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साल 2100 आते-आते भारत बूढ़ों का देश बन जायेगा!

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hastakshep
14 Jul 2021
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संसार में बढ़ती जनसंख्या (growing population in the world) तथा जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर बुरा प्रभाव (Bad effect on natural resources due to climate change) पड़ रहा है। ख़ास तौर पर वैश्विक स्तर पर ऊर्जा संकट गहराता जा रहा है। पूंजीवादी और विकसित देशों के दबाव में तैयार संयुक्त राष्ट्र संघ के एजेंडा 21 के तहत 2030 से 2050 तक दुनिया की आबादी कम करने की योजना है

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 By the year 2100, India will become a country of old people!

सरकार जनसंख्या नीति के तहत दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को मिलने वाली सारी सुविधाएं खत्म करने का कानून लाने जा रही है। इसको लेकर राजनीतिक हलकों में ही नहीं, बल्कि जनसामान्य में भी तरह-तरह की चर्चा जोरों पर है लेकिन तथ्य क्या कहते हैं, इस पर गौर करना जरूरी है।

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सन् 1800 में पूरी दुनिया की आबादी एक अरब के आसपास थी, जो 2019 आते-आते बढ़कर 7.67 अरब हो गई।

प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लैंसेट में पिछले साल छपी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की करीब 7.8 अरब मौजूदा आबादी साल 2100 में बढ़कर करीब 8.8 अरब हो जाएगी लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने 2019 में जो रिपोर्ट प्रकाशित की थी, उसमें साल 2100 तक दुनिया की आबादी करीब 10.9 अरब होने का अनुमान लगाया गया था।

चीन द्वारा 11 मई, 2021 को जारी जनगणना के सरकारी आंकड़ों के अनुसार उसकी आबादी 1.41 अरब के पार पहुंच गई है। इससे यह भी पता चलता है कि बीते दशकों में चीन की आबादी सबसे धीमी गति से बढ़ी है।

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चीनी सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले दस वर्षों में उसकी औसत वार्षिक वृद्धि दर 0.53% थी जो साल 2000 से 2010 के बीच 0.57% की दर से नीचे रही।

चीन में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर चिंताजनक स्तर पर पहुंच जाने एक बड़ा कारण उसकी विवादास्पद 'वन चाइल्ड पॉलिसी' है। वहां बूढ़ों की जनसंख्या बढ़ने और नौजवानों की आबादी में कमी के कारण 2016 में इस नीति को समाप्त कर दिया गया।

जनसंख्या वृद्धि दर सम्बंधी आंकड़ों पर नजर रखने वाली वेबसाइट 'वर्ल्डोमीटर' के अनुसार भारत की जनसंख्या 2021 में लगभग 1.39 अरब हो चुकी है। यह संख्या चीन से सिर्फ दो करोड़ ही कम है।

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इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मेटरिक्स एंड इवाल्यूशन (Institute for Health Metrics and Evaluation―IHME) के क्रिस्टोफर मुरी के अनुसार वर्ष 2035 तक दुनिया में प्रजनन दर 2.1 प्रतिशत से काफी कम होने के कारण जापान, थाइलैंड, इटली, स्पेन जैसे देशों की जनसंख्या आधी रह जाएगी। इससे इन देशों की अर्थव्यवस्था को संकट का सामना करना पड़ेगा।

विशेषज्ञों के अनुसार यदि किसी देश की प्रजनन दर 2.1 प्रतिशत हो तभी वहां जनसंख्या स्थिर रह सकती है। भारत की 2020 तक औसत प्रजनन दर 2.2 प्रतिशत रही है।

पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की एग्ज़िक्यूटिव डायेरक्टर पूनम मुतरेज़ा के अनुसार भारत के अधिकांश हिस्सों में प्रजनन दर में तेज़ी से गिरावट आ रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा के अलावा अन्य राज्यों में प्रजनन दर नकारात्मक है। इनकी प्रजनन दर में अनुमान से कहीं ज़्यादा तेज़ी से गिरावट आ रही है।

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इसका मतलब साफ है कि जनसंख्या को नियंत्रित करने के सरकारी प्रयासों के बिना ही इसकी वृद्धि में स्वत: कमी आती जा रही है। यदि इसके बावजूद भी सरकार जनसंख्या वृद्धि दर कम करने की जिद पर ही अड़ी रहती है तो अगले 30-35 सालों में ही भारत में युवाओं की संख्या कम और बूढ़ों की अधिक होगी, जैसा कि चीन में देखा गया।

यदि देश की प्रजनन दर 2.1 प्रतिशत के आसपास रहती है तो साल 2100 आते-आते भारत की जनसंख्या 109 करोड़ के करीब होगी। जिसमें युवाओं की वर्तमान संख्या 74 करो़ड़ से घटकर लगभग 57 करोड़ ही रह जाएगी, यानी मौजूदा से करीब 25% कम।

लैंसेट की रिपोर्ट बताती है कि 2035 तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, दूसरे नंबर पर अमेरिका और तीसरे नंबर पर भारत होगा लेकिन यदि विकास दर और रोज़गार की उपलब्धता वर्तमान की तरह ही बनी रहती है तो हम तीसरे नंबर पर कतई नहीं पहुँच पाएंगे। यदि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि नहीं होती है तो देश को भयंकर गरीबी का सामना करना पड़ेगा।

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सरकार की जनसंख्या नीति को लेकर विपक्ष तथा अन्य लोगों का कहना है कि इसके पीछे सत्ताधारी वर्ग की साम्प्रदायिक सोच वाली राजनीति है। तो यदि आंकड़ों के आइने में देखा जाये तो 2001 से 2011 के बीच हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 19. 92 प्रतिशत से घटकर 16.96 पर आ गई। यानी यह 3.16 प्रतिशत कम हुई, जबकि मुसलमानों में यह वृद्धि दर 29.5 से घटकर 24.6 प्रतिशत करीब 5 प्रतिशत कम रही अर्थात मुस्लिम समुदाय की वृद्धि दर बहुत तेजी से कम हुई।

आंकड़े बताते हैं कि दो से ज़्यादा बच्चों वाले जोड़ों में 83% हिंदू और 13% मुसलमान हैं, अन्य समुदायों के लोग केवल 4% हैं।

आंकड़े यह भी बताते हैं कि जैसे-जैसे देश में शिक्षा का प्रसार हुआ है, वैसे-वैसे देश की जनसंख्या-वृद्धि दर भी कम हुई है। देश में मुसलमानों सहित अन्य सभी समुदायों में पिछले तीस सालों (1992-93) से जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट जारी है। अत: स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि का सम्बंध सम्प्रदाय से अधिक आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति से है।

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संसार में बढ़ती जनसंख्या तथा जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। ख़ास तौर पर वैश्विक स्तर पर ऊर्जा संकट गहराता जा रहा है। पूंजीवादी और विकसित देशों के दबाव में तैयार संयुक्त राष्ट्र संघ के एजेंडा 21 के तहत 2030 से 2050 तक दुनिया की आबादी कम करने की योजना है।

भारत में पिछले दस सालों में जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ने की अपेक्षा लगातार घटते जाने के कारण हैं―शादी करने की उम्र में बढ़ोत्तरी, दो बच्चों के बीच अंतराल रखना। ज्यादा बच्चों के कारण होने वाली आर्थिक परेशानियों को लेकर, खास तौर पर गरीब तबकों में, भी जागरूकता आई है। गरीब भी बच्चों को पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं क्योंकि इस पर काफ़ी खर्च आ रहा है। जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा से जिंदा रहने भर का संघर्ष बहुत तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे तमाम कारणों से प्रजनन दर में गिरावट आ रही है। इससे चीन की तरह 2040 के बाद हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा बुजुर्ग होने लगेगा। जिसका राष्ट्रीय उत्पादकता पर सीधा असर पड़ेगा।

अत: यही कहा जा सकता है कि जिस तरह चीन ने अपनी भारी जनसंख्या को काम पर लगा कर न सिर्फ अपनी राष्ट्रीय उत्पादकता में वृद्धि कर ली, बल्कि निर्यातोन्मुखी नीतियों को अपना कर वैश्विक स्तर पर अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों के सामने गंभीर चुनौतियां भी पेश कर बहुत तेजी से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवसथा बनने की राह पर है।

लेकिन क्या हम अपने इस पड़ोसी देश से कुछ सीखेंगे या सिर्फ वोट की राजनीति ही करते रहेंगे?

श्याम सिंह रावत

वरिष्ठ पत्रकार

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