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विपक्ष नए संसद भवन का पीएम मोदी द्वारा उद्घाटन का विरोध क्यों कर रहा है?
28 मई को नए संसद भवन का प्रधानमंत्री द्वारा होने वाला उद्घाटन वर्तमान में चर्चा का सबसे बड़ा विषय बना हुआ है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को दरकिनार कर प्रधानमंत्री द्वारा इसका उद्घाटन किये जाने को लेकर इतनी आपत्ति है कि विपक्ष के 19 दलों ने नए संसद के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार कर कर दिया है. इस पर 24 मई को ‘समान विचारधारा वाले विपक्षी दलों- राष्ट्रीय कांग्रेस, डीएमके, शिवसेना (उद्धव ठाकरे ), सपा, टीएमसी, आप, जेएमएम, राजद, जदयू, एनसीपी, सीपीआई, राष्ट्रीय लोकदल इत्यादि द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया है- ‘नए संसद भवन का उद्घाटन एक महत्वपूर्ण अवसर है. हमारे इस विश्वास के बावजूद कि सरकार लोकतंत्र को खतरे में डाल रही है. और जिस निरंकुश तरीके से नए संसद का निर्माण किया गया था, उसकी हमारी अस्वीकृति के बावजूद हम अपने मतभेदों को दूर करने और इस अवसर को चिन्हित करने के लिए तैयार थे. हालांकि, राष्ट्रपति मुर्मू को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए, नए संसद भवन का उद्घाटन करने का प्रधानमंत्री मोदी का निर्णय न केवल एक गंभीर अपमान है, बल्कि हमारे लोकतंत्र पर सीधा हमला है, जो इसके अनुरूप प्रतिक्रिया की मांग करता है.
भारत के संविधान के अनुच्छेद 79 में कहा गया है कि ‘संघ के लिए एक संसद होगी जिसमे राष्ट्रपति और दो सदन होंगे जिन्हें क्रमशः राज्यों की परिषद् और लोगों की सभा के रूप में जाना जायेगा.’
राष्ट्रपति न केवल भारत में राज्य का प्रमुख होता है, बल्कि संसद का अभिन्न अंग भी होता है. वह संसद को बुलाती है, सत्रावसान करती है और संबोधित करती है. संक्षेप में, राष्ट्रपति के बिना संसद कार्य नहीं कर सकती है. फिर भी, प्रधानमंत्री ने उनके बिना नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्णय लिया है. यह अशोभनीय कृत्य राष्ट्रपति के उच्च पद का अपमान करता है. और संविधान के पाठ और भावना का उल्लंघन करता है. यह सम्मान के साथ सबको साथ लेकर चलने की उस भावना का को कमजोर करता है, जिसके देश ने अपनी पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति का स्वागत किया था.
संसद को लगातार खोखला करने वाले प्रधानमन्त्री के लिए अलोकतांत्रिक कृत्य कोई नयी बात नहीं है. संसद के विपक्षी सदस्यों को अयोग्य, निलंबित और मौन कर दिया गया है जब उन्होंने भारत के लोगों के मुद्दों को उठाया. सत्ता पक्ष के सांसदों ने संसद को बाधित किया है. तीन कृषि कानूनों सहित कई विवादास्पद विधेयकों को लगभग बिना किसी बहस के पारित कर दिया गया है और संसदीय समितियों को व्यवहारिक रूप निष्क्रिय कर दिया गया है. नया संसद भवन सदी में एक बार आने वाली महामारी के दौरान बड़े खर्च पर बनाया गया है, जिसमें भारत के लोगों या सांसदों से कोई परामर्श नहीं किया गया है, जिनके लिए यह स्पष्ट रूप में बनाया जा रहा है.
जब लोकतंत्र की आत्मा को संसद से निष्काषित कर दिया गया है, तो हमें नयी इमारत में कोई मूल्य नहीं दिखता. हम नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने के अपने सामूहिक निर्णय की घोषणा करते हैं. हम इस निरंकुश प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के खिलाफ शब्दों और भावनाओं में लड़ना जारी रखेंगे, और अपना सन्देश सीधे भारत के लोगों तक ले जायेंगे!’
विपक्ष की आपत्ति और किन बातों को लेकर है?
विपक्ष की आपत्ति दो और बातों को लेकर है. एक यह कि स्वाधीनता संग्राम से जुड़े गाँधी सहित अन्य महत्वपूर्ण लोगों से जुड़ी तिथियों की उपेक्षा कर माफीवीर और नफरत की राजनीति को बढ़ावा देने वाले सावरकर की जन्मतिथि पर ही नए संसद भवन का उद्घाटन क्यों ? दूसरा, ‘भारत की नयी संसद में स्पीकर की कुर्सी के पास राजदंड सिंगोल को स्थापित करना राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तम्भ का अपमान है. राजदंड राजशाही के वक्त दी जाती थी, लेकिन अब कोई राजा मां के पेट से नहीं पैदा होता. संविधान ने नागरिकों को वोट का अधिकार दिया है, जिससे हमारा शासक चुनकर आता है. फिर मोदी सरकार राजशाही का प्रतीक क्यों थोप रह है?
विपक्षी बुद्धिजीवियों का यह भी तर्क है कि जब ब्रिटेन, अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी इत्यादि तमाम देश अपनी पुरानी संसद से काम चला रहे हैं तो भारत जैसा पिछड़ा देश, जो आर्थिक रूप से मोदी राज में एकदम रसातल में चला गया है बारह सौ करोड़ से अधिक खर्च करके नया संसद भवन बनाने की विलासिता कैसे एन्जॉय कर सकता है!
बहरहाल उपरोक्त कारण से नए संसद को लेकर मोदी सरकार को निशाने पर लेने वाले 19 विपक्षी और बुद्धिजीवी इसे संघ- भाजपा के गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति अभियान से जोड़कर नहीं देख पर रहे हैं, अगर देखने की कोशिश करते तो पाते कि संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने इसकी आड़ में गुलामी के एक बड़े प्रतीक की मुक्ति का काम अंजाम दे दिया है और भविष्य में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इसका इस्तेमाल करेगी.
भाजपा ने जो अभूतपूर्व राजनीतिक सफलता अर्जित की है, उसकी पृष्ठभूमि में आम लोगों की धारणा है कि धर्मोन्माद के जरिये ही उसने सफलता का इतिहास रचा है, जो खूब गलत भी नहीं है. पर, यदि और गहराई में जाय तो यह साफ नजर आएगा कि धर्मोन्माद फ़ैलाने के लिए भाजपा के पितृ संगठन ने सारी पटकथा गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के नाम पर रची और इसका अभियान चलाने के लिए ‘रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ और ‘धर्म स्थान मुक्ति यज्ञ समिति’ इत्यादि जैसी कई समितियां साधु- संतों के नेतृत्व में खड़ी की. संघ ने ऐसा भारतीय समाज में साधु-संतों की स्वीकार्यता को ध्यान रखकर किया. साधु-संत हिन्दू समाज में एक ऐसे विशिष्ट मनुष्य –प्राणी के रूप में विद्यमान हैं, जिनके कदमों मे लोटकर राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति, सीएम से लेकर पीएम तक खुद को धन्य महसूस करते हैं. गुलामी के प्रतीकों की मुक्ति - अभियान में उनकी भूमिका युद्ध के मोर्चे पर अग्रिम पंक्ति में तैनात फ़ौजियों जैसी रही.
साधु- संतों के रामजन्मभूमि जैसे गुलामी के विराट प्रतीक की मुक्ति के अभियान में अग्रिम मोर्चे पर तैनात होने के कारण ही देखते ही देखते यह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में स्वाधीनोत्तर भारत मे सबसे बड़े आंदोलन का रूप अख़्तियार कर कर लिया. साधु- संतों के नेतृत्व में गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक, रामजन्मभूमि की मुक्ति के नाम पर चले आंदोलन के फलस्वरूप ही भाजपा पहले राज्यों और बाद में केंद्र की सत्ता पर काबिज होते हुये आज राजनीतिक रूप से अप्रतिरोध्य बन गयी है. लेकिन गुलामी के प्रतीक के रूप में राम जन्मभूमि का जितना उपयोग करना था, भाजपा कर चुकी है. न्यायालय के फैसले से राम मंदिर निर्माण का शुरू होने के बाद अब उसका राजनीतिक उपयोग करने लायक कुछ बचा नहीं है. इसलिए संघ परिवार को गुलामी के किसी अन्य प्रतीक की जरुरत थी, जिसकी मुक्ति की लड़ाई के जरिये धर्मोन्माद फैलाकर नए सिरे से सत्ता कब्जाने का मार्ग प्रशस्त हो सके. 16 मई , 2022 ज्ञानवापी में मिला शिवलिंग वह कर दिया है, इसलिए बाबरी मस्जिद की भांति काशी में औरंगजेब द्वारा बनवाई गयी मस्जिद के ध्वस्तीकरण में सर्वशक्ति लगाकर संघ परिवार वैसा कुछ लाभ लेना चाहेगा जैसा, राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन से लिया था. ऐसे में देश को रामजन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन जैसा भयावह दौर देखने की मानसिक प्रस्तुति ले लेनी चाहिए.
भयावह दौर देखने की मानसिक प्रस्तुति लेने की इसलिए भी जरुरत है क्योंकि गुलामी के प्रतीकों का अंत नहीं है.
राम जन्मभूमि की मुक्ति के बाद वाराणसी के ज्ञानवापी की मुक्ति तो उसके लिस्ट में आई ही चुकी है. ज्ञानवापी के बाद उसके टारगेट में मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति है. इससे आगे गुलामी के प्रतीक के रूप में जौनपुर की अटाला मस्जिद, अहमदाबाद की जामा मस्जिद, बंगाल के पांडुआ की अदीना मस्जिद, खजुराहो की आलम-गिरी मस्जिद जैसी अनेकों मस्जिदें संघ के लिस्ट में हैं, जिनके विषय में भाजपा का दावा है कि वे मंदिरों को ध्वस्त कर विकसित की गयी हैं.
अगर मुसलमान शासकों ने असंख्य मंदिर और दरगाह खड़ा किये तो ईसाई शासकों के सौजन्य से दिल्ली में संसद भवन तो प्रदेशों में विधानसभा भवनों सहित असंख्य भवनों , सड़कों, रेल लाइनों, देवालयों, शिक्षालयों, चिकित्सालयों और कल -कारखानों के रूप में भारत के चप्पे-चप्पे पर गुलामी के असंख्य प्रतीक खड़े हुए. ऐसे में भाजपा गुलामी के एक प्रतीक को मुक्त कराएगी तो दूसरे के मुक्ति अभियान में जुट जायेगी. अंग्रेजों द्वारा खड़े किये गए गुलामी के प्रतीकों में सबसे बड़ा प्रतीक भारत का वह संसद भवन है, जिसके विकल्प में नए संसद भवन का उद्घाटन होने जा रहा है!
ब्रिटिश वास्तुकार एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर द्वारा पुराने संसद भवन का डिजाइन किया था, जो 1921- 1927 तक 83 लाख के खर्चे में छः सालों में बनकर तैयार हुआ एवं जिसका उद्घाटन 18 जनवरी, 1927 को हुआ था. उस समय देश में सर्वोच्च वायसराय हुआ करते थे और उन्हीं से इस सांसद भवन का उद्घाटन भी करवाया गया. 1926 से 1931 तक लॉर्ड इरविन भारत के वायसराय थे. इस कारण भारत में संसद भवन के उद्घाटन का सौभाग्य उन्हें ही हाथ लगा.
संसद भवन 566 मीटर व्यास में बना था, लेकिन बाद में ज्यादा जगह की जरूरत पड़ी तो वर्ष 1956 में संसद भवन में दो और मंजिलें जोड़ी गईं. उस समय इस भवन को संसद भवन नहीं बल्कि 'हाउस ऑफ पार्ल्यामेंट' कहा जाता था. इस हाउस ऑफ पार्ल्यामेंट में ब्रिटिश सरकार की विधान परिषद काम करती थी और आजादी के बाद से यहां हमारे देश के सांसद बैठने लगे और इसे संसद कहा जाने लगा. गुलामी के इस बड़े प्रतीक की जगह नया संसद भवन खड़ा करने की योजना कैसे बनी इसे जानने के लिए थोड़ा अतीत में विचरण करना पड़ेगा.
9 नवम्वर, 1989 को विश्व हिन्दू परिषद् ने हजारों भक्तों के साथ अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास किया, किन्तु मामला कोर्ट में चला गया. इसी जगह मंदिर बनाने के लिए मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के कुछ सप्ताह बाद एलके अडवाणी ने 25 सितम्बर, 1990 से रथ यात्रा शुरू की, जिसके फलस्वरूप देश की अपार जन और धन की हानि हुई. बहरहाल मामला प्राय 30 साल तक कोर्ट में अटके रहने के बाद, 9 नवम्बर, 1990 को इस ऐतिहासिक विवाद का पटाक्षेप करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि को भगवन राम का जन्मस्थान मानते हुए निर्णय राम मंदिर के पक्ष में सुनाया, जिसका भूमि पूजन प्रधानमंत्री मोदी ने 5 अगस्त , 2020 को किया. भूमि पूजन के लिए 5 अगस्त की तिथि चुनने के पीछे भी एक इतिहास था. 2019 में 5 अगस्त को ही एक नाटकीय घटनाक्रम के मध्य प्रधानमंत्री मोदी ने अनुच्छेद 370 का खात्मा कर जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त कर अपना एक बड़ा चुनावी एजेंडा पूरा करने के साथ ही हिन्दू नायक के रूप में अपनी छवि को नयी ऊंचाई दे दिया था. कोरोना काल के जोखिम भरे दौर में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा राममंदिर निर्माण का भूमि पूजन करवाने के पीछे उनका मकसद खुद को हिन्दू- धर्म- संस्कृति के सबसे बड़े उद्धारक की छवि प्रदान करना था. इस दिशा में 13 दिसंबर, 2021 को प्रधानमंत्री द्वारा काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का लोकार्पण एक बहुत ही प्रभावी कदम रहा. इसके जरिये मोदी खुद को संभवतः शंकराचार्य से बड़े हिन्दू धर्म के उद्धारक ही छवि प्रदान करने के साथ हेट पॉलिटिक्स को एक नयी उंचाई देने का प्रयास किये थे. उस अवसर पर उन्होंने यह कहकर एक बड़ा सन्देश दे दिया था कि जब-जब औरंगजेब का उभार होता है, संग-संग शिवाजी का भी उदय होता है. इसके जरिये जहाँ उन्होंने औरंगजेब को हिन्दू धर्म संस्कृति का विनाशक चिन्हित किया वहीँ, शिवाजी के उदय की याद दिलाकर खुद को सबसे बड़ा उद्धारक होने का संकेत कर दिया था.
बहरहाल पांच अगस्त, 2019 को धारा 370 ख़त्म करने के दिन लोकसभा तथा राज्यसभा ने सरकार से संसद के नए भवन के निर्माण के लिए आग्रह किया था. इसके बाद 5 अगस्त को बहुप्रतीक्षित राम मंदिर के निर्माण का भूमि पूजन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा हुआ. उस अवसर पर प्रधानमंत्री ने राम मंदिर आन्दोलन की तुलना स्वतन्त्रता आंदोलन जैसे संघर्ष व समर्पण से करते हुये कहा था कि जिस तरह स्वतन्त्रता की भावना का प्रतीक 15 अगस्त का दिन है, उसी तरह कई पीढ़ियों के अखंड व एकनिष्ठ प्रयासों का का प्रतीक 5 अगस्त का दिन है.’
राम मंदिर भूमि पूजन के जरिये मुसलमानों द्वारा खड़े किये गए गुलामी के प्रतीक का विकल्प देने के बाद उनका ध्यान अंग्रेजों द्वारा संसद भवन के रूप में खड़े किये गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक की ओर गया और उन्होंने आजादी के प्रतीक का प्रतीक खड़ा करने के लिए विपक्ष से सलाह लिए बिना 10 दिसंबर, 2020 को नए भवन का शिलान्यास कर दिया. चूँकि उन्होंने गुलामी के प्रतीकों का विकल्प खड़ा करने के दौरान तमाम नियम कायदों और विपक्ष की अनदेखी करते हुए खाद की छवि सुपरमैन की बनायी है, इसलिए उस छवि को और चटखदार बनाने के लिए वह विपक्ष और बुद्धिजीवियों की अनदेखी करते हुए अपने हिसाब से 28 मई को नए संसद का उद्घाटन करने जा रहे हैं. अब वह 2024 में राम मंदिर का भूमि पूजन, 13 दिसंबर, 2021 को किये गए काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का लोकार्पण के साथ नए संसद जैसे आजादी के प्रतीक का उपयोग करेंगे.
ऐसे में विपक्ष को यह मानकर आगे की रणनीति अख्तियार करने की कोशिश करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दलगत हित में गुलामी के बड़े प्रतीक का विकल्प खड़ा करने में 1200 करोड़ फूंक डाले हैं. संसदीय गतिविधियों के परिचालन के लिए पुराना संसद भवन पर्याप्त था, पर महज राजनीतिक फायदे के लिए नया संसद भवन खड़ा कर दिया है!
एच.एल. दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)
See the new parliament building as a symbol of the emancipation of slavery?