अफगानिस्तान, तालिबान और आरएसएस !
Afghanistan, Taliban and RSS!
अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा (Taliban capture in Afghanistan) और शरिया कानून लागू होने पर भारत के जिन हिंदूवादियों को कट्टरपंथी इस्लाम के पैर पसारने की चिंता हो रही है उन्हें ये जरूर जानना चाहिए कि साल 1978 की अप्रैल क्रांति की सहायता के लिए अफगानिस्तान में सोवियत फौजों की मौजूदगी से सिर्फ अमेरिका ही परेशान नहीं था, भारत का अमेरिकापरस्त दक्षिणपंथ भी बेचैन था।
आरएसएस सोवियत फौजों की वापसी के लिए मुहिम चला रहा था जिसे अमेरिकी शह थी और अमेरिका अफगानिस्तान में मुस्लिम कट्टरपंथियों की मदद कर रहा था। मथुरा में तब अटल बिहारी बाजपेयी की एक सभा भगतसिंह पार्क में हुई थी।
बाजपेई ने अफगनिस्तान से रूसी फौजों की वापसी की मांग की। मेरे पिता कामरेड राधेश्याम चौबे ( मास्टर साब ) ने उन्हें भाषण के बीच टोककर सवाल किया - बाजपेई जी, भारत विरोधी पाकिस्तान की दूसरी सीमा पर भारत के मित्र रूस की फौजों की मौजूदगी देश के हित में है या भारत विरोधी अमेरिका और इस्लामिक कट्टरपंथियों की मौजूदगी ? ये आपका कैसा राष्ट्रवाद है ?
इस सवाल से बेचैन बाजपेई के समर्थक मास्साब पर उद्यत हुए तो उस वक्त के युवा कामरेड्स और यूथ कांग्रेस के लोगों ने प्रतिवाद किया। टकराव बढ़ा और सभा भंग हुई।
आज अटल बिहारी बाजपेयी भी नहीं रहे और मास्साब भी नहीं रहे, लेकिन वह प्रश्न अपनी जगह खड़ा है जिसके उत्तर से बाजपेई भाग खड़े हुए थे।
अमेरिकी आकर्षण में फंसे नई पीढ़ी के बच्चे ये जान लें कि कम्युनिस्ट रूस ( सोवियत रूस) भारत की आजादी से लेकर पाकिस्तान के विभाजन तक और उसके बाद भी भारत की ढाल था जबकि पाकिस्तान के विभाजन के वक्त अमेरिका ने भारत के विरुद्ध फौजी बेड़े भेजे थे। जनता की नजर तक में रूस दोस्त था तो अमेरिका दुश्मन !
सवाल ये है कि आरएसएस हमेशा देश के दुश्मनों की तरफ क्यों खड़ा होता है ?
मधुवन दत्त चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं उनकी एफबी टिप्पणी का संपादित रूप साभार