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काटजू, ठोंकते रहो
आज सुबह मैंने अपने fb मैसेंजर पर किसी के द्वारा भेजा गया यह संदेश देखा:
''नमस्ते सर, मैं इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाला वकील हूं।
आज एक बुजुर्ग अधिवक्ता ने मुझे आपके पिछले समय की याद दिलाई जब आप इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सिटिंग जज थे।
मैं विध्वंस (demolition) के एक मामले पर बहस करने के लिए इंतजार कर रहा था, जब मेरे बगल में बैठे एक बहुत बुजुर्ग वकील ने कहा, ये आज के जज क्या डिमोलीशन रोकेंगे? वो जस्टिस काटजू था जो ऐसे अफसरों की हेकड़ी निकाल देता था। मैं उस वक्त का वकील हूं जब काटजू जैसे जज एक भी दुकान या मकान नहीं गिरने देते थे।
आप अभी भी बहुतों के दिलों में रत्न हैं।'
इस संदेश ने मुझे याद दिलाया कि लगभग 25 साल पहले क्या हुआ था, और शायद वह बुजुर्ग वकील किस बात का जिक्र कर रहे थे।
मैं तब 1991 में नियुक्त, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक कनिष्ठ न्यायाधीश था।
यूपी में, 1993 में राज्य विधानसभा चुनाव हुए और सुश्री मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में एक गठबंधन सपा-बसपा सरकार सत्ता में आई। सपा और बसपा निचली जातियों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, और इसलिए निचली जातियों के लिए 'सामाजिक न्याय' के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, राज्य में सत्तारूढ़ राजनेताओं ने उच्च जातियों के घरों को हड़पने के लिए एक अनूठी कार्यप्रणाली तैयार की। यह कार्यप्रणाली थी, किराया नियंत्रण और बेदखली अधिकारी Rent Control & Eviction Officer (जो एक सरकारी अधिकारी होने के नाते सत्ताधारी राजनेताओं के आदेशों का पालन करने को मजबूर थे ) द्वारा मालिक/किराएदार/अधिभोगी के पीछे (यानी बिना उस पर कोई नोटिस दिए) अलॉटमेंट ऑर्डर पास करना और और उसके बाद गुंडों और असामाजिक तत्वों की भीड़ (जो हर राजनीतिक दल के पास है) के साथ घर को जल्दी से हड़पना।
मैं तब उस अधिकार क्षेत्र में बैठा था जहां दर्जनों रिट याचिकाएं दायर की गई थीं, जिसमें इस तरह के अवैध आवास हड़पने को चुनौती दी गई थी। मुझे जल्द ही एहसास हो गया कि अगर इसे जारी रखने की अनुमति दी गई तो राज्य में कानून व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो जाएगी और जंगल राज कायम हो जाएगा।
मैंने यूपी के गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को तलब किया, उन्हें व्यक्तिगत रूप से मेरे न्यायालय में पेश होने का आदेश दिया। खचाखच भरी अदालत में जब वे पेश हुए तो मैंने उनसे कहा कि कानून-व्यवस्था बनाए रखना नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों का कर्तव्य है, लेकिन यह अफसोस की बात है कि वे राजनेताओं के सामने कायरतापूर्ण व्यवहार करके अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहे हैं।
मैंने उन्हें बताया कि हमारे प्राचीन विचारकों का विचार था कि समाज में सबसे खराब संभव स्थिति अराजकता की स्थिति है। जब कानून का शासन ध्वस्त हो जाता है तब मत्स्य न्याय जन्म ले लेता है, जिसका अर्थ है जंगल का कानून।
संस्कृत में 'मत्स्य' शब्द का अर्थ मछली है, और मत्स्य न्याय का अर्थ उस स्थिति से है जब बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। हमारे सभी प्राचीन विचारकों ने मत्स्य न्याय की निंदा की है (पी.वी. काणे द्वारा 'धर्मशास्त्रों का इतिहास' देखें, खंड 3 पृष्ठ 21)।
मत्स्य न्याय का यह विचार (बड़ी मछलियों का छोटी मछलियों को खा जाना, या कमजोरों पर मज़बूतों का हावी हो जाना) अक्सर कौटिल्य, महाभारत और अन्य ग्रंथों में वर्णित है । इसका वर्णन शतपथ ब्राह्मण (अध्याय ११,१.६.२४) में भी है, जहाँ यह कहा गया है कि "जब भी सूखा पड़ता है, तब ताकतवर कमजोर पर कब्जा कर लेता है, क्योंकि जल ही कानून है" अर्थात बारिश के अभाव से कानून का शासन समाप्त हो जाता है, और मत्स्य न्याय का संचालन शुरू हो जाता है।
कौटिल्य कहते हैं, "यदि दंड को नियोजित नहीं किया जाता है, तो यह मत्स्य न्याय की स्थिति को जन्म देता है, क्योंकि एक कानून के पालक की अनुपस्थिति में मजबूत कमजोर को खा जाता है"। एक राजा की अनुपस्थिति में ( अराजक ) या जब सजा का कोई भय नहीं होता है तो मत्स्य न्याय की स्थिति पैदा हो जाती है ( देखिये रामायण अध्याय ६७, महाभारत का शांतिपर्व अध्याय १५, १६, ३० और ६७, कामन्दक अध्याय 40, मत्स्य पुराण (225.9), मानस उल्लास (2.20.1295), आदि )।
इस प्रकार महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है :
“राजा चेन्न भवेद्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः
शूले मत्स्या निवापक्षयं दुर्बलात बलवत्तराः "
अर्थात
"जब दंड की छड़ी लिए राजा पृथ्वी की रक्षा नहीं करता है, तो मजबूत व्यक्ति कमजोर लोगों को नष्ट कर देते हैं, ठीक उसी तरह जैसे पानी में बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा जाती हैं"।
महाभारत के शांतिपर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि अराजकता से बुरा संसार में कुछ भी नहीं है, क्योंकि मत्स्य न्याय की स्थिति में कोई भी सुरक्षित नहीं हैI बुरे कर्ता को भी जल्दी या बाद में अन्य बुरे कर्ता निगल जाएंगेI
तब मैंने इन सभी घरों पर कब्जा करने के मामलों में फैसला सुनाया (उनमें से दर्जनों थे), वैध कब्जा करने वालों को कब्जा बहाल कर दिया, और पुलिस को 24 घंटे के भीतर अवैध घर हड़पने वालों को बाहर निकालने का आदेश दिया। मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि राज्य में घर हड़पने की भयावह घटनाओं के पीछे मुझे मत्स्य न्याय का खतरा मंडराना दिखाई दे रहा था (श्रीमती चेतन आत्मा गोविल बनाम रेंट कंट्रोल एंड एविक्शन ऑफिसर, सहारनपुर रिट याचिका 9973, 1995 में 9.5.1995 को दिए गए मेरे फैसले को देखें) I
इसी प्रकार, राम कुमार अग्रवाल बनाम रेंट कंट्रोल एंड एविक्शन ऑफिसर, बरेली, 1994 की रिट याचिका 41457 में 28.4.19945 को दिए गए निर्णय में मैंने कहा, ''यह अदालत इस स्थिति को बर्दाश्त नहीं कर सकती, अन्यथा कोई भी सभ्य और कानून का पालन करने वाला नागरिक अपने घर में सुरक्षित नहीं रहेगा। गुंडों की भीड़ एक गुप्त आवंटन आदेश के साथ घर में घुस सकती है, रहने वालों को मार सकती है, उन्हें उनके सामान के साथ बाहर फेंक सकती है और वहां पार्टी का झंडा फहरा सकती है, जैसा कि आजकल किया जा रहा है''।
इन घर हथियाने के मामलों में मेरे फैसलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई, और जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता वाली बेंच ने सभी को खारिज कर दिया।
इन फैसलों को सुनाने के कुछ समय बाद मैं जस्टिस कुलदीप सिंह से दिल्ली में एक समारोह में मिला, जिसमें हम दोनों शामिल हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा, '' काटजू, ठोंकते रहो, ठोंकते रहो।''
जस्टिस मार्कंडेय काटजू
(लेखक सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश हैं)