फिर एक दिन साझा परिवार टूट गया। संगीत घर ताईजी की रसोई बन गई, लेकिन उस रसोई में हम सारे बच्चे जमा होते थे। सुबह की चाय वही बनती थी। हम खाना वही खाते थे।
Our East Ghar and Sangeet Ghar are handed over to black serpents
ये कच्चे घर 70 साल पुराने हैं। 70 साल बाद भी जस के तस। सिर्फ सन का छप्पर बदला है।
मेरे ताऊजी, ताईजी के घर, जो अब सांपों के डेरे हैं। जो कभी सामाजिक सांस्कृतिक हलचल के केंद्र थे।
कितनी आंधियों, बरसात, लू के थपेड़ों को सहकर भी मिट्टी की दीवारों वाले ये घर अभी सही सलामत हैं। सिर्फ सन के छप्पर बदल गए हैं और एस्बेस्टस की छत डाली गई हैं।
हमारे बाकी घरों की जगह पक्की इमारतें बन गयी हैं। ताऊजी ताई जी के एकमात्र बेटे अरुण के करीब चार दशक से दिल्ली में जाकर नौकरी करने की वजह से ये घर जस के तस बने हुए हैं।
यह हमारा, हमारे साझे परिवार का पूरब का घर है। एक घर उत्तर घर था। जहाँ मेरे चाचा डॉ सुधीर विश्वास रहते थे। उनके 60 के दशक में बाहर बस जाने के बाद यह उत्तर घर हम बच्चों का डेरा बन गया। उत्तर घर के बगल में पुराना घर था। उससे सटे ढेकी घर।
पूरब घर के दक्षिण में यह छोटा सा घर संगीत घर था। इसी के सामने था चार छप्परों वाला कचहरी घर।
जहां कोलकाता से आकर हमने घर बनाया, वहाँ दो गोशालाएं थीं। और इसके ठीक उत्तर में क्वार्टर और हमारी झोपड़ी, जहां मां, पिताजी रहते थे। आंधियों के दौरान या भारी बरसात में यह भारी भरकम परिवार इसी क्वार्टर में आ जाता था।
तब बंगाली गांवों में सड़कें नहीं बनी थीं।
जंगल थे और जंगली जानवर भी थे।
हर गांव छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों से घिरा होता था। जिनमें हमेशा पानी होता था।
खूब मछलियां होती थीं और चिड़िया भी खूब।
गांव आने जाने के लिए पगडंडियाँ थीं और खासतौर पर बरसात में तैरना जरूरी था।
कीचड़ पानी से लथपथ था हमारा बचपन।
महानगरों में यही कीचड़ पानी लेकर ही गया था, जिसमें हमेशा मेरे पैर तब भी घुटने तक धंसे होते थे, जब कारपोरेट अखबार वातानुकूलित दफ्तर से कम्प्यूटर नेटवर्क के जरिए निकलता था मैं।
कुलीन भद्रलोक कभी नहीं बन सका।
दिनेशपुर मटकोटा रोड नहीं बना था। दिनेशपुर आने जाने के लिए दस गांवों के लोग काली नगर, उदयनगर, पंचाननपुर आदि के लोग हमारे घर से होकर आते जाते थे। इसलिये भी बचपन से हर गांव के लोग मुझे बेहद प्यार करते रहे हैं।
घर के बीचोबीच थे दो आम के पेड़।
घर के उत्तर और पूरब में थे सैकड़ों पेड़।
यह घर तब तराई में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था।
घर में चूल्हे की आग कभी बुझती नहीं थी।
चाय चौबीसों घण्टे बनती रहती थी।
कभी भी खाना तैयार होता था।
हर साल बांग्ला आश्विन महीने की संक्रांति पर इसी पूरब के घर में गासी उत्सव नई फसल के लिए नवान्न की तर्ज पर मनाई जाती थी।
यह बसंतीपुर गांव का साझा उत्सव था। जैसे ललित गुसाई के घर में बारुनी मतुआ महोत्सव तराई भर के लोग मानते थे।
मेरे दोस्त दिवंगत कृष्ण के चाचा के घर दोल होली पर और फिर चैत्र संक्रांति पर चड़क उत्सव मनाये जाते थे।
मेरे दूसरे दोस्त विवेक दास के पिता विष्णुपद दास वैष्णव थे। उनके घर अष्ट प्रहर नाम संकीर्तन होता था हर साल।
इन उत्सवों के सामूहिक चित्र इसी पूरब घर की कच्ची दीवारों पर फ्रेम में सजे थे। मेरी दादी शांति देवी, मेरे और सभी भाई बहनों की तस्वीरें भी। गांव को बसाने वाले सभी पुरखों की तस्वीरें थीं। इसके साथ पूर्वी बंगाल से ताईजी जो हाथ की कढ़ाई सिलाई की चीजें लाई थी, वे भी इसी घर में सजी थी।
अचार के डब्बे, मुड़ी के तीन, सरसों की चटनी यानी कासुंदी के डब्बे भी इसी घर में होते थे।
वे तस्वीरें सबके सब उसी तरह नष्ट हो गईं, जैसे रोज लिखी पुलिन बाबू की डायरियां।
हम कुछ भी नहीं सहेज सके। जमीन जायदाद भी नहीं। इसीलिये सजा बतौर मेरा अपना लिखा भी कुछ नहीं बचा और न बचेगा। इसी को पोएटिक जस्टिस कहते हैं।
ताउजी बसंतीपुर जात्रा पार्टी के संगीतकार थे। हारमोनियम तबला ढोल आदि वाद्य यंत्र भी इसी कमरे में थे। उत्तर घर के बरामदे पर बैठकर ताउजी हारमोनियम पर और चाचाजी तबले पर रेडियो के संगीत कार्यक्रमों की संगत करते थे। रेडियो का एरियल लम्बे बांस पर लगा होता था।
साहित्य और संगीत के पर्यावरण वाले साझा परिवार के हम बच्चे थे।
संगीत घर में रहते थे बिजनौर घसियाले के ब्रजेन मास्टर। जो बसन्तीपुर जात्रा पार्टी के लिए खास तौर पर बुलाये गए थे। जात्रा में सूत्रधार की तर्ज पर एक विवेकगयक होते थे। मनुष्यता के विवेक के प्रतीक। ब्रजेन बाबु वही विवेक गायक थे। बच्चों को संगीत सिखाते थे।
ताउजी की बेटी मीरा दीदी, उनकी शादी के बाद वीणा और मेरे चचेरे भाई संगीत के बेहतर छात्र थे। लेकिन मेरा हाल पड़ोसन के सुनील दत्त का था।
मुझसे कभी सारेगामा नहीं सधा। फिर भी ताज्जुब की बात कि इस नालायक छात्र से ही ब्रजेन मास्टर को सबसे ज्यादा प्यार था। वे आखिरी समय देख नहीं सकते थे। दशकों बाद कोलकाता से बिजनौर जाने पर उनसे मिलने गया तो मेरी आवाज सुनते ही उन्होंने पुकार लिया, पलाश।
संगीत न सीखने का मुझे बहुत अफसोस है। ब्रजेन मास्टर नाच भी सिखाते थे। बसंतीपुर की सबसे मशहूर प्रस्तुति बांगालिर दाबी में हिन्दू मुस्लिम आदिवासी एकता की थीम थी। दशकों तक यह नाटक खेला जाता रहा। इस जात्रा गान में संथाली नृत्य भी था।
फिर एक दिन साझा परिवार टूट गया।
संगीत घर ताईजी की रसोई बन गई, लेकिन उस रसोई में हम सारे बच्चे जमा होते थे। सुबह की चाय वही बनती थी। हम खाना वही खाते थे।
विवाह के बाद ताईजी ने ही सविता का स्वागत किया था। रस्म अदायगी की थी और पूरब के घर में ही उनका पहला के पड़ा था। न जाने किस किसके चरण चिन्ह इस पूरब के घर में हैं। संगीत भी हमेशा की तरह थम गया है।
हमारे घर में रात दिन आवाजाही रहती थी, लेकिन सुरक्षा का कोई अलग इंतजाम नहीं था। हमेशा घर में दो पालतू कुत्ते होते थे। इसके अलावा घर के चप्पे-चप्पे पर जहरीले नागों का सख्त पहरा था।
पूरब घर तब भी जहरीले नागों का डेरा था। सैकड़ों की तादाद में वे आकर पूरब घर में जमा हो जाये थे। पूर्वी बंगाल से 1964 के दंगों के बाद ओडाकांदी से आ गयी थी ताईजी की मां प्रभावती देवी, हमारी दीदी मां।
दादी और दीदी मां बिना घबराए पूरब घर में सफेद थान कपड़े से उनका स्वागत करती थी। उनके लिए दूध केले का भोग लगाया जाता था।
नियत वक्त पर सारे के सारे नाग बगीचों और खेतों में निकल जाते थे एक-एक करके।
वे घर के कोने-कोने में कहीं भी कभी भी मिल जाते थे। नल पर, रसोई में, बिस्तर पर, मच्छर दानी में, खिड़की और दरवाजे में।
तराई में सर्पदंश से मृत्यु आम है। 50 से 70 दशक में यह आम बात थी। लेकिन हमारे घर की सीमा में किसी को काले नागों ने नुकसान नहीं पहुंचाया।
इन्हीं की वजह से हम सुरक्षित रहे।
अब पूरब घर और संगीत घर इन्हीं काले नागों के हवाले हैं।
पलाश विश्वास