
Land and air relationship
40 साल के अंतराल के बाद तराई के किसी गांव में जाऊं तो नए लोग नहीं पहचानते। लेकिन नाम से वे सभी जानते हैं। हमारे परिवार के साथ रहे हैं ये लोग। अब भी हैं।
सब्जी बाज़ार गया। तो देशी लौकी लिए गेरुआ वस्त्र पहने एक बुजुर्ग से पूछा कि लौकी ठीक निकलेगी?
वे बोले, ठीक न निकले, में हूँ न? उन्होंने घर का पता बताया। फिर पूछा, बसंतीपुर है न घर? पुलिन बाबू के बेटे हो? पलाश?
मैंने पूछा, 40 साल नहीं रहा इलाके में। कैसे पहचान लिया?”
वे बोले, हम आप लोगों को भूले नहीं हैं।न भूलेंगे। चेहरा दिल में छपा है।
अमूमन रोज़ यह वाकया फिर–फिर दुहरा जाता है।
ठेले वाला, टुकटुकवाला, ऑटो ड्राइवर, सब्जीवाला, दुकानदार सारे के सारे लोग पहचान लेते हैं। जो नहीं पहचानते, उनको वे नाम बताते हैं तो उमड़ पड़ता है उनका प्यार।
गांवों में हर उम्र की महिलाएं उसी जब्जे के साथ पेश। आती हैं, जैसे 40 साल पहले आती रही हैं।
सविता जी विवाह के बाद मेरे साथ दुनिया घूमती रही हैं। दिनेशपुर कभी नहीं रही। वे भी हैरत में पड़ जाती हैं कि अनजान लोग उन्हें कैसे पहचान लेते हैं।
जैसे कि समय ठहरा हुआ है। सिर्फ हम लोग बूढ़े हो गए हैं। हमारे अपनों को, तराई की मेहनतकश जनता को, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों के लिए अभी सत्तर का दशक है और मैं भी सत्तर के दशक का हूँ।
कोलकाता में हमने 27 साल बिताए। बंगाल के कोने-कोने में गए हैं। वे तमाम लोग जानते थे। सब्जी बाजार गये तो घेर लेते थे। घर से निकले तो लोगों से बातचीत में घण्टों बीत जाता था।
सविता जी कोलकाता से लेकर आस पास के जिलों में सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में हर रोज़ बिजी थी।
तीन साल बीतते न बीतते हम कोलकाता और बंगाल के लिए अजनबी हो गए।
चेहरे पर जब तक माटी का लेप न हो, तब तक रिश्ते इसी तरह खत्म होते हैं।
जमीन और हवा की रिश्तेदारी असल है।
हम अपने लोगों के प्यार से अभिभूत हैं।
दुनिया बदलने के लिए अपनी जड़ों को खोना बहुत गलत है, यह अब सीख पाया हूँ। शायद बहुत देर हो चुकी है।
पलाश विश्वास
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