Is it the ramparts of the Red Fort or the election platform?
हर साल 26 जनवरी को दिल्ली के जनपथ पर होने वाली गणतंत्र दिवस की भव्य परेड और 15 अगस्त को ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से दिया जाने वाला प्रधानमंत्री का भाषण (Prime Minister's speech to be delivered from the ramparts of the historic Red Fort on August 15) हमेशा से ही देशवासियों के लिए उत्सुकता और उत्साह का विषय होते हैं।
गणतंत्र दिवस की परेड (republic day parade) जहां हमारे सुरक्षा बलों और सहायक रक्षा पंक्तियों की शक्ति व समर्पण का संदेश देती है, तो वहीं विभिन्न विभागों की झांकियां हमारे विकास की परिचायक होती हैं। राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों की झांकियां हमारी संघीय संरचना और सांस्कृतिक विविधता का प्रतिबिम्ब होती हैं। ऐसे ही बतौर कार्यपालिका प्रमुख प्रधानमंत्री द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर दिया जाने वाला भाषण देश के करोड़ों लोगों के साल भर के पुरुषार्थ, उनकी उपलब्धियों, अड़चनों, भावी योजनाओं और महात्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होती है। 26 जनवरी-15 अगस्त पूरक हैं।
गणतंत्र दिवस संविधान का पाठ है तो आजादी का पर्व उसे अमल में लाने का सरकारी रिपोर्ट कार्ड।
लाल किले से पीएम का भाषण जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता
स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में 75वें साल में प्रवेश करने के ऐतिहासिक मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया वह इन मानदण्डों एवं जनता की अपेक्षाओं पर इसलिए खरा नहीं उतरता क्योंकि वह देश के अगुवा का उद्बोधन कम और किसी चुनावी नेता का दिया भाषण अधिक नज़र आता है।
किसी भी पीएम का लाल किले की प्राचीर से दिया जाने वाला भाषण साल भर के लेखे-जोखे का ही एक तरह से प्रतिफल होता है। अगर पिछले इसी दिन से आज तक का वर्ष देश के लिए उपलब्धियों से भरा होता है तो भाषण में भी उसका जोश रहता है; लेकिन किन्हीं कारणों से या कुछ मौकों पर अगर वह नाकाम रहे तो वह मायूसी उनके भाषण में स्वीकारोक्ति के रूप में होनी चाहिए। यह तो मोदी की वक्तृत्व कला का ही कमाल है कि वे देश की तकलीफों एवं समस्याओं का जिक्र तक नहीं करते और लाल किले की प्राचीर को किसी चुनावी मंच के रूप में इस्तेमाल कर लेते हैं। नाकामियों को ढंक देने और असहज मसलों का उल्लेख तक न करने में अपनी महारत का प्रदर्शन वे बखूबी करते हैं। तथ्यों को कुशलतापूर्वक मोड़ने का जो प्रचलन चुनावी सभाओं तक सीमित होता है, प्रधानमंत्री उसे स्वतंत्रता दिवस समारोह के पवित्र मंच तक ले आते हैं।
पीएम के रूप में अपने पहले सम्बोधन (2014) में उन्होंने देश की कुछ बुनियादी समस्याओं पर जो बातें कही थीं उसने सभी को प्रभावित किया था। लोगों ने सोचा था कि ये कुछ अलग ढंग का सोचते हैं। स्वच्छता, शौचालय, गंगा की सफाई, पड़ोसी मुल्कों से बेहतर संबंध जैसे कई नये मुद्दे उन्होंने जनता के सामने रखकर आभास दिया था कि वे मौलिक सोच वाले हैं और कुछ नया करना चाहेंगे। 2015 व 16 के इसी दिन के उनके भाषणों ने भी लोगों पर असर डाला था क्योंकि वे उस दिशा में बढ़ते दिखे थे। 8 नवम्बर, 2016 को उनके द्वारा लागू नोटबंदी से मोदी के तिलिस्म की टूट प्रारम्भ हुई थी। एक-एक कर कई असफल योजनाओं के बाद होने वाले उनके लाल किले के भाषणों में पिछले 3-4 सालों में सिवा पुनरावृत्तियों, आत्ममुग्धता, आत्मस्तुतियों और असफलताओं को छिपाने के अलावा कुछ नहीं होता। इतना बड़ा सैन्य सामग्रियों का जखीरा एकत्र करने के बाद भी वे चीन, पाकिस्तान, आतंकवाद जैसे विषयों पर अपने व देश भर का सामूहिक समय और ऊर्जा जाया करते हैं।
उनके भाषणों में किसी राष्ट्र प्रमुख की झलक कम और चुनाव लड़ या लड़ा रहे नेता की झलक अधिक दिखाई देती है। देश की उपलब्धियों को अपने नाम करने की उनकी इच्छा साफ जाहिर होती है।
लाल किले से पीएम के भाषण में घिसे-पिटे विषय थे
इस बार के उद्बोधन को ही देखें तो मोदी के पास वे ही घिसे-पिटे विषय थे। सैन्य बलों के मजबूत होने की बातें कही गईं। फिर बताया गया कि भारत को उसके 21वीं सदी के सपनों को पूरा करने से कोई ताकत नहीं रोक सकती। विस्तारवाद एवं आतंकवाद के लिए पड़ोसियों को जिम्मेदार ठहराने की वही कवायद उन्होंने की जो वे राष्ट्रप्रमुख के रूप में पिछले 7 साल से, बतौर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यकर्ता पिछले कई दशकों से और भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक के रूप में करीब एक दशक से करते आये हैं।
राष्ट्रपति का भाषण अगर अपनी सरकार की उपलब्धियों को बतलाने का होता है तो वहीं प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर लोगों से अपनी योजनाएं साझा करते हुए पिछले वर्ष के घटनाक्रमों की जानकारी ईमानदारी से लोगों के सामने रखते हैं ताकि लोगों को सही जानकारी मिले।
प्रधानमंत्री के भाषण से क्या उम्मीदें थीं
उम्मीद थी कि वे इस साल कोरोना की त्रासदी से संबंधित आंकड़ों का सच बतलाते, वैक्सीन संबंधी भ्रमों को दूर करते, गरीबी रेखा के नीचे आए लोगों के दुर्दिन समाप्त करने के लिए किए जा रहे प्रयासों की वास्तविक स्थिति एवं कोरोना से लड़ने के लिए बने पीएम-केयर फंड का हिसाब देते जो लोगों के पास अभी तक ठीक से नहीं पहुंचा है। लोगों का संशय-भय दूर करने का भी यही अवसर होता है क्योंकि (प्रतीकात्मक रूप और सीमित संख्या में ही सही) सरकार के प्रमुख एवं नागरिक आमने-सामने होते हैं।
दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों से ये अवसर अपनी कमियां छिपाने और बड़ी-बड़ी बातें करने के सालाना जलसे बन गये हैं।
मोदी काल में इस मंच की जो अवनति हुई है, वह अभूतपूर्व है। सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों से इस पर बनने वाले मीम्स, चुटकुले, कार्टून, व्यंग्यात्मक टिप्पणियां इसी बात का द्योतक हैं कि प्रधानमंत्री का भाषण अब मजाक होकर रह गया है। हालांकि दो स्वतंत्रता दिवस समारोहों के बीच मोदी अपने भाषणों एवं बयानों से लोगों को इस परिस्थिति के निर्माण में स्वयं सहयोग देते आ रहे हैं- तथ्यों की तोड़-मरोड़, गलतबयानी, दोषपूर्ण जानकारी देकर। सम्भवत: इसीलिए जब टोक्यो ओलिम्पिक में नीरज चोपड़ा को भाला फेंक में स्वर्ण पदक मिला, तो तत्काल ही लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि अगले पांच दिनों में उनका यह रिकार्ड मोदी तोड़ देंगे। यह किसी भी राष्ट्रप्रमुख के लिए उचित नहीं होगा कि उनके भाषणों को लेकर ऐसी राय बने।
मोदी इस सर्वोच्च मंच की गरिमा को नष्ट कर रहे हैं
मजेदार संयोग तो यह रहा कि उनका भाषण भी करीब 88 मिनट चला जो नीरज के रिकार्ड (87.58 मीटर) से अधिक की संख्या है (हालांकि दोनों ही माप की पृथक इकाइयां हैं)। मोदी इस सर्वोच्च मंच की गरिमा को किस तरह से खत्म कर रहे हैं, उसका एक उदाहरण यह भी है कि उन्होंने अपने इस साल के भाषण में 100 लाख करोड़ रुपयों के पैकेज की बात कही। मजेदार बात तो यह है इतनी राशि का उल्लेख वे कई बार कर चुके हैं। लोग इसे दोहराव बतला रहे हैं।
प्रधानमंत्री को बताना चाहिए था कि पहले के पैकेज का क्या और कहां इस्तेमाल हुआ है, नये पैकेज का क्या उपयोग होगा और इतनी राशि खर्च करने के बाद भी अगर कोरोना त्रासदी की विभीषिका कम नहीं हुई अथवा लोगों का जीवन स्तर नहीं सुधरा तो इसके क्या कारण हैं।
पाकिस्तान, विभाजन विभीषिका स्मरण दिवस, पड़ोसी मुल्कों में आतंकवाद जैसे भावनात्मक विषयों का उल्लेख तो उन्होंने किया परन्तु पेगासस जासूसी कांड, अफगानिस्तान संकट जैसे मामलों पर मौन रहे। छोटे किसानों के लिए योजना लाने का उद्देश्य किसानों का भला कम तो देश में चल रहे किसान आंदोलन को तोड़ने का प्रयास इस लिहाज से अधिक है क्योंकि यह छोटे व बड़े किसानों में भेद करेगी। मोदी सरकार एवं उनकी पार्टी मानती रही है कि दिल्ली में जारी आंदोलन में बड़े किसान ही हैं। चुनावी मोड से निकालकर इस मंच की पवित्रता बनाये रखनी ज़रूरी है।
- डॉ. दीपक पाचपोर
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)
यह लेख मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित हुआ है, उक्त लेख का संपादित रूप साभार