
रेडक्लिफ कमीशन, शरणार्थी सैलाब और नागरिकता का मसला
Radcliffe Line (रैडक्लिफ़ अवार्ड)
मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों में विभाजन के बाद तीन दिनों तक पाकिस्तान का झंडा फहराया जाता रहा तो खुलना में भारत का।
खुलना का हिन्दू बहुल जिला मुर्शिदाबाद और मालदा के बदले पाकिस्तान को दे दिया गया।
इसी तरह सिलहट का हिन्दू बहुल जिला पाकिस्तान को। चटगांव आदिवासी बौद्ध इलाका था, जिसमें जनसंख्या का 97 प्रतिशत चकमा बौद्ध आदिवासियों का था। सन 1900 से यह आदिवासी इलाका एक्सक्लूडेड एरिया (excluded area) था। बंगाल या असम में न होने के कारण असेम्बली में चटगांव का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।
चटगांव के रंगमाटी में 15 अगस्त को भारत का झंडा फहराया गया। आदिवासियों के प्रतिनिधिमंडल ने दिल्ली जाकर भारत में बने रहने की मांग की, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।
रेडक्लिफ कमीशन ने हफ्ते भर के कम समय में भारत पाकिस्तान की सीमाएं कांग्रेस और मुस्लिम लीग के जमींदार नेताओं की सौदेबाजी से तय किया।
10 अगस्त से 12 अगस्त तक सीमाएं तय कर दी गईं, जिसकी जानकारी कांग्रेस और मुस्लिम लीग के शीर्ष नेताओं को थी, लेकिन रेडक्लिफ कमीशन की रिपोर्ट 17 अगस्त को प्रकाशित हुई।
इससे सीमा के आर-पार भारी अराजकता फैल गयी। हिन्दू बहुल इलाकों में मुसलमानों के खिलाफ और मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदुओं के खिलाफ दंगे शुरू हो गए। बंगाल में कोलकाता, नदिया, मालदा, मुर्शिदाबाद, 24 परगना और हावड़ा में दंगे शुरू हो गए।
पूर्वी बंगाल में पाकिस्तान के समर्थन में कोई आंदोलन नहीं था। कोलकाता और पश्चिम बंगाल में पाकिस्तान समर्थक ज्यादा थे और उत्तर प्रदेश और बिहार में भी, जो अंततः भारत में रह गए।
इसकी भारी कीमत पूर्वी बंगाल के खुलना, जैशोर, फरीदपुर, बरीशाल, कुमिल्ला, व्हटगांव जैसे जिलों को 1947 से 1964 तक, व 1971 से लेकर अभी तक चुकानी पड़ी। झाने से शरणार्थियों का सैलाब आज भी नहीं रुक रहा।
पूर्वी बंगाल के बंगाली हिन्दू मुसलमानों में कोई तनाव नहीं था। लेकिन बिहार और पश्चिम बंगाल से विभाजन के बाद वहां पहुंचे पाकिस्तान समर्थक उर्दूभाषी मुसलमानों के वहां पहुंचने पर हिंदुओं के खिलाफ कभी न थमने वाला उत्पीड़न शुरू हो गया।
1971 में इन्हीं पाकिस्तान समर्थकों ने रज़ाकर वाहिनी बनाकर बंगाली हिंदुओं और मुसलमानों का कत्लेआम पाकिस्तानी फौजों के साथ मिलकर किया।
बांग्लादेश बनने के बाद ये पाकिस्तान समर्थक तत्व लगातार मजबूत होते गए, जिसके खिलाफ बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष ताकतें लड़ रही हैं। लेकिन अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न रुक नहीं रहा।
शरणार्थी 2021 में भी आ रहे हैं।
इस समस्या के स्थायी समाधान के बिना भारत में नागरिकता का मसला अनसुलझा ही रहेगा।
1947 के बाद आये और जन्मजात भारतीय नागरिकों की नागरिकता छीनकर इस समस्या को और उलझा दिया गया है, जो किसी नागरिकता कानून संशोधन या गैर मुसलमानों को एकतरफा नागरिकता दिए जाने से सुलझेगी नहीं। क्योंकि शरणार्थी समस्या के कारण बंगाल, असम, त्रिपुरा और पूर्वोत्तर में जनसंख्या समीकरण सिरे से बदल गए हैं और सत्ता की राजनीति जनसंख्या केंद्रित है।
पलाश विश्वास
हमें गूगल न्यूज पर फॉलो करें. ट्विटर पर फॉलो करें. वाट्सएप पर संदेश पाएं. हस्तक्षेप की आर्थिक मदद करें