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न्यायपालिका के डरावने बोल : वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में. इनने और घुमाव ला दिया गलियारे में
भारत, दुनिया के उन विरले देशों में से एक है जिसमें रहने वाली आबादी का अपने-अपने समय की न्याय प्रणालियों में अगाध और अटूट भरोसा रहा है।
कबीलाई युग से आज तक न्याय प्रणालियों पर जनता का भरोसा बना रहा
जब से इतिहास शुरू हुआ तब से कबीलाई समाज से लेकर, राजतंत्र से होते हुए मौजूदा संवैधानिक लोकतंत्र तक यह भरोसा बना रहा। हर समय न्याय करने की जो जो प्रणालियाँ रहीं, उनकी भले कितनी भी वर्गीय और वर्णाश्रमी सीमाएं रहीं, लोग इनसे उम्मीद लगाए रहे। कहानियों, लोककथाओं में चिड़ियाएं तक तत्कालीन निज़ाम से इन्साफ मांगने पहुँची और कहानियों में उन्हें इन्साफ मिला भी। साहित्य ने इन सबको गौरवान्वित करते हुए समाज की चेतना में बिठाया - मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी पंच परमेश्वर ने इन्साफ करना निजी दोस्ती और राग द्वेष से ऊपर उठकर किये जाने वाला काम स्थापित किया। अटपटे से अटपटे फैसलों, विवादित और पक्षपाती निर्णयों और न्याय की आसंदी पर बैठे व्यक्तियों के बारे में गलत से गलत सूचनाएं आने के बाद भी न्यायपालिका पर से हिन्दुस्तानियों का विश्वास नहीं डिगा।
यही विश्वास है जो अगस्त 2022 में भारत की निचली अदालतों में चल रहे 4 करोड़ 10 लाख 47 हजार 976, देश के 25 हाईकोर्ट्स में लंबित 59 लाख 57 हजार 454 और सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन 71,411 मुकदमें की अविश्वसनीय लगने वाली संख्या में अभिव्यक्त होता है।
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ऐसे न्याय-आस्थावान देश में हाल के दिनों में अदालतों के गलियारों से बहुत डरावनी आवाजें सुनाई दी हैं। बॉम्बे हाईकोर्ट के जी एन साईबाबा को बरी करने वाले फैसले को उलटने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिखाई गयी हड़बड़ी ही अपने आप में चिंतित करने वाली थी कि उसकी सुनवाई के दौरान जज शाह की : "दिमाग को सारी खुराफात की जड़" बताने वाली टिप्पणी ने फिसलन की एक और नयी गहराई कायम कर दी।
हाईकोर्ट्स और सर्वोच्च न्यायालय के बारे में स्थापित मान्यता यह रही है कि उनका काम संविधान की व्याख्या करना, उसमें दिए गए समता लोकतंत्र और मनुष्यता से जुड़े अधिकारों का बदलते समय के साथ संगति बिठाते हुए विस्तार करना है। इन बड़ी अदालतों का काम राजनीतिक एजेंडा लागू करना नहीं है - इनका काम ठीक इसके प्रतिकूल, राजनीतिक एजेंडे का समाज और संविधान पर अतिक्रमण और सत्ताधीशों की मनमानी रोकना है। कई एक अपवादों के बावजूद अनेक मामलों में इन अदालतों ने मोटा मोटी ऐसा किया भी है।
बड़ी अदालतों पर भी पड़ रहा है संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण का असर?
मगर हाल के दिनों में बाकी संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण और अवमूल्यन के राजनीतिक एजेंडे ने, लगता है कि, अब इन बड़ी अदालतों पर भी असर दिखाना शुरू कर दिया है। विगत कुछ वर्षों के अनेक फैसले इसके उदाहरण हैं, विस्तार से बचने के लिए उन सबका जिक्र नहीं कर रहे।
जैसा कि होता है, फिसलन जब शुरू होती है तो उसके पतन की कोई सीमा नहीं होती। यह एक ऐसा ट्रेंड बनकर सर्वग्रासी हो जाती है। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ का एक फैसला इसी तरह का अशुभ और अपशकुनी संकेत देता है।
जस्टिस सुबोध अभ्यंकर और एसके सिंह की बेंच द्वारा सुनाये गए इस फैसले में एक बलात्कारी की सजा इसलिए कम कर दी गई क्योंकि उसने 4 साल की बच्ची के साथ बलात्कार के बाद "उसे जिंदा छोड़ दिया था।" हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने इसे बलात्कारी की "दयालुता" माना है।
अब बलात्कारी में भी ढूंढी जाने लगी है दयालुता!
चार साल की बच्ची के साथ रेप के आरोप में आईपीसी की धारा-376(2)(एफ) के तहत निचली अदालत ने उसे सजा सुनाई गई थी। निचली अदालत द्वारा मिली उम्रकैद -आख़िरी सांस तक जेल में रहने - की सजा के खिलाफ उसने हाई कोर्ट में अपील की थी। इस अपील को मंजूर करते हुए इस खंडपीठ ने यह विचलित करने वाला निष्कर्ष दिया।
यह रातोंरात नहीं हुआ है। निर्भया काण्ड पर जो देश पूरा हिला हुआ था, उसे धीरे धीरे हाथरस से बदायूं से कठुआ होते होते अब इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया गया है कि बलात्कारी में भी दयालुता ढूंढी जाने लगी है। नवरात्रि में नौ दिन तक देवियों को पूजने वाले और दीपावली पर लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए हजारों करोड़ की आतिशबाजी फूंक देने वाले जम्बूद्वीपे भारत खंडे में न्यायपालिका के गलियारों से उठ रहे घने कोहरे और अँधेरे चिन्हांकित करने होंगे - वरना ये पहली फुरसत में न्याय के प्रति अविश्वास को अपनी कालिमा में लपेट सकते हैं और उसके बाद क्या होगा इसकी कल्पना ही सिहराने वाली है।
बादल सरोज
सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा
ominous words of judiciary