Pista Hindustan… Digital India has fun!
हम हिन्दुस्तान में जी चुके हैं, अब हमारा जीवन यापन इंडिया में हो रहा है। उक्त कथन यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह ने एक बार अपने वक्तव्य में कहे थे। डॉ. साहब की बात को आगे बढ़ाते हुए वर्तमान पीएम नरेंद्र मोदी ने इंडिया के आगे डिजिटल जोड़कर पूर्व प्रधानमंत्री से दो कदम आगे बढऩे का काम किया है।
मुझे खुशी है कि हमारा देश तरक्की करे सभी समुदाय के नागरिक मिल-जुलकर देश प्रेमी की एक मिशाल कायम करें। जिससे हमारे वतन की तरक्की में चार चांद लगते रहें। लेकिन अफसोस इस बात है कि हमारे देश के हुक्मरान बडे-बडे बोल बोलने में जितनी तीव्रता दिखाते हैं सही मायने में उनके द्वारा बोले गए कथन धरातल पर उम्मीद से कहीं ज्यादा कम काम में आते हैं।
Introduction of Modi ji's Digital India and our Hindustan
आज मैं हुक्मरानों को हिन्दुस्तान और इंडिया के बीच की उस खाई से अवगत कराना चाहता हूं जिसका पाटना सहज नहीं है।
आज मैं वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदी जी के डिजिटल इंडिया और अपने हिन्दुस्तान का परिचय कराना चाहता हूं।
दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री आवास 7रेसक्रॉस रोड़, भाजपा मुख्यालय, इंडिया गेट, राजाजी मार्ग, साउथ एवेन्यू, रायसीना हिल्स, जनपथ एवं पंचतारा होटल आपके लिए नि:संदेह डिजिटल इंडिया हैं। एशिया के मानचित्र पर साईबर सिटी के नाम पर अपनी पहचान बना चुके गुरूग्राम (गुडगांव) जहां की बुलंद ईमारतें रात के अंधियारों को धता बताते हुए सुर्ख चमक बिखेरती हैं वहीं कुछ समय पूर्व तक इसी जिले का हिस्सा रहे मात्र 40 किलोमीटर दूर (प्रधानमंत्री आवास से 60 किलोमीटर) मेवात जिला स्थापित है। यह जिला राजस्थान की सीमा से सटा हुआ हरियाणा का अंतिम जिला है। कुछ समय पूर्व तक वर्षों से यह इलाका गुरूग्राम जिले का हिस्सा रहा है। बिना किसी भेदभाव के विकास करने का नारा देने वाले राज्य एवं प्रदेश के हुक्मरानों के लिए यह इलाका करारा तमाचा है। इससे ज्यादा दुभांत और क्या होगी? कि जिले के एक हिस्से को तरक्की के क्षेत्र में एशिया के मानचित्र पर चमका दिया जाए और दूसरे हिस्से को गरीबी, अशिक्षा, शोषण और बेरोजगारी की दलदल में धकेल दिया जाए।
जी हां, यह है मेरा हिन्दुस्तान! जो आज भी दिल्ली की नाक के नीचे बसे होने के बावजूद इतने पिछड़ेपन का शिकार है कि जहां एक ओर रैपिड मेट्रो हो और दूसरी तरफ़ इस इलाके के अधिकांश वाशिंदे रेल के नाम पर प्रश्र पूछते हैं कि साहब यह रेल खाने की चीज है या पहनने की? आज भी इलाके में महिलाएं इतनी शोषित हैं कि बाहर से ब्याह कर लाई गईं औरतें मात्र इस्तेमाल की वस्तु बनकर रह गई हैं। यहां पर इन्हें कई बार दाएं से बाएं बेचा जाता है। फिर हम किस दम पर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और आदमी तथा औरत में समान अधिकारों की बात का दम भरते हैं।
मुंबई की गगनचुंबी इमारतें, शेयर मार्किट स्ट्रीट, जुहू चौपाटी तथा मुंबई का ताज! जी हां ये हैं हमारे नेताओं के डिजिटल इंडिया पैलेस। इन जगहों से मात्र लगभग 130 किलोमीटर दूर सौराष्ट्र के कुछ इलाके में आज भी दबंगों की वो ठाकुरगर्दी है कि सुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाएं।
एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल की स्पेशल रिपोर्ट जोकि मैंने खुद देखी थी, में दिखाया गया कि चकाचौंध वाली मुंबई से इस चंद दूरी इलाके में दबंगियों द्वारा मजबूर एवं दबे-कुचले लोगों को कुंए से पानी तब लेने दिया जाता है जब पानी लेने वाला परिवार दबंगों के लिए अपनी घर की बहू या बेटी को उनके रात रंगीन करने के लिए भेजा जाता है। हुक्मरानों के लिए इससे ज्यादा कठोर शब्द मेरे पास नहीं होंगे कि देश में इससे ज्यादा नीचता और कुछ नहीं हो सकती और इसके ज़िम्मेदार देश के कथित खेवनहारों को चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए।
हम बात करते हैं आसमां से तारे तोड़कर लाने की, विश्व शक्ति बनने की और देश की इज्जत तब तार-तार हो जाती है जब देश का एक मजबूर मांझी बिना पैसों के कारण अपनी पत्नी का शव कंधे पर रखकर कोसों दूर ले जाता है। दिल दहला देने वाली एक घटना और सामने आती है कि इसी प्रकार से मजबूर एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी की मृत्यु पर उसका शव का बोझ न उठा पाने की परिस्थिति में उसके शरीर की हड्डियों को तोड़कर गठड़ी में बांधकर गंतव्य की ओर ले जाता है।
दिल में हिन्दुस्तान बसाये मेरे अंदर ज्वाला फूट पड़ती है जब साऊथ की यह घटना सामने आती है कि एक बाप ने अपने चार बच्चों से एक बच्चे को इसलिए बेच दिया क्योंकि वह बेरोजगारी के चलते उसका भरन-पोषण नहीं कर पा रहा था।
कोई भी बच्चा मां-बाप के कलेजे का टुकड़ा होता है क्या बीती होगी उस मजबूर बाप पर जब उसने अपने कलेजे का टुकड़ा किसी दूसरे को इसलिए सौंप दिया कि वह अपने अन्य बच्चों का भरन-पोषण शायद ठीक प्रकार से कर पाएगा। यह है हिन्दुस्तान!
आपके लिए गोवा का बीच, गोवा के पब और बार, सैलानी स्थल, कैसीनो एवं कू्रज इत्यादि डिजिटल इंडिया हैं लेकिन मेरा हिन्दुस्तान आज भी बेरोजगारी के थपेड़े खाकर अपनी गरीबी को धक्का दे रहा है। धत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में मजदूरी करने वाले अधिकांश लोगों को यह नहीं पता कि उन्होंने आखिरी बार कब रोटी खाई, झारखंड और छत्तीसगढ़ के कई इलाके की महिलाएं केवल एक धोती में अपना जीवन यापन करती हैं और फटी-चिथड़ी वह धोती चिल्ला-चिल्ला कर हुक्मरानों को अपनी न छिपने वाली इज्जत बचाने की दुहाई देती हैं। नंग-धडंग उनके बच्चे मजूदर से पैदा होते हैं और मजदूरी में मर जाते हैं। जागरूकता के नाम पर सरकार के बडे-बडे भाषण इनको जागरूक नहीं कर पाते। जिसका सीधा कारण यह है कि सत्ता की बीच चौखट पर बैठकर मलाई चाटने वाले नेता इन लोगों के अधिकारों पर ही तो मस्ती काट रहे हैं क्योंकि अगर ये जागरूक हो गए तो तथाकथित नेताओं की सत्ता पर संकट के बादल मंडराने लगेंगे। इन मजलूम लोगों के लिए दी जाने वाली सरकारी सेवाऐं एवं उनके अधिकार कागजी फाईल में सिमटकर केवल रद्दी कमरों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि गरीबी में पैदा हुए हमारे देश के नौनिहाल पढ़ना, लिखना या अपने अधिकारों को जानना नहीं चाहते हों बल्कि जागरूकता के अभाव में उनके अधिकार शैशव काल में ही दम तोड़ जाते हैं।
कई बार ऐसी खबरों से रूबरू होना पड़ता है कि दक्षिण के कई इलाकों में हमारे देश के भविष्य माने जाने वाले बच्चे अपनी जान हथेली पर रखकर कच्चे पुल या रस्सी के पुल या फिर गहरी नदी को पार करने के लिए केवल अस्थाई नाव का सहारा लेकर विद्यालय में इसलिए जाते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों की जानकारी मिल सके। लेकिन अफसोस मेरे इस हिन्दुस्तान पर सत्ता के शीर्ष चौकीदारों की नजर शायद इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि उनकी आंखें डिजिटल इंडिया की चकाचौंध में चुंधिया गई हैं।
सच में देश का पालनहार चिंतक या फिर यह कहे देश पर मर मिटने वाला वर्ग सबसे ज्यादा शोषित है।
हिन्दुस्तान की सही तस्वीर क्या है
अन्नदाता किसान के नाम पर सत्ता शिखर को छूने वाले नेताओं ने सबसे पहले किसानों के हितों को ही ठोकर मारी है। अब तक बनने वाली लगभग सभी सरकारें चुनावों के दौरान किसानों के लिए लुभावनी बातें करके सत्ता शिखर तक पहुंचे हैं, लेकिन अफसोस है कि किसान केवल वोट बैंक तक ही सीमित रहा है। बड़े शर्म की बात है कि किसान अपनी फसल को मंडी में लाकर पटक देता है और फसल के खरीददार (सरकारी दलाल) किसान को दूर बैठाकर उसकी फसल की बोली लगाते हैं और बेचारा किसान अपनी लाचारी का बयां भी नहीं कर पाता कि उसकी फसल जितने में खरीदी गई उससे कहीं ज्यादा तो उसने उस फसल के लिए मेहनत में पसीना बहा दिया था।
किसान का पांच किलो आलू 20-30 रूपये में बोली लगाकर खरीद लिया जाता है और वहीं आलू जब हल्दीराम, बीकानेर एवं लेज जैसे बड़े उद्योगपतियों के लिफाफे में थोड़ा नमक-मिर्च लगाकर मात्र 100 ग्राम पैक करके बेचा जाता है तो 20 रूपये की कीमत का हो जाता है। यहा कहां का न्याय है, कहां की समानता है, इसको हम भेदभाव नहीं कहेंगे तो और क्या नाम देंगे। जब तक किसान अपनी फसल का खुद मोल नहीं लगाएगा तब तक किसान मजलूम ही बना रहेगा।
यही हिन्दुस्तान की सही तस्वीर है। अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए दूर-दराज के प्रदेशों से दिल्ली एनसीआर में इस उम्मीद से लोग आते हैं कि मजदूरी करके वे अपने बच्चों के सपनों के खिलौने खरीद सकें लेकिन जब अंतर्राज्यीय बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन एवं लेबर चौक पर उनकी लाचार निगाहें काम नहीं ढूंढ पाती हैं तो उन पर क्या बितती होगी, सहज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। सुबह के दौरान दोनों सड़कों के बीच फुटपाथ पर धरती को बिछौना और आसमान को ओढऩा बनाकर सोने वाले इन लोगों को नहीं पता कि कल का भोजन उन्हें नसीब होगा भी या नहीं। यह हाल दिल्ली का है जहां पर सत्ता के चश्में पहने हुए हुक्मरान रहते हैं। उन्हें चश्मे से ये लोग नजर नहीं आते।
सीमा पर जवान, खेत में किसान, सड़क पर मजदूर, नंगा और भूख बचपन साथ में लाचार औरतें, नेताओं के देशव्यापी विकास और डिजिटल इंडिया का बखान चिल्ला-चिल्लाकर कर रहे हैं। घोटालों एवं रिश्वतखोरी से सने हुए रणनीतिकारों के हाथ हिन्दुस्तान को निकट भविष्य में इंडिया की बजाए जरूरतमंदों का हिन्दुस्तान ही बना दें तो आने वाली पीढिय़ां उनको अपना प्रेरणा स्रोत मानकर युगों-युगों तक पूजती रहेंगी।
जगजीत शर्मा
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।