अव्यवस्थित लोकतंत्र और साहित्यिक पत्रकारिता
आजादी के बाद साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य- Scenario of Literary Journalism after Independence.
आजादी के बाद का साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य तकरीबन इकसार रहा है। पहले भी पत्रिकाओं का प्रकाशन निजी पहल पर निर्भर करता था, आज भी यही दशा है। पहले भी साहित्यिक पत्रिकाएं निकलती और बंद होती थीं, यही सिलसिला आज भी जारी है। अनियतकालीन प्रकाशन इसकी नियति है।
अधिकतर साहित्यिक पत्रिकाएं निजी अर्थव्यवस्था यानी संपादक के निजी निवेश पर निर्भर हैं, ये पत्रिकाएं संपादकीय जुनून का परिणाम हैं। साहित्यिक पत्रिकाएं साहित्य का माहौल बनाती हैं। हिन्दी में पत्रिकाएं मूलतः गुट विशेष का प्रकाशन हैं, वे गुट विशेष के लेखकों को छापती हैं।
आपातकाल के बाद साहित्यिक पत्रिकाएं मेनीपुलेशन और प्रमोशन का अस्त्र बन गयीं
खासकर बुद्धिजीवी वर्ग में सन् 1970-71 के बाद सत्ता सुख का जो मोह पैदा हुआ उसने अधिकांश बड़े लेखकों को सत्ता के करीब पहुँचा दिया और इसका यह परिणाम निकला कि साहित्य और साहित्यकार की नई भूमिका का उदय हुआ। साहित्य अब परिवर्तनकामी कम और सत्ताकामी ज्यादा हो गया। आपातकाल इसका क्लासिक नग्नतम उदाहरण है। आपातकाल के बाद तो स्थितियां लगातार खराब ही हुई हैं। सत्ता के प्रतिष्ठानों के इर्दगिर्द साहित्यकारों को गोलबंद किया गया। कई व्यक्ति और संस्थान सत्ता के केन्द्र बनकर उभरे। इनके हस्तक्षेप के कारण साहित्य का स्वतंत्र विकास बाधित हुआ, साहित्यिक पत्रिकाएं मेनीपुलेशन और प्रमोशन का अस्त्र बन गयीं। चंद व्यक्ति महान बन गए, वे ही तय करने लगे कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है ! इस अर्थ में 1970-71 के बाद क्रमशः साहित्य की अवनति हुई।
साहित्यिक विवेकवाद- literary rationalism
आज हमारे बीच में साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, साहित्य भी है लेकिन संपादकीय विवेक नदारत है। विचारधारा है और उसके आधार पर धड़ेबंदी है, लेकिन साहित्यिक विवेकवाद गायब है। साहित्यिक पत्रिकाओं से संपादकीय विवेकवाद का नदारत होना बहुत बड़ी त्रासदी है।
नियोजित बहसें हैं, प्रमोशन के लिए आलोचनाएं हैं, मांग-पूर्ति के आधार पर लिखा साहित्य है,किताबें हैं। स्वयं नामवर सिंह कह चुके हैं कि '' मैं फरमाइशी लेखक हूँ'' , वे यह भी रहस्य खोल चुके हैं कि उन्होंने ''कविता के नए प्रतिमान'' किताब को भारत भूषण अग्रवाल के कहने से साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए लिखा था।
साहित्य में इनदिनों लेखन के आधार पर छोटे-बड़े लेखक का फैसला नहीं हो रहा, बल्कि रुतबा, संपदा, ओहदा और सरकारी रसूख के आधार पर फैसले हो रहे हैं। लेखक की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण मूल्य नहीं है, लेखक के सत्ता संबंध बड़ा मूल्य हो गया है,इसने साहित्यिक पत्रिकाओं में नए किस्म के नियोजित साहित्य विमर्श को प्रतिष्ठित किया है। जिसकी सत्ता में साख है, वही बड़ा लेखक है। इसका परिणाम यह निकला कि लेखकों में सत्ता से जुड़ने की अंधी दौड़ शुरु हुई है। इसका सबसे बढ़िया केन्द्र बने अकादमिक संस्थान और लेखक संघ। इससे लेखक के कर्म और विचार में गहरी दरार पैदा हुई। लेखन का यथार्थ से संबंध खत्म हो गया।
लेखन यानी शब्दों का उत्पादन इसका लक्ष्य है। आज लेखक है, साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, संपादक भी है, लेकिन साहित्य का सामाजिक असर नहीं है, लेखक की कोई सामाजिक साख नहीं है। लेखक ने अपने सत्तासुख के कारण सभी किस्म के विमर्शों को प्रशंसा और प्रमोशन में संकुचित कर दिया, 'विचार मंथन' को'साहित्यिक इवेंट' में तब्दील कर दिया।
साहित्य उत्पादक या प्रकाशक -
हिन्दी में साहित्यिक पत्रकारिता (Literary Journalism in Hindi) को अनेक लेखक प्रतिवादी पत्रकारिता मानते हैं, इस तरह की धारणा रखने वालों में सामान्य लेखक, दलित लेखक और स्त्री लेखिकाएं भी हैं।
सामान्य तौर पर देखें तो हिन्दी का साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य वैविध्यपूर्ण है और इसमें विधागत समृद्धि भी है। इसका स्वैच्छिक पहलकदमी के आधार पर प्रकाशन होता रहा है।
What is the politics of production of art | वाल्टर बेंजामिन के अनुसार पत्रकारिता के विविध आयाम के प्रश्न उत्तर
वाल्टर बेंजामिन के अनुसार प्रतिवादी या परिवर्तनकामी पत्रकारिता या साहित्य में अंतर्वस्तु महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है इसके उत्पादन की अवस्था। कई बार यह भी देखा गया है कि बेहतरीन क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को श्रेष्ठतम –व्यावसायिक कला रूपों में पिरोकर पेश किया जाता है। इससे क्रांतिकारी कला का स्वरूप प्रभावित होता है। इसलिए यह सवाल नहीं करना चाहिए कि पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है ? या साहित्य की राजनीति क्या है, यह सवाल ही गलत है।
सवाल यह होना चाहिए कला के उत्पादन की राजनीति क्या है ? ज्योंही इस सवाल पर विचार करेंगे सही रूप में प्रतिवादी संस्कृति को परिभाषित कर पाएंगे।
बेंजामिन तर्क देते हैं कि सही अर्थ में प्रतिवादी संस्कृति उत्पादन की विशेषज्ञतापूर्ण प्रक्रिया का अतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में प्रतिवादी संस्कृति कलाकार और दर्शक, निर्माता और उपभोक्ता के बीच की विभाजन रेखा को कम करती है। छोटे-बड़े या ऊँच-नीच, श्रेष्ठ और निकृष्ट के श्रम विभाजन को खत्म करती है। वह सबको सृजन के लिए प्रेरित करती है। हमें इस समूची बहस को प्रोडक्ट केन्द्रित न बनाकर प्रोडक्शनके न्द्रित बनाना चाहिए।
वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी पत्रिका संपादक साहित्य का उत्पादक नहीं बन पाया, लेकिन प्रकाशक बन गया। वह प्रोडक्ट बनाता है।
आधुनिक काल आने के साथ छापे की मशीन आई, लेखक की स्वायत्तता को सार्वजनिक तौर पर वैधता मिली, निजता और सार्वजनिकता के बीच में नए किस्म का वर्गीकरण हुआ जो पुराने वर्गीकरण से भिन्न था। पुराने जमाने में लेखक के अंदर निजी-सार्वजनिक का घल्लुघारा था। लेखक की स्वायत्तता पहली बार नजर आई वह जो उचित समझे लिख सकता है, इस अनुभूति को उसने प्रत्यक्ष वैधरूप में लागू किया। पहली बार दो तथ्य सामने आए, इन दोनों तथ्यों की रोशनी में लेखन की परीक्षा होने लगी। पहला, लेखक का राजनीतिक नजरिया और दूसरा रचना की गुणवत्ता। लेखक के सही राजनीतिक नजरिए और साहित्यिक गुणवत्ता के बीच नए संबंध का जन्म हुआ। यह भी कही गयी कि जब राजनीति सही होगी तो अन्य चीजें भी दुरुस्त होंगी।
वाल्टर बेंजामिन का मानना है सामाजिक परिस्थितियां उत्पादन की अवस्था को तय करती हैं। और जब भौतिकवादी नजरिए से देखना आरंभ करते हैं तो विचार करते हैं कि सामाजिक संबंधों का तत्कालीन समय के साथ क्या संबंध था ? साहित्य के लिए यह महत्वपूर्ण सवाल है।
वेंजामिन ने इसी प्रसंग में दो बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, पहला सवाल, साहित्य का अपने समय के उत्पादन संबंधों के साथ क्या संबंध है ? क्या वह उनको स्वीकार करता है ? क्या वह प्रतिक्रियावादी है ? अथवा उसका नजरिया परिवर्तनकामी है ? या वह क्रांतिकारी है ? इन सवालों पर विचार करने के पहले हम इस सवाल पर सोचें कि अपने समय के उत्पादन संबंधों के प्रति क्या एटीट्यूट है ? उनका नीतिगत नजरिया क्या है ? यह सवाल असल में सामयिक उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य की भूमिका के जुड़ा है. इसका प्रकारान्तर से''तकनीक'' के सरोकारों से संबंध है।
वेंजामिन के अनुसार '' साहित्यिक तकनीक'' की अवधारणा के आधार पर देखेंगे तो पाएंगे कि साहित्यिक उत्पाद (प्रोडक्ट) सीधे सामाजिक या भौतिक मूल्यांकन के लिए उपलब्ध रहता है। साथ ही साहित्यिक तकनीक की अवधारणा के आधार द्वंद्वात्मक ढंग से विवेचन को आरंभ किया जा सकता है। इसके जरिए साहित्य की रूप और अंतर्वस्तु की निरर्थक बहस से भी बचा जा सकता है। इसके अलावा प्रवृत्ति और गुणवत्ता के निर्धारकों की खोज की जा सकती है।
बेंजामिन के अनुसार कृति की राजनीतिक प्रवृत्ति में साहित्यिक गुणवत्ता और साहित्य प्रवृत्ति शामिल है। साहित्य प्रवृत्ति में साहित्यिक तकनीक की प्रगति या प्रतिगामिता भी समाविष्ट है।
साहित्य के उत्पादन पर विचार करते समय इसकी अनिवार्य अवस्था पर भी सोचें। साहित्य किस तरह की अनिवार्य परिस्थितियों में पैदा हो रहा है। इससे लेखन की ठोस परिस्थितियों का पता चलेगा, यह भी पता चलेगा कि लेखक के पास व्यवहार में कितनी स्वायत्तता है। इस समूची प्रक्रिया पर नजर रखते हुए सही राजनीति और प्रगतिशील साहित्यिक तकनीक के अन्तस्संबंध को समझने में मदद मिलेगी। मसलन्, साहित्यिक पत्रिकाएं लेखक –पाठक को सूचित कर रही हैं ,विवेचन पेश किया जा रहा है। लेखक परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर रहा है या दर्शक मात्र है ? हिन्दी पत्रिकाओं में लिखने वाले अधिकांश लेखक रुढ़िबद्ध नजरिए और रुढ़िबद्ध शैली के शिकार हैं।
सवाल यह है कि क्या रुढ़िबद्ध लेखन के जरिए सामाजिक परिवर्तन संभव है ? इस तरह के लेखन का किस पर और कितना असर होता है ? इस तरह के लेखन ने लेखक और पाठ के बीच में अलगाव पैदा किया।
जगदीश्वर चतुर्वेदी