हिटलर के देश में मार्क्सवादियों की जीत और कन्हैया का कांग्रेसी हो जाना

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hastakshep
01 Oct 2021

Marxists victory in Hitler's country and Kanhaiya Kumar becoming Congressman. बिल्कुल PM Modi की तरह अहंकार में थीं angela merkel. कन्हैया कुमार को भाजपा ने 'पोलिटिकल पंचिंग बैग' के रूप में तैयार किया,

हैरान मत होइए कि हिटलर के देश में कम्युनिस्ट सरकार बना सकते हैं। गर नहीं बना पाये, तो संसद में ताक़तवर प्रतिपक्ष के रूप में प्रस्तुत हो सकते हैं। वहां सरकार का गठन देखने के वास्ते थोड़ा इंतज़ार करना पड़ेगा। कम से कम क्रिसमस तक। तब तक आंगेला मैर्केल कार्यवाहक चांसलर की ज़िम्मेदारी संभालेंगी।

मार्क्सवादी विचारधारा की वाहक है 'एसपीडी',

735 सदस्यीय जर्मन संसद 'बुंदेस्टैग' (German Parliament 'Bundestag') के लिए तीन दिन पहले जो चुनाव परिणाम आये, उसमें सर्वाधिक 206 सांसद एसपीडी (सोज़िएलडेमोक्रेटिशे पार्तेई डॉएचलांड- sozialdemokratische partei deutschlands (spd)) के चुने गये हैं। दूसरे नंबर पर सत्तारूढ़ गठबंधन सीडीयू-सीएसयू को 196, ग्रीन को 118, एफडीपी को 92, एएफडी को 83, डी लिंके को 39, अन्य की ओर से एक सांसद को जर्मन जनता ने चुना है।

मार्क्सवादी विचारधारा की वाहक 'एसपीडी', को 'सोशल डेमाक्रेटिक पार्टी ऑफ जर्मनी' भी कह सकते हैं। 23 मई 1863 को एसपीडी की स्थापना हुई थी। इसे जर्मन संसद की सबसे पुरानी पार्टी के रूप में लोग देखते हैं।

जर्मनी के 16 में से 11 प्रांतों में एसपीडी गठबंधन सरकार में है। सात प्रांतों में एसपीडी के मुख्यमंत्री हैं। बर्लिन में एसपीडी-ग्रीन और लेफ्ट की गठबंधन सरकार है। ब्रांडेनबुर्ग में एसपीडी- सीडीयू और ग्रीन, ब्रेमन में एसपीडी-ग्रीन और लेफ्ट, हैम्बर्ग में एसपीडी और ग्रीन गठबंधन, लोअर सेक्सनी में एसपीडी और सीडीयू, मैक्लेनबुर्ग फोरपोमर्न में एसपीडी-सीडीयू, राइनलांड फाल्ज़ में एसपीडी-एफडीपी और ग्रीन गठबंधन, सारलैंड में सीडीयू-एसपीडी। सैक्सनी में एसपीडी, सीडीयू और ग्रीन। सेक्सनी अलहाल्ट में भी एसपीडी-सीडीयू और ग्रीन। थ्यूरिंज़िन में एसपीडी, ग्रीन और लेफ्ट की गठबंधन सरकारें हैं।

इतना बताने का आशय गठबंधन को समझना है कि इस देश में दक्षिणपंथी व वामपंथी गठजोड़ कर सरकारें चला सकते हैं। ऐसा भारत में हो जाए, तो सातवां आश्चर्य होगा।

जर्मन संसद बुंदेस्टैग की स्थापना कब हुई

जर्मन राज्यों जैसे समीकरण संसद में भी देखा गया है। 1949 में बुंडेस्टाग (जर्मन संसद) की स्थापना हुई थी। 1965 में एसपीडी- सीडीयू-सीएसयू ने पहली बार गठबंधन बनाई थी। बिल्कुल विपरीत विचारधारा के मार्क्सवादी, सेंटर राइट के सांसदों से बगलगीर थे। उसके बाद 1969 से 1982 तक एसपीडी और फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी (free democratic party - एफडीपी) सत्ता में हमसफ़र रहे। 1998 से 2002 तक एसपीडी-ग्रीन की गठबंधन सरकार रही। फिर 2005 में एसपीडी-सीडीयू-सीएसयू गठबंधन की सरकार बनी। 2013 और 2017 ये दो ऐसे कालखंड थे, जब इसी गठबंधन की मदद से आंगेला मैर्केल की सत्ता चलती रही।

जर्मनी की पहली महिला चांसलर Angela Merkel की ताज़ा ख़बर, ब्रेकिंग न्यूज़ In Hindi

22 नवंबर, 2005 को आंगेला मैर्केल जर्मनी की पहली महिला चांसलर बनीं। प्रिंस ओटो फोन विस्मार्क 22 साल 262 दिन जर्मनी के चांसलर रहे, हेल्मुट कोल 16 साल 26 दिन, और आंगेला मैर्केल ने 15 साल 309 दिन चांसलर रहकर इतिहास रचा है। फिर ऐसा क्या हुआ कि मतदाता मार्केल के शासन को जारी रखने के बजाय मार्क्सवादियों को बेहतर मानने लगे? कोई भी इस सवाल को पूछेगा। केवल एंटी इंकम्बेंसी कारण नहीं। कोविड महामारी और बाढ़ की आफत के दौरान लचर व्यवस्था, प्रबंधन की विफलता सत्तारूढ़ सेंटर राइट गठबंधन सीडीयू-सीएसयू को ले डूबी। आंगेला मैर्केल का ख़ुद का अहंकार।

बिल्कुल पीएम मोदी की तरह अहंकार में थीं आंगेला मैर्केल

डेढ़ दशक के अखंड राज में आंगेला मैर्केल पार्टी से ऊपर उठ चुकी थीं। बिल्कुल पीएम मोदी की तरह। दरबारी, मैर्केल को विश्व नेता निरूपित करते, घनघोर मैर्केलवादियों का दबदबा जर्मन सत्ता प्रतिष्ठान में बना रहता। दलाल मीडिया मैर्केल को दबे-कुचलों का मसीहा चित्रित करता। कई अफसाने लिखे गये, जिसमें बाहर वालों को बताया जाता कि मामूली से मामूली आदमी मैडम मैर्केल से बिना रोक-टोक मिल सकता था। ऐसी कपोल कथाओं का जम़ीनी सच से कोई वास्ता नहीं होता।

17 साल पहले 2004 में वायमार की घटना मुझे अच्छे से याद है, जब आंगेला मैर्केल नेता प्रतिपक्ष हुआ करती थीं। वह वायमार के वेस्टर्न प्रीमियर होटल में रूकी थीं। पब्लिक ब्राडकास्टर डायचेवेले के दक्षिण एशिया प्रमुख डॉ. फीडमन्न श्लेंडर को जानकारी मिली कि आंगेला मैर्केल उसी होटल के एक फ्लोर में रूकी हैं, जहां हमने कमरा ले रखा था। तय हुआ कि हम चार संपादक उनसे मिलते हैं। आंगेला मैर्केल के पीए ने मना किया कि बिना पूर्व अप्वाइंटमेंट के, वो किसी से मिलती-जुलती नहीं। उस घटना के एक साल बाद आंगेला मैर्केल सत्ता में आ चुकी थीं। सोचिये कि सत्ता में आने के उपरांत किसी आम नागरिक का मैर्केल से मिलना, कितना कठिन होता होगा। आंगेला मैर्केल को देखने और उनसे सवाल पूछने का संयोग एक साझा प्रेस सम्मेलन में 23 अप्रैल 2006 को मुझे हनोवर में मिला, जब डॉ. मनमोहन सिंह जर्मनी पधारे थे।

जर्मनी की 'हंटरवाली'

जो हो, जर्मन मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उन्हें 'हंटरवाली' के रूप में प्रस्तुत करने में पीछे नहीं हटा। चुनाव वाले समय 'हंटरवाली' के अर्द्धनग्न कार्टून मेन स्ट्रीम मीडिया के मैगज़ीन में छपा देखकर सोशल मीडिया इतना उत्साहित हुआ कि मैर्केल की नग्न तस्वीरों को ट्रोल कर अभद्रता की सारी सीमाएं पार कर ली थीं। जनता में जुगुप्सा की शायद एक बड़ी वजह मैर्केल की दरबारी संस्कृति थी, जिसे आम जर्मन मानस पचा नहीं पाया। वो केवल फोटोऑप का हिस्सा हुआ करता था, जब मैर्केल किसी मॉल से सामान ख़रीदती हुई दिखाई देतीं। चुनाव में ऐसी तस्वीरें 'काउंटर प्रोडक्टिव' हो जाती हैं, काश इसे पीएम मोदी के शैदाई भी समझें।

आंगेला मैर्केल हार क्यों गईं? Why did Angela Merkel steps down?

कोविड कुप्रबंधन ट्रंप के बाद, आंगेला मैर्केल की नीतियों को धूल चटा गया, इसे मंथन करने की आवश्यकता है। मैर्केल ने आर्मिन लाशेट को केवल इसलिए आगे बढ़ाया, क्योंकि वो मैर्केलवादी माने जाते थे। नार्थ राइन वेस्टफालिया के मुख्यमंत्री व पूर्व पत्रकार होने के बावज़ूद जब सर्वे हुआ तो आर्मिन लाशेट, मार्कुस जोएडर से कम लोकप्रिय साबित हुए। 2015 में यूरोप शरणार्थी संकट से गुज़र रहा था, तब आंगेला मैर्केल ने दस लाख उजड़े लोगों को जर्मनी में बसाने का संकल्प किया था। उन दिनों आर्मिन लाशेट ने अहद किया कि वो मैर्केल की शरणार्थी समर्थक विरासत को आगे बढ़ाएंगे। अफसोस, ये सारी तदबीरें उल्टी पड़ गईं।

Why did the German public like the centre-left?

हिटलर के देश में मार्क्सवाद के पौधे फिर से प्रस्फुटित हो रहे हैं, यह 'आपदा में अवसर' के नारे देने वालों को समझने की आवश्यकता है। सेंटर लेफ्ट को जर्मन जनता ने क्यों पसंद किया? जर्मन जनता सवाल करने लगी थी कि बेरोज़गारी दर 5.6 प्रतिशत क्यों है? 4.1 प्रतिशत मुद्रास्फीति, महंगाई, अनाप-शनाप टैक्स, ऊर्जा की क़ीमतों में 14.3 प्रतिशत की वृद्धि भी पब्लिक को परेशान करने लगी। खाद्य महंगाई दर जून 2021 में 1.2 प्रतिशत से उछलकर 4.9 पर पहुंचा तो मतदाताओं को लग चुका था कि मैर्केल की आर्थिक नीतियों को ढोना अब उनके बस में नहीं।

इस साल विनाशकारी बाढ़ में 220 जर्मन नागरिक मारे गये, हज़ारों उजड़ गये। वहां एक-एक जान की क़ीमत है, कोई दुर्घटना से मरा तो सरकार की जवाबदेही तय होती है। भारत जैसा नहीं कि कीड़े-मकोड़े की तरह हज़ारों की संख्या में लोग मर जाएं, और सत्तारूढ़ों को कोई फर्क न पड़े। पश्चिम जर्मनी में भयावह बाढ़ मैर्केल का वोट बैंक भी बहा ले गया, यह चुनाव परिणाम से स्पष्ट हो चुका है।

क्या जर्मनी के चुनाव परिणाम से भारत में वामपंथी खुश हो सकते हैं?

भारत में वामपंथी इस बात पर लहालोट हो सकते हैं कि देखो मार्क्स की भूमि पर हमारी विचारधारा आज भी मज़बूती से आगे बढ़ रही है। जर्मनी में उसकी एक बड़ी वजह सेंटर-लेफ्ट अवधारणा को जमीन पर उतारने वाले, जनचेतना जगाने वाले नेता-कार्यकर्ता भी रहे हैं। 16 में से 11 प्रांतों में मार्क्सवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली 'एसपीडी' गठबंधन सरकार में है, ऐसा कुछ भारत में क्यों नहीं हो पाया? भारतीय लेफ्ट की कमज़ोरियों की चर्चा (Discuss the weaknesses of the Indian Left) कीजिए, पार्टियों में विराजमान ओल्ड गार्ड का यही तर्क होगा कि वाम खेमे में शार्टकट से सत्ता पाने वाले महत्वाकांक्षी, और 'कन्हैया कुमार' जैसे थाली में छेद करने वाले लोग हैं।

यों, कन्हैया कुमार कम्युनिस्टों की प्याली में तूफान पैदा करने वाले पहले युवा नेता नहीं हैं। मुझे इस संदर्भ में देवी प्रसाद त्रिपाठी (डीपीटी) की याद आती है, जो 1975 से 1976 तक एसएफआई की ओर से जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। जेएनयू जब मैं आया, डीपीटी हम छात्रों के बीच आइकॉन थे। 1983 में ख़बर मिली कि डीपीटी तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी के सलाहकार हो गये।

डीपीटी की वह क्रांतिकारी वैचारिक छवि ऐसी भरभरा कर गिरी कि छात्रों का किसी भी आइकॉन पर से भरोसा उठ गया। मगर, डीपीटी की महत्वाकांक्षा 1999 में एनसीपी में आने के बाद पूरी हुई। 3 अप्रैल 2012 से 2 अप्रैल 2018 तक डीपीटी राज्यसभा सदस्य रहे।

पूर्व राज्य सभा सदस्य रामराज (अब उदितराज) एसएफआई राजनीति से भाजपा और अब कांग्रेस में हैं।

शकील अहमद ख़ान एसएफआई के छात्र नेता थे जो 1992-93 में जेएनयूएसयू के अध्यक्ष बने, उनका भी कायान्तरण हुआ और कांग्रेस के एमएलए बन गये। एक और एसएफआई नेता, जेएनयूएसयू के दो बार प्रेसिडेंट रहे बत्ती लाल बैरवा ने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया।

सैयद नासिर अहमद एसएफआई से 1999 में जेएनयूएसयू के अध्यक्ष थे। नासिर अहमद फिलहाल कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य है।

संदीप सिंह आइसा को प्रतिनिधित्व देते हुए 2007-2008 में जेएनयूएसयू के प्रेसिडेंट चुने गये। क्रांतिकारी भाषण देते थे, अब सुना कि प्रियंका गांधी के भाषण लेखक संदीप सिंह ही हैं। आइसा के ही मोहित के पांडे ने कांग्रेस शरणम गच्छामि का रास्ता चुना और प्रियंका के क़रीबी नेताओं में से एक हो गये।

इतने सारे लेफ्ट छात्र नेता कांग्रेस में गये, क्या इससे कांग्रेस का कायान्तरण हो गया, या कांग्रेस मज़बूत हो गई? केवल महत्वाकांक्षा की मृगमरीचिका इन्हें मूल विचारधारा से बाहर की ओर खींच ले आती है।

यदि डी. राजा, विनय विश्वम, अतुल अंजान या फिर अमरजीत कौर को ये भ्रम है कि कन्हैया कुमार को इन लोगों ने तैयार किया, तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता।

दरअसल, कन्हैया कुमार को बीजेपी ने एक ऐसे 'पोलिटिकल पंचिंग बैग' के रूप में तैयार किया, जिसे तथाकथित राष्ट्रवादी जब चाहें टुकड़े-टुकड़े गैंग बोलकर घूंसे लगा सकते हैं। इससे कन्हैया कुमार का क़द बढ़ता है। जिस दिन 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' बोलना बंद हो जाएगा, कन्हैया की ब्रांडिंग धूमिल पड़ जाएगी।

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