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सौ रोगों की एक दवा : डाइवर्सिटी !

मुद्दा : क्या खोए फौजी का भी कोई मानवाधिकार है?

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बाबा साहेब के सपनों के भारत निर्माण के लिए विश्व इतिहास में सामाजिक परिवर्तन की सबसे बड़ी परियोजना!

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डियर सर और मैडम!

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हम ही नहीं, दुनिया के तमाम सुधीजन मानते हैं कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या ‘आर्थिक औ र सामाजिक विषमता’ है, जिसके जठर से ही भूख-कुपोषण- गरीबी, अशिक्षा- अज्ञानता, आतंकवाद- विच्छिन्नतावाद जैसी अन्य कई समस्यायों की सृष्टि होती है! यही वह समस्या है जिससे पार पाने के लिए धरा पर गौतम बुद्ध, मो-ती, मज्दक; हॉब्स- लॉक, रूसो - वाल्टेयर, टॉमस स्पेन्स,  प्रूधो, चार्ल्स हॉल, लिंकन, मार्क्स, लेनिन, माओ, फुले, शाहूजी, पेरियार, आंबेडकर, लोहिया, कांशीराम इत्यादि जैसे ढेरों महामानवों का उदय तथा भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ एवं समग्र इतिहास में लाखो-करोड़ों ने प्राण-बलिदान किया. आज भी इसे लेकर दुनिया के विभिन्न अंचलों में छोटा-बड़ा आन्दोलन/ संघर्ष जारी है. भारत में इसके कुफल से सर्वाधिक चिंतित कोई रहा तो वह संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर रहे. इसलिए उन्होंने राष्ट्र को संविधान सौपने के एक दिन पूर्व इस विषय में 25 नवम्बर, 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से राष्ट्र को चेतावनी देते हुए कहा था- ‘26 जनवरी 1950 से हम एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति के क्षेत्र में मिलेगी समानता: प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देने का अवसर मिलेगा और प्रत्येक वोट का सामान मूल्य होगा.. किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता. हमें इस असमानता को निकटतम समय के मध्य ख़त्म कर लेना होगा, नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढांचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है’. लेकिन आजाद भारत के शासकों ने एकाधिक कारणों से उसकी अनदेखी कर दिया, जिसके फलस्वरूप आज आर्थिक और सामाजिक विषमता की भीषणतम व्याप्ति भारत में है: जिसके कारण हमारा लोकतंत्र संकटग्रस्त हो गया है, जिसका लाभ उठाकर नक्सलवादी 2050 लोकतंत्र के मंदिर पर कब्ज़ा ज़माने का एलान कर चुके हैं!

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भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के सारे उपाय अब तक व्यर्थ रहे हैं और यह समस्या दिन ब दिन विकराल रूप धारण करती जा रही है, जिसे देखते हुए लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ में भारत को ‘नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल’ अपनाने की सलाह दी गयी है. लेकिन गंभीरता से अध्ययन करने पर पता चलता है कि भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने में नॉर्डिक मॉडल के मुकाबले बहुजन डाइवर्सिटी मिशन (बीडीएम) का दस सूत्रीय एजेंडा बहुत ज्यादा प्रभावशाली है. इसको सम्यक तरीके से रिवर्स प्रणाली में लागू करने पर हमारा लोकतंत्र तो सुदृढ़ व संकटमुक्त हो ही जायेगा, आधी आबादी 257 साल के बजाय 57 सालों में आर्थिक रूप से पुरुषों की बराबरी करने की स्थिति में आ जाएगी. इसके अतिरिक्त इस एजेंडे को लागू करने से भ्रष्टाचार को न्यूनतम स्तर पर लाने,  संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति, सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, आरक्षण की मांग से उपजते गृह-युद्ध से निजात पाने, नक्सलवाद का शमन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को रोकने,हिंदुत्ववादी नयी शिक्षा नीति की प्रभावी काट और विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने के मोर्चे पर भी देश सफल हो सकता है.समस्याग्रस्त भारत के सौ रोगों की एक दवा डाइवर्सिटी ही है,ऐसा मानने वाले ढेरों लोग हैं,  ऐसा मेरा दृढ विश्वास है. यदि आप भी भारत के प्रमुख समाजों- एससी/ एसटी, ओबीसी,  धार्मिक अल्प संख्यक और सवर्णों- के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे मार्ग प्रशस्त करने वाले बीडीएम के निम्न दस सूत्रीय एजेंडे पर गौर फरमाएं तो आप भी मानेंगे कि सौ रोगों की एक दवा डाइवर्सिटी ही है-:

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1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य; 2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी; 4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; 5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन; 6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि; 7-देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि; 8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों; 9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं 10- ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में..

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बीडीएम के 10 सूत्रीय एजेंडे के अमलीकरण के जरिये शक्ति के प्रमुख स्रोतों – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- का सम्यक बंटवारा हो जायेगा और देश आर्थिक और सामाजिक विषमताजन्य समस्त समस्यायों से पार पा जायेगा, इसलिए ही हम डाइवर्सिटी को सौ रोगों की एक दवा मानते हैं. लेकिन भारी विस्मय की बात है कि सौ रोगों की एक दवा बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को अतीत में कई पार्टियों ने अपने घोषणापत्र में जगह देने व सत्ता में आने के बाद इस पर कुछ-कुछ अमल किये जाने के बावजूद अबतक कोई ऐसी पार्टी सामने नहीं आई है जो पूरे दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करने की इच्छा शक्ति प्रदर्शित की हो, जबकि इसके लिए बीडीएम की ओर से डाइवर्सिटी केन्द्रित शताधिक किताबों, ढेरों ज्ञापन और बेशुमार अखबारी लेखों के जरिये उन तक सन्देश पहुंचाया गया.

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 कैसे लागू होगा बीडीएम का डाइवर्सिटी एजेंडा !

बहरहाल आज भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता जिस तरह शिखर पर पहुंची है; जिस तरह नीचे की प्रायः 60% आबादी महज 5-7 % नेशनल वेल्थ पर गुजर-वसर करने के लिए विवश है; जिस तरह भारत नाइजीरिया को पीछे छोड़ते हुए दुनिया के poverty कैपिटल अर्थात ‘गरीबी की राजधानी ‘का ख़िताब अपने नाम किया है; जिस तरह देश की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल लगने के कयास लगाये जा रहे हैं और सर्वोपरि जिस तरह शासक वर्ग की नीतियों से बहुसंख्य वंचित समाज उस स्टेज में पहुंचा दिया गए है, जिस स्टेज में पहुंचने पर सारी दुनिया में वंचितों को मुक्ति- संग्राम में उतरना पड़ा है, ऐसी दशा में कोई भी संवेदनशील व देश-भक्त व्यक्ति मूकदर्शक बने नहीं रह सकता. ऐसी स्थिति में बहुजन डाइवर्सिटी मिशन से जुड़े लोगों के समक्ष एक अतिरिक्त जिम्मेवारी आन पड़ी है. चूँकि बीडीएम का दस सूत्रीय एजेडा लागू कर ही देश व बहुसंख्य समाज को संकट-मुक्त किया जा सकता है, इसलिए वर्तमान हालात में हम बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करवाने की चिंता में पहले से कई गुना निमग्न हो गए हैं. इसे लागू करवाना आज पहले के मुकाबले कई गुना अत्याज्य कर्तव्य हो गया है. लेकिन सवाल पैदा होता है लागू करेगा कौन? जहां तक वर्तमान सरकार का सवाल है, वह तो वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए दलित, आदिवासी, पिछड़े और महिलाओं को उस हालात में पहुचाने मे सर्वशक्ति लगा रही है, जिस हालात में इन्हें रहने का निर्देश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं. ऐसे में शक्ति के समस्त स्रोतों पर हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु- जंघे) से जन्मे लोगों के हाथ में देने पर आमादा वर्तमान सरकार से कोई उम्मीद नहीं: फिर उम्मीद किससे की जाय बहुजनवादी दलों से? तमाम लोग यही कहेंगे कि जो हिंदी पट्टी देश के राजनीति की दिशा तय करती है, वहां मजबूती से पैर जमायी सपा-बसपा- राजद- लोजपा इत्यादि पार्टियां ही सामाजिक न्याय के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता के कारण बीडीएम के एजेंडे को लागू करने में रूचि ले सकती हैं, इसलिए इन पर ही निर्भर होकर इसे लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए. लेकिन इन पर निर्भर होने के पहले जरा इनके मौजूदा चरित्र का अध्ययन कर लिया जाय!

बहुजनवादी दलों से कितनी उम्मीद !

इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी पट्टी के बहुजनवादी दलों ने मंडल उत्तरकाल में विराट सम्भावना जगाया, किन्तु वह चिरस्थायी न हो सका और 2009 के लोकसभा चुनाव से वे सामाजिक न्याय की राजनीति से विचलन का संकेत देने लगे. दरअसल 2009 तक वे बहुजन समाज को अपने वोटों का गुलाम समझने लगे थे. वे यह मानकर निश्चिन्त थे कि कुछ नहीं भी करने पर बहुजनों का वोट उन्हें थोक भाव में मिलते रहेगा. इसलिए उन्होंने न सिर्फ सारा ध्यान सवर्णों पर लगाना शुरू किया, बल्कि उनके हिसाब से एजेंडा भी सेट करने लगे. वे बहुजनों की भागीदारी को दरकिनार कर गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की आवाज़ बुलंद करने लगे थे. इस समय तक खुद को जातिमुक्त दिखाने के लिए उन्होंने तिलक तराजू .. और भूराबाल जैसे नारों से पूरी तरह दूरी बना लिया था . वे सवर्णों के सहारे पीएम बनने के सपनों में विभोर हो गए थे. सामाजिक न्याय की राजनीति से उनके विचलन का परिणाम 2009 के लोकसभा चुनाव में गहरी शिकस्त के रूप में आया. जिस पर टिप्पणी करते हुए प्राख्यात बहुजन पत्रकार दिलीप मंडल ने ‘मंद पड़ने लगी है सामाजिक न्याय की राजनीति’ शीर्षक से 25 मई, 2009 को ‘नवभारत टाइम्स’ में लिखा था –:

‘वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में हिंदी पट्टी के दो राज्यों,  बिहार और यूपी के राजनीति की एक हकीकत उजागर हो गयी है. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती और यूपी में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद मुलायम सिंह यादव, ये सभी महारथी अपनी चमक खो चुके हैं. इसके साथ ही भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में वंचित समूहों की हिस्सेदारी बढ़ने की जो प्रक्रिया लगभग 20 साल पहले शुरू हुई थी, उस मॉडल के नायक –नायिकाओं का निर्णायक रूप से पतन हो चुका है. हालाकि यह सब एक दिन में नहीं हुआ है, लेकिन अब वह समय है, जब इसके पतन और विखंडन की प्रक्रिया पूरी हो रही है. सामाजिक न्याय की राजनीति का सफ़र जिस उम्मीद से शुरू हुआ था, उसे याद करें तो इन मूर्तियों का इस तरह गिरना और नष्ट होना तकलीफ देता है. बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक वजूद घट गया है और उनकी पार्टी सिर्फ चार सीटें जीत पाई है या रामविलास पासवान की पार्टी का अब लोकसभा में अब कोई नामलेवा नहीं बचा है. न ही इस बात का निर्णायक महत्त्व है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने का ख्वाब सजों रही मायावती की पार्टी का प्रदर्शन इस लोकसभा चुनाव में बेहद ख़राब रहा. मुलायम सिंह के पार्टी का प्रदर्शन पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले खराब होने का भी निर्णायक महत्त्व नहीं है. अहम बात यह है कि इनसे राजनीति के जिस मॉडल की बागडोर सँभालने की अपेक्षा की जा रही थी और इनके जनाधार की जो महत्वाकांक्षाएं थी, उसे पूरा करने में सभी नाकामयाब हो चुके हैं. यह एक सपने के टूटने की दास्तान है. यह सपना था भारत को बेहतर और सबकी हिस्सेदारी वाला लोकतंत्र बनाने और देश के संसाधनों पर खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी दिलाने का. मायावती की बात करें तो दो दशक पहले जिस तेजतर्रार नेता को देश ने उभरते हुए देखा था, अब की मायावती उसकी छाया भी नहीं लगतीं.’

बहरहाल 2009 में दिलीप मंडल ने सामाजिक न्याय के राजनीति के मंद पड़ने की जो घोषणा किया था, वह 2014 में और बदतर स्थिति में पहुँच गयी. 2009 के पराजय के बाद उन्हें सामाजिक न्याय की उग्र राजनीति की ओर लौटना था, पर वे खुद को नहीं बदले और अच्छे दिन लाने की उम्मीद जगा कर 2014 के लोकसभा में उतरे नरेंद्र मोदी नामक तूफ़ान के सामने उड़ से गए. सबसे बुरी स्थिति बसपा की हुई. सामाजिक न्याय से भारी दूरी बनाने के कारण मायावती जी की बसपा शून्य पर पर पहुँच गयी.2014 में मुखर बहुजन नेता रामविलास पासवान सामाजिक न्याय का खेमा बदलकर मोदी के साथ हो लिए. बहरहाल बहुजनवादी दलों में अगर 2009 में लोजपा; 2014 में बसपा शून्य पर पहुंचने का रिकॉर्ड बनायीं तो 2019 में सामाजिक न्याय की बेहद मुखर पार्टी राजद शून्य पर पहुँच गयी. वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के उदय के बाद बहुजनवादी पार्टियां चुनाव दर चुनाव अपनी स्थिति कारुणिक बनाती गईं. इसका प्रधान कारण यह रहा कि जिस सामाजिक न्याय के राजनीति की जोर से भाजपा को शिकस्त दी जा सकती थी, इन्होंने वह मुद्दा उठाया ही नहीं. एकमात्र अपवाद रहे लालू प्रसाद यादव जिन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में डाइवर्सिटी केन्द्रित मुद्दा उठाकर लोकप्रियता के शिखर पर काबिज मोदी की भाजपा को शिकस्त दे दिया. 2015 के बाद हिंदी पट्टी में चार चुनाव हुए : 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव, 2019 में लोकसभा चुनाव, 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव और 2022 में फिर यूपी विधानसभा चुनाव. आश्चर्य की बात यह रही कि अज्ञात कारणों से यूपी और बिहार के बहुजन नेतृत्व ने इन चुनावों में सामाजिक न्याय से जुड़ा जरा भी मुद्दा नहीं उठाया. एक ऐसे दौर में जबकि मोदी सत्ता में आने के बाद राजसत्ता का अधिकतम इस्तेमाल निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री के जरिये आरक्षण के खात्मे और संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने में कर रहे थे, इन्होंने चारों चुनावों में आरक्षण को विस्तार देने वाला मुद्दा उठाया ही नहीं. जबकि इनके समक्ष लालू प्रसाद यादव का दृष्टांत था, जिन्होंने डाइवर्सिटी केन्द्रित हल्का सा मुद्दा उठाकर 2015 मोदी जी को आराम से शिकस्त दे दिया था. यदि इन्होंने कायदे से डाइवर्सिटी टाइप मुद्दा उठाया होता, मोदी की 2019 में न तो सत्ता में वापसी हो पाती और न ही बहुजनों के गुलामों की स्थिति में पहुचने की नौबत आती.

मर सी गयी है बहुजनवादी दलों में सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति !

ऐसा लगता है मोदी के उत्तरोत्तर अप्रतिरोध्य बनते जाने के साथ अज्ञात कारणों से बहुजन नेतृत्व में सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति मरती गयी, जबकि सत्ता में आने के बाद जिस तरह जूनून से मोदी आरक्षण के खात्मे और शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों के हाथ में देने में मुस्तैद हुए थे, उससे वंचित बहुजनों को आक्रोशित कर सत्ता दखल की बेहतर जमीन तैयार होने लगी थी. किन्तु जैसा पूर्व पंक्तियों में कहा कि इनमें सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति ही विलुप्त सी हो गयी, इसलिए उन्होंने मोदी की बहुजन विरोधी नीतियों के सद्व्यवहार में कोई रूचि ही नहीं ली. अगर ऐसा नहीं होता तो वे कहते कि हम सत्ता में आने के 24 घंटे के अन्दर सवर्ण आरक्षण का खात्मा कर देंगे और जाति जनगणना कराकर उनको उनके संख्यानुपात में हर क्षेत्र में अवसर देंगे तथा उनके हिस्से का 65 से 75 प्रतिशत अतिरक्त(Surplus ) अवसर दलित, आदिवासी पिछड़ो और अकलियतों के मध्य बाटेंगे. जिस तरह मोदीराज में लाभजनक सरकारी उपक्रमों को अन्धाधुन बेचा गया, वे कह सकते थे कि हम सत्ता में आने पर बेचीं गयी सरकारी कंपनियों और परिसंपत्तियों की समीक्षा कराएँगे और प्रयोजन होने पर पुनः राष्ट्रीयकरण करेंगे. वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति सहित सत्ता में आने पर सरकार के हर बहुजन विरोधी फैसलों को पलटने की बात कहकर अपने समर्थकों में सामाजिक न्याय का सपना दे सकते थे पर, इच्छाशक्ति ख़त्म होने के कारण ऐसा न कर सके.     

सबसे बड़ी बात तो यह है कि मोदी सरकार ने अपनी बहुजन विरोधी नीतियों से सापेक्षिक वंचना( Relative Deprivation) को तुंग पर पंहुचा दिया,  किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में बहुजन नेतृत्व इसके सद्व्यवहार से मीलों दूर रहे. क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब वंचित वर्गों में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब उन में शक्ति संपन्न वर्ग के खिलाफ आक्रोश की चिंगारी फूट पड़ती है और वे शासकों को सत्ता से दूर धकेल देते हैं. समाज विज्ञानियों के मुताबिक़, ’दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं, तब हम क्यों रहें !’ सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना. दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का अहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमें भस्म हो गयी वहां गोरों की तानाशाही सत्ता. जिस तरह आज शासकों, विशेषकर मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों से जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- पर बेहिसाब कब्जा कायम हुआ है, उससे सापेक्षिक वंचना के तुंग पर पहुंचने लायक जो हालात भारत में पूंजीभूत हुये हैं, वैसे हालात विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं रहे: यहाँ तक कि फ्रांसीसी क्रांति या रूस की जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में भी नहीं रही !

मोदी सरकार की सवर्णपरस्त नीतियों से जिस तरह शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का वर्चस्व और ज्यादा बढ़ा है, उसके आधार पर दावे के साथ कहा जा सकता है कि न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय विशेष का नहीं है.यहीं नहीं जिन- जिन देशों में मुक्ति आंदोलन संगठित हुये क्या उन देशों में शासक वर्गों का शक्ति के स्रोतों पर भारत के सवर्णों से बहुत ज्यादा रहा? नहीं! लेकिन मोदी सरकार द्वारा लगातार देश को बेचने तथा बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुचाने का उपक्रम करते देखकर भी बहुजनवादी विपक्ष कभी सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार के लिए आगे इसलिए नहीं आया, क्योंकि अदृश्य व अज्ञात कारणों से उसमें सत्ता हासिल करने की इच्छा शक्ति शायद विलुप्त हो गयी है. अतः जिन बहुजनवादी दलों में सत्ता में आने की चाह विलुप्त सी हो गयी, उनसे यह प्रत्याशा नहीं की जा सकती कि वे शक्ति के समस्त सोतों के वाजिब बंटवारे की हिमायत करने वाले बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के दस सूत्रीय एजेंडे में कोई रूचि लेंगे! ऐसे में इसे लागू करवाने के लिए अन्य विकल्पों पर विचार करना होगा.

जनता के जरिये सरकारों पर बनाया जाय बीडीएम के एजेंडे को लागू करवाने का दबाव!

आज की तारीख में एक ओर जहां शासक वर्ग भीषण विषमता से ऑंखें मूंदे शक्ति के समस्त स्रोत मुट्ठी भर सुविधाभोगी वर्ग के हाथो में देने पर आमादा है और दूसरी ओर वंचितों के नाम पर राजनीति करने वाले अपने कर्तव्य से विमुख हो गए हैं,ऐसे में शेष विकल्प यही दिखाई पड़ता है कि इसके लिए उस अवाम के शरण में जाया जाय जो आर्थिक और सामाजिक विषमता की चक्की में बुरी तरह पिस रहा रहा है. इसके लिए हम छोटे-छोटे उन राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर विषमता से पीड़ित के जनता के बीच जाएं जो दल/संगठन मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या के खात्मे की लड़ाई लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं. हम मिलजुलकर जनता को तैयार करें कि वह भीषण विषमता से पार पाने के लिए देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों इत्यादि के समक्ष बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करवाने की लिखित अपील करें. यदि हम कोटि-कोटि जनता को ऐसी अपील के लिए तैयार लें तो आशावादी हुआ जा सकता है कि सत्ता में बैठे लोग इसे लागू करने में अपनी क्षमता का इस्तेमाल करने का जरुर मन बनायेंगे. इसके लिए सर्वोतम उपाय होगा signature compaign (हस्ताक्षर अभियान)!

हस्ताक्षर अभियान : आन्दोलन का सबसे प्रभावी व शांतिपूर्ण माध्यम !  

जहां तक हस्ताक्षर अभियान का सवाल है, यह आन्दोलन का बेहद प्रभावी और शांतिपूर्ण माध्यम है, जिसका उपयोग समय-समय पर विभिन्न राजनीतिक व सामाजिक संगठन अपने मांगपत्र की ओर सरकारों का ध्यान आकर्षित करने के लिए करते हैं. आन्दोलन के इस स्वरूप का यदि किसी ने सबसे प्रभावशाली इस्तेमाल किया है तो वे संघ के भाजपा जैसे अन्य कई अनुषांगिक संगठन ही हैं ! यदि खोज किया जाय तो पता चलेगा देश के कई अंचलों में आज भी कई संगठन अपनी-अपनी मांगों के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाये जा रहे हैं. ऐसे में कई संगठनों के साथ मिलकर बहुजन डाइवर्सिटी मिशन द्वारा चलाये जाना वाला हस्ताक्षर अभियान कोई नयी बात नहीं होगी. हां, ऐसा हो सकता है कि यह भारत के हस्ताक्षर अभियान के इतिहास में सबसे बड़ा हस्ताक्षर अभियान साबित हो. ऐसा इसलिए क्योंकि यह भारत में व्याप्त मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाने के लिए चलाया जायेगा!

हस्ताक्षर अभियान के जरिये बीडीएम का डाइवर्सिटी एजेंडा लागू करवाने के लिए हम जिस जनता का शरणागत होना चाहते हैं, वह वंचित वर्गों का बेहद खास तबका होगा. हम हस्ताक्षर अभियान चलाने की जो योजना बना रहे हैं, उसमें हमारा लक्षित वर्ग होगा इंटरनेट यूजर वर्ग ! सनद रहे देश में वर्तमान समय में 700 मिलियन अर्थात 70 करोड़ लोग इंटरनेट यूज कर रहे हैं और 2024 तक इनकी संख्या 900 मिलियन अर्थात 90 करोड़ तक पहुच जाने की सम्भावना है. इनमे सुविधाभोगी वर्ग के यूजरों को यदि माइनस कर दिया जाय तो वर्तमान में बहुजन इंटरनेट यूजरों की संख्या 50 करोड़ हो सकती है जो 2024 तक जरुर 60 करोड़ तक पहुँच जाएगी.हम इन्हीं इंटरनेट यूजरों से संपर्क साधने पर अपनी अधिकतम गतिविधियां केन्द्रित करेगे. क्योंकि दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे कन्वर्टेड इंटरनेट यूजर्स का यह वर्ग शैक्षिक और आर्थिक रूप से अन्य बहुजनों से ज्यादा अग्रसर होने के साथ कुछ ज्यादा जागरूक भी होगा, ऐसा हमें मानकर चलना चाहिए. इसलिए इस वर्ग को अपने पक्ष में करने पर सर्वशक्ति लगायेंगे.

विश्व इतिहास में सामाजिक परिवर्तन की सबसे बड़ी परियोजना बनेगा हमारा हस्ताक्षर अभियान!

हस्ताक्षर अभियान के जरिये आजादी की सौवीं वर्षगांठ अर्थात 2047 तक 50 करोड़ लोगों को आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे की लड़ाई में शामिल करने के लिए हम कई संगठनों को मिलाकर ‘यूनिवर्सल रिजर्वेशन फ्रंट’(सर्वव्यापी आरक्षण मोर्चा) बनाने और 10 हजार पेड वर्कर उतारने की योजना पर काम करेंगे! ये पेड़ वर्कर ही इंटरनेट यूजर लोगों का हस्ताक्षर लेने के मैदान में जायेंगे. हस्ताक्षर लेने के बाद वे प्रत्येक हस्ताक्षरकर्ता को 2000 रूपये मूल्य का डाइवर्सिटी साहित्य उनके मोबाइल में डाल देंगे. विषमता और मुक्ति की लड़ाई लड़ने के लिए वे 2000 मूल्य की किताबों के विनिमय में लोगों से 50 रूपये की सहयोग राशि लेंगे. देखने में 50 रूपये की धनराशि जरुर छोटी लगती है पर, यदि इसे 50 करोड़ से गुणा किया जाय तो यह 2,500 सौ करोड़ हो जाएगी. इस तरह हमारे हस्ताक्षरकर्ता आर्थिक और सामाजिक के खात्मे की लड़ाई में फंड का स्रोत बनेंगे. सिर्फ फंड का स्रोत ही नहीं, एक अन्य कारण से ये हमारे सहयोगी पार्टियों के लिए वोटर में भी तब्दील होते जायेंगे. और वह कारण यह है कि हस्ताक्षर के बाद हमें जो उनका व्हाट्सप नंबर मिलेगा, उस पर अपनी तकनीकि टीम के सहारे नियमित रूप से अपने नेताओं- लेखकों के भाषणों का वीडियो और आर्टिकल इत्यादि भेजते जायेंगे. हस्ताक्षरकर्ताओं के मोबाइल पर डाइवर्सिटी केन्द्रित 2000 मूल्य की दर्जन भर किताबों के साथ हमारे नेताओं के भाषण और लेखों का सैलाब उन्हें हमारे सहयोगी दलों के वोटर के रूप में तब्दील कर देगा, इसके प्रति पूरा आश्वस्त हुआ जा सकता है. कुल मिलाकर यूनिवर्सल रिजर्वेशन फ्रंट अर्थात यूआरऍफ़ की देखरेख में चलने वाला हमारा हस्ताक्षर अभियान विश्व इतिहास में सामाजिक परिवर्तन की सबसे बड़ी परियोजना साबित होने जा रहा है,जिसके जरिये हम बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के सपनों के आर्थिक और सामाजिक विषमता-मुक्त भारत निर्माण को जमीन पर उतारने के लिए एक लाख करोड़ का डाइवर्सिटी साहित्य बहुजनों को प्रायः निःशुल्क सुलभ कराने, ढाई हजार करोड़ का फण्ड और दस हजार पेड वर्कर जमीन पर उतारने की तैयारी प्रायः पूरी कर लिए हैं. बहरहाल जो हस्ताक्षर अभियान भरपूर फंड और वोटर पैदा करने की कूवत रखता है, उसमें हम अगर कुछेक वर्षों के निरंतर प्रयास के बाद यदि 15 से 20 प्रतिशत भी सफल हो गए तो मानकर चलना चाहिए हम कुछ वर्षों में आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे की लड़ाई में 500 करोड़ का फंड और 8 से 10 करोड़ मतदाता पैदा करने में सफल हो जायेंगे. और यह अभियान यदि हम संघ परिवार की तरह सघन रूप से 2047 तक चला लें तो इस देश पर बहुजनों की चिरस्थायी सत्ता कोई रोक नहीं पायेगा!

जय भीम जय भारत जय डाइवर्सिटी !

एच एल दुसाध

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के संस्थापक अध्यक्ष हैं।

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