वो एचमटी की घड़ियों के कलपुर्जों सा ही बिखरा था,
वो तब का भारत था जो टूट कर पाक, हिन्द बना।
असल में वो 'लोक'लाश थी, जिसे हम ढोते चले गए।
वो एचमटी की घड़ियों के कलपुर्जों सा ही बिखरा था,
वो तब का भारत था जो टूट कर पाक, हिन्द बना।
असल में वो 'लोक'लाश थी, जिसे हम ढोते चले गए।
वो नेहरू से बढ़ता भारत था तो हल चलाते किसान से खिंचता भारत भी था।
असल में वो 'लोक'लाश थी, जिसे हम ढोते चले गए।
बात कुछ पुरानी थी जब कागज़ों में लिखी आज़ादी की कहानी थी, वो क़लम थी जिससे अम्बेडकर ने लिखी संविधान की कहानी थी।
फिर भी उससे कोई सीख न लेने वाली वो 'लोक'लाश थी, जिसे हम ढोते चले गए।
सवाल या तंज उस संविधान पर नहीं है कमबख्तों, सवाल उससे है जो आपातकाल में भी मुँह छिपाए बैठा था।
हां वो असल में हमारी वो 'लोक'लाश ही थी, जिसे हम ढोते चले गए।
फिर दौर आया नए जमाने का, दुनिया को अपनी ताकत दिखाने का।
पर गोधरा, लोया, गौरी लंकेश, दामिनी पर भी वो हमें चकराते शांत थी,
चुप बैठी फ़िर से वो 'लोक'लाश थी, जिसे हम ढोते चले गए।
अब जब दिल्ली जली, लाशें जली फिर भी यहां शांति थी।
घूमते फिरते फिर यह वही 'लोक'लाश थी, जिसे हम ढोते चले गए।
आवाज़ उठाई किसी ने कोई दानिश था तो कोई भास्कर,
दिखाया तुम्हें कि वास्तव में वो दीए नहीं चिताए जल रही थी, वो थाली- ताली बज नहीं बल्कि चूड़ियां टूट रहीं थीं।
पर तुम शांत थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
बंट कर दो हिस्सों में अब मानो तुम्हें जैसे सिर्फ खुद से कुछ होने का इंतज़ार है,
भूल गया मैं ये लोकतंत्र नही असल में वो 'लोक'लाश ही थी, जिसे हम ढोते चले गए।
हिमांशु जोशी, उत्तराखंड