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One day the same chaos will go on for food grains, this is the worst form of capitalism.
जैसे आज अस्पताल में बेड, दवाइयों, ऑक्सीजन आदि स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये मारामारी मची है, वैसे ही यदि सरकार की कृषि नीति नहीं बदली और नए तीनों कृषि कानून रद्द कर किसान हित में नये कानून नहीं बने तो, इन्हीं सड़कों पर लोग चावल दाल गेहूं आदि के लिये भी दौड़ेंगे और सड़कों पर जो तांडव होगा वह अकल्पनीय होगा। बेरोजगारी तो अब कितनी बढ़ गयी है यह सरकार ही बता सकती है।
The second wave of Corona is deadly but it has not come suddenly either.
कोरोना की दूसरी लहर घातक ज़रूर है पर वह भी अचानक नहीं आयी है। कोरोना की पहली लहर के समय जो सरकार के नीति आयोग का उच्च स्तरीय कार्यदल बना था, जिसके प्रमुख डॉ पॉल हैं ने इस बीमारी की रोकथाम और इससे संक्रमित हो जाने पर इलाज के लिये क्या क्या इंतज़ाम किया है ?
रोकथाम के लिये तो चलिए अमिताभ बच्चन की कॉलर ट्यून बजा दी, अन्य एहतियात बता दिए। जिन्होंने मास्क नहीं पहना उनके खिलाफ कार्यवाही की गयी, पर यदि संक्रमण हो गया है तो, ऐसी दशा में, अस्पतालों को क्यों नहीं दवाइयों और अन्य संसाधनों से सुसज्जित किया गया ?
In the priority of the government, there is no public health at all
इसका कारण बस एक ही है कि, सरकार की प्राथमिकता में, जन स्वास्थ्य है ही नहीं। नीति आयोग तो पहले ही कह चुका है कि सरकारी अस्पताल पीपीपी मॉडल पर बेच दिए जाएं, और सरकार ने इस पर अपनी सहमति दे भी दी है। यदि ऐसा होता है तो जो भी निजी प्रबंधन होगा वही सारे इंतज़ाम करेगा। सरकार यह कह कर सरक लेगी कि प्रबंधन देख रहा है।
यकीन मानिये, सरकार की प्राथमिकता में, न तो किसान हैं, न मजदूर, न जनता, न जनता से जुड़ी समस्याएं।
सरकार न तो सरकार को लोककल्याणकारी नीतियों से चलाना जानती है और न ही वह ऐसा करना चाहती है। सरकार चलाने वालों को, सिवाय विभाजनकारी बातों और फर्जी राष्ट्रवाद के प्रलाप के कुछ भी नहीं आता है।
यह तो सभी जानते हैं कि, नए किसान कानून में जमाखोरी पर कोई पाबंदी नहीं रखी गयी है, बल्कि पहली बार जमाखोरी के अपराध को अपराध माना ही नहीं गया है। साफ-साफ कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति, जितना चाहे, जब तक चाहे, अबाध और असीमित भंडारण कर सकता है। अगर आप के पास धन है, संसाधन हैं, भंडारण की क्षमता है तो गांव तो क्या आप दस बीस जिले का गेहूं धान, तिलहन खरीद कर के उसमें गाज सकते हैं। फिर जब दुष्काल आये तो मनचाही कीमत पर बेच सकते हैं। खरीद और फरोख्त दोनों ही आप के मनमाफ़िक। सरकार कह देगी हमने तो मुक्त बाजार दे दिया है, इसी में अपना-अपना समझो बूझो।
तब समझ रहे हैं सरकार क्या कहेगी ? सरकार कहेगी कि यह सारा खरीद फरोख्त तो किसान और व्यापारियों के बीच में है, हम तो कहीं बीच में नहीं हैं। और सच में नए कानून के अनुसार, सरकार इन सब दायित्व से मुक्त हो जाएगी।
अब यह जमाखोरों पर निर्भर है कि, वह आप को कितना राशन, आप को कितनी क़ीमत पर दे। इसका सबसे अधिक नुकसान, मिडिल क्लास का होगा जो पूंजीवाद की बात करता है, पूंजीवाद को खाद पानी देता है और पूंजीवाद उसी की सबसे अधिक दुर्गति भी करता है, पर सम्पन्न और आधुनिक दिखने की चाह, उसे पाश की तरह बांधे हुए है।
अडानी ग्रुप ने जो बड़े-बड़े साइलो या दैत्याकार कोठिला बनाये हैं, वे क्या बिना किसी सरकार के आश्वासन के ही बनाये हैं ? उसे कहा गया होगा कि कानून बदलेगा और तुम इसमें एक अवसर ले सकते हो। हो सकता है यह कानून ही पूंजीपतियों की लॉबी ने ड्राफ्ट कराया हो।
यह तीनों कृषि कानून न केवल किसानों और कृषि संस्कृति को नष्ट कर देंगे, बल्कि इसका सबसे बुरा प्रभाव मिडिल क्लास पर पड़ेगा जो आज स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर की बदहाली से सबसे अधिक रूबरू है। अपने आपपास पीड़ितों और इस महामारी की आपदा में त्रस्त लोगों को देख लीजिए कि वे किस आर्थिक श्रेणी में आते हैं।
अकालों का इतिहास पढ़िये तो अकाल से मरते लोग भी थे, और अनाजों से भरे गोदाम भी। बस नहीं थी तो सरकार की जनता को संकट से उबारने की नीयत और नीति।
अतः जब अकाल जैसी स्थिति होगी तो सरकार इन्हीं जमाखोरों से उनके ही द्वारा तय कीमतों पर राशन खरीदेगी और खुद को तब अनाज वारियर्स घोषित कर के प्राण रक्षक बन जाएगी। अधिकतर जनता इतनी कमज़ोर और बेबस हो चुकी होगी कि, उसके पास इस कृपा पर प्रसन्न होने के अतिरिक्त, अन्य कोई उपाय नहीं होगा।
एक तानाशाह सरकार, प्रजा की सम्पन्नता से डरती है। वह प्रजा को एक सीमा से अधिक सम्पन्न, खुशहाल और मुक्त नहीं रहने देना चाहती है। उसे विद्रोह की आशंका होने लगती है।
आज हमारी सरकार की नीति, नीयत, और कार्यप्रणाली, जनविरोधी है और आज, हम आप आस पास, जो मंजर देख रहे हैं, यह न केवल सरकार का कुप्रबंधन है, बल्कि यह सरकार की प्राथमिकता भी बताता है कि, उसकी प्राथमिकता में जनता और वेलफेयर स्टेट की कोई धारणा है ही नहीं। वह सिर्फ और सिर्फ अपने चहेते पूंजीपतियों के लिये काम करती है। यह पूंजीवाद का निकृष्टतम रूप है, गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म।
विजय शंकर सिंह
लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।
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