिया है, कल्याणकारी योजनाओं पर धन आवंटन को कम करने से निजी पूंजी आगे बढ़ने में उत्साहित नहीं हो रही है, और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को खरीदने के लिए खरीदार बहुत कम हैं और इसलिए बहुत अधिक विनिवेश निधि न मिलने से, विभिन्न क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलने से अर्थव्यवस्था और रोजगार को कोई बढ़ावा नहीं मिला है।
वास्तव में, सरकार की नीतियों ने एक डूबती अर्थव्यवस्था और लोगों के लिए व्यापक संकट को जन्म दिया है, जिसे मुफ्त खाद्यान्न वितरण द्वारा उबारने की कोशिश की जा रही है।
कम होती लोगों की क्रय शक्ति (Decreasing purchasing power of people)
वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनंतिम अनुमान बताते हैं कि प्रति व्यक्ति निजी अंतिम उपभोग व्यय (personal final consumption expenditure per capita -पीएफसीई) दो साल पहले 2019-20 में 61,594 रुपये से कम होकर 61,215 रुपये हो गया था। महामारी वर्ष 2020-21 के दौरान, यह घटकर 57,279 रुपये हो गया था।
पीएफसीई क्या है? What is PFCE?
पीएफसीई सभी गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा खर्च का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए इसमें व्यावसायिक संस्थाओं के अलावा सभी परिवार शामिल होते हैं। दो साल पहले से इसकी तुलना करना समझदारी है क्योंकि यह दर्शाता है कि खर्च अभी भी पूर्व-महामारी के स्तर तक नहीं पहुंचा है।
इसका मतलब यह है कि देश के अधिकांश लोगों की क्रय शक्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि या तो कमाई बहुत कम हो गई है या वे बेरोजगार हैं। ऊंची कीमतें उनकी पहले से कम कमाई को और लूट रही हैं। नतीजतन, उत्पादों और सेवाओं की मांग कम रहेगी।
अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित कैसे हो? (How to revive the economy?)
पीएफसीई अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) का 56.9 प्रतिशत है, जो कि 2019-20 के समान है। इसलिए पूरी अर्थव्यवस्था तब तक पुनर्जीवित नहीं हो सकती जब तक कि निजी उपभोग खर्च नहीं बढ़ता है।
सरकारी खर्च के बारे में ऐसा क्या, जो अपेक्षित मांग को बढ़ा सकता था?
सरकारी खर्च (इसे सरकारी अंतिम उपभोग व्यय या जीएफसीई कहा जाता है) महामारी वर्ष में यह सकल घरेलू उत्पाद का 11.3 प्रतिशत तक थोड़ा बढ़ गया था, लेकिन 2021-22 में यह घटकर 10.7 प्रतिशत हो गया था।
दूसरे शब्दों में, सरकार ने खर्च से अपने हाथ पीछे खींच लिए और अपने खर्च को सीमित करना शुरू कर दिया था। सभी लाभकारी योजनाओं की इतनी बात की जाती है कि सब मोदी सरकार से इस बारे में अंतहीन बाते सुनते है! इस संकट को हल करने का एकमात्र तरीका सरकारी खर्च को बढ़ाना होगा, लेकिन मोदी सरकार अपने नवउदारवादी हठधर्मिता से जकड़ी हुई है, जो खुद को पक्षाघात से बाहर निकालने में असमर्थ है।
औद्योगिक उत्पादन में मंदी छाई (slowdown in industrial production)
जैसा कि नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया गया है, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (index of industrial production- IIP) पिछले एक साल से बहुत कमजोर वृद्धि दिखा रहा है।
मई 2021 की उच्च विकास दर और, कुछ हद तक, अगले तीन महीनों तक केवल इसलिए है क्योंकि तब से एक साल पहले की तुलना में विकास की गणना की जा रही है – और एक साल पहले मई 2020 था, जब लॉकडाउन ने सभी औद्योगिक गतिविधियों को रोक दिया था। अगले कुछ महीने भी इस आधार प्रभाव को दर्शाते हैं क्योंकि इसकी तुलना 2020 के उन महीनों से की जाती है जब औद्योगिक गतिविधि बढ़ रही थी या धीरे-धीरे पुनर्जीवित हो रही थी। हालांकि, एक बार जब आधार प्रभाव दूर हो जाता है, तो वास्तविक स्थिति सामने आती है - आईआईपी बहुत कमजोर हो जाता है जो लगभग नगण्य विकास है। यानी हर महीने 1-2 प्रतिशत।
अर्थव्यवस्था की रीढ़ क्या है?
आईआईपी विभिन्न प्रकार के औद्योगिक उत्पादन की टोकरी को मापता है। यदि कोई केवल विनिर्माण क्षेत्र पर नज़र डाले, जो अर्थव्यवस्था की रीढ़ (backbone of the economy) है, तो विकास और भी कमज़ोर नज़र आता है। उदाहरण के लिए, मार्च 2022 में, जब समग्र सूचकांक 1.9 प्रतिशत की दर से बढ़ा, तो विनिर्माण क्षेत्र केवल 0.9 प्रतिशत की दर से बढ़ा था।
यह सब यह दिखाने के लिए है कि औद्योगिक क्षेत्र - विशेष रूप से बड़े कॉर्पोरेट क्षेत्र में वृद्धि नहीं हो रही है, इस प्रकार बेरोजगारी में वृद्धि (rise in unemployment) और कृषि या अनौपचारिक क्षेत्र में असुरक्षित और कम वेतन वाली नौकरियों का प्रसार हो रहा है।
आने वाले महीनों में वृद्धि की संभावना धूमिल है, क्योंकि जैसा कि हमने पहले देखा, मांग कम है।
आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक, इस बात की पुष्टि इस तथ्य से हो जाती है कि बड़े उद्योग का बैंक ऋण बहुत ही धीमी गति से बढ़ रहा है।
अप्रैल 2021 और अप्रैल 2022 के बीच बड़े उद्योग का बकाया ऋण में केवल 1.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पिछले वर्ष, महामारी के कारण ऋण में -3.6 प्रतिशत की गिरावट आई थी।
एमएसएमई क्षेत्र के लिए ऋण में तेजी से वृद्धि हुई है, जो सरकार द्वारा उस क्षेत्र को अपनी महामारी प्रबंधन रणनीति (pandemic management strategy) के हिस्से के रूप में उपलब्ध कराए गए आसान ऋण से प्रेरित है। हालांकि, शायद बाज़ार में मांग नहीं है इसलिए यह क्षेत्र अभी भी संकट का सामना कर रहा है।
बढ़ती कीमतें और बेरोज़गारी (Rising prices and unemployment)
बढ़ती कीमतों और लगातार बढ़ती बेरोजगारी के कारण लोगों के समाने स्थिति और भी विकट हो गई है।
उपयोग की आवश्यक वस्तुओं की कीमतें - भोजन से लेकर ईंधन तक - पिछले वर्षों में लगातार बढ़ी हैं। इससे खपत में कटौती हुई है। खुदरा मुद्रास्फीति, यानी आम लोगों द्वारा विभिन्न वस्तुओं या सेवाओं के लिए भुगतान की जाने वाली कीमतों में वृद्धि अप्रैल 2022 में 7.73 प्रतिशत दर्ज की गई थी। जो उसी महीने बढ़कर 8.03 प्रतिशत हो गई थी।
भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर, खुदरा मुद्रास्फीति पिछले साल सितंबर से बढ़ी है।
पिछले एक दशक में 2021-22 का वर्ष सबसे अधिक औसत वार्षिक थोक मूल्य वृद्धि यानी 13 प्रतिशत उच्च कीमतों वाला वर्ष बन गया है। इस वृद्धि में से अधिकांश योगदान ईंधन की बढ़ती कीमतों का है, जो थोक कीमतों में 25 प्रतिशत उछाल के लिए जिम्मेदार है। पेट्रोल और डीजल की कीमतें मुख्य रूप से मोदी सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क लगाने के कारण बढ़ी हैं, जिसने इसे संसाधन जुटाने का एक आसान तरीका माना।
मूल्य वृद्धि वास्तव में प्रत्यक्ष डकैती है - यह आम लोगों की जेब से धनी व्यापारियों और उद्योगपतियों के लिए संसाधनों का हस्तांतरण है।
इस बीच, बेरोजगारी बेरोकटोक जारी है, सीएमआईई के अनुसार, सितंबर 2018 से यह 6.5 फीसदी से अधिक बनी हुई है, यानी लगातार 44 महीनों तक यह क्रम जारी है। इसमें बेरोजगारी की लगभग 25 प्रतिशत दर शामिल है जो अप्रैल 2020 में प्रभावित हुई थी, क्योंकि भारत में अप्रत्याशित रूप से लॉकडाउन लगाया गया था। मई 2022 में, औसत बेरोजगारी 7.2 प्रतिशत थी, जबकि शहरी बेरोजगारी अधिक थी, जो भी 8.2 प्रतिशत पर थी।
इन सभी लक्षणों का संयोजन भारतीय लोगों पर एक असहनीय बोझ बन गया है - और जल्द ही किसी राहत की कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि मोदी सरकार अभी भी केवल उन्हीं नीतिगत नुस्खों की अधिक योजना बना रही है जिन्होंने इस संकट को पैदा किया है।
Web title : Ominous Economic Distress: No Buying Power, No Jobs, Rising Prices
सुबोध वर्मा के न्यूजक्लिक में प्रकाशित महेश कुमार द्वारा अनुदित लेख का किंचित् संपादित रूप साभार