/hastakshep-prod/media/media_files/F3djCjdwE18lj8jwinyt.jpg)
2024 की लड़ाई : मोदी बनाम राहुल नहीं, बल्कि ...
यह भारत को हिंदू राष्ट्र बनने से रोकने का आखिरी मौका...
आगामी लोकसभा चुनाव की डुगडुगी बजने लगी है. इसमें कोई शक नहीं कि यह चुनाव बेहद कड़ा होगा। धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र आदि संवैधानिक मूल्यों पर श्रद्धा रखने वाले यह जान चुके हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनने से रोकने का यह आखिरी मौका है। मोदी-शाह-संघ परिवार भी यह भाँप चुके हैं कि यह अवसर हाथ से निकाल गया, तो हिंदू राष्ट्र तो दूर रहा, उन का बना-बनाया सारा खेल बिगड़ जाएगा।
यह सच है कि राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता, लेकिन इतना तय है कि 1977 के बाद का यह सबसे महत्वपूर्ण चुनाव है, जो देश और समाज का इतिहास बदलने की क्षमता रखता है।
यह बात साफ है कि यह चुनाव दो गठबंधनों - 'इंडिया' और 'एनडीए' के बीच लड़ा जाएगा। विपक्षी दल यह समझ चुके हैं कि अगर वे एकजुट होकर नहीं लड़ते, तो उन की बरबादी तय है। बीजेपी चाहे ‘शत प्रति शत भाजपा’ के कितने भी ऐलान कर लें, विपक्षी दलों में सेंध लगा कर अपनी पार्टी का आकार कितना भी बड़ा कर लें, छोटे-बड़े दलों को साथ लिए बिना उसके पास भी कोई रास्ता नहीं है। इस 'युद्ध' का चेहरा मोदी बनाम राहुल गांधी होगा, यह भी लगभग सभी ने मान लिया है। सामाजिक माध्यमों से एक क्षीण आवाज आ रही है कि अगर आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी की करारी हार होती है तो समय रहते मोदी की जगह कोई और नेता ले लेगा। यह संभावना बहुत धूमिल है, क्योंकि मोदी को हटाने का ख़तरा उठाने की हिम्मत आरएसएस के आकाओं में नहीं है। मोदी का मिथक रचने और उन्हें सत्ता में बिठाने में जिन की अहम भूमिका थी, वे ही ऐसा कर सकते हैं। लेकिन वे अच्छी तरह से जानते हैं कि इस मिथक को तोड़ कर कम समय में उतना ही प्रभावी दूसरा मिथक बनाना संभव नहीं होगा। इसके अलावा, चुनाव से पहले, सत्ता के दावेदारों के बीच घमासान शुरू होना सभी संबंधितों के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि मोदी ही एनडीए का चेहरा होंगे।
विपक्षी मोर्चे से ममता, नीतीश कुमार और पवार तक कई नाम सामने आ रहे थे। लेकिन जिस तरह से राहुल गांधी 'भारत जोड़ो' यात्रा के बाद नई ऊर्जा लेकर आगे बढ़े हैं, जिस तरह से उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों से समर्थन मिलता दिख रहा है (क्योंकि कांग्रेस मीडिया विंग ने भी अभी उड़ान भर ली है), उस से यह तय लगता है कि ‘इंडिया’ का चेहरा राहुल गांधी ही होगा।
छवियों की लड़ाई बेमानी
फिर भी मेरी स्पष्ट राय है कि 2024 की लड़ाई मोदी बनाम राहुल के रूप में लड़ी जाना न केवल 'इंडिया' गठबंधन के लिए, बल्कि भारत देश के लिए, यहां के लोकतंत्र के लिए हानिकारक होगा। इसके लिए हमें सब से पहले मोदी की राजनीति के सूत्र और उन की रणनीति को समझना होगा।
लोकतंत्र की विषयवस्तु और स्वरूप को लगातार सिकोड़ना यही मोदी की राजनीति का मुख्य सूत्र है। जरा सोचें, गत नौ वर्षों में क्या-क्या हुआ है ...विमर्श को जुमलेबाजी में बदलना, विधानमंडलों में बहस की गंभीरता को खत्म कर नाटकबाजी और और सफ़ेद झूठ को बढ़ावा देना (याद करें मणिपुर को लेकर अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस), विधान मण्डल की तमाम प्रावधानों (शून्य-काल, प्रश्न-उत्तर सत्र, स्थायी समितियाँ, यहाँ तक कि किसी विधेयक को अधिनियम (कानून) में परिवर्तित करने की समूची प्रक्रिया) का अवमूल्यन करना। सीएजी, मुख्य सूचना अधिकारी, चुनाव आयुक्त, लोकपाल जैसी स्वतंत्र संस्थाओं की नसबंदी, न्यायपालिका पर नियंत्रण की कोशिश और राज्यपालों की बदली भूमिका से यह स्पष्ट है कि मोदी का फोकस संसदीय लोकतंत्र के अवकाश को घटाने पर है। हर क्षेत्र में बढ़ता केंद्रीकरण यह उसी सिक्के का दूसरा पहलू है, जो कई रूपों में प्रकट होता है, जैसे कि राज्यों के अधिकारों पर केंद्र का अतिक्रमण, अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन और संस्थाओं के बजाय व्यक्ति के महत्व को बढ़ावा देना। अपने हाथों में सत्ता का अधिकतम केन्द्रीकरण करना मोदी की रणनीति का अत्यावश्यक हिस्सा है। इसीलिए वे मौजूदा भारत के ब्रिटिश शैली के संसदीय लोकतंत्र को अमेरिकी शैली की राष्ट्रपति प्रणाली में बदलने का प्रयास कर रहे हैं। पिछले दो आम चुनावों में मोदी का प्रचार अभियान अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तरह ही चलाया गया था। वहां प्रचार का जोर मुद्दों पर नहीं, बल्कि छवि निर्माण पर होता है। मुद्दे होते हैं, तो सिर्फ छवि चमकाने के लिए। इस के लिए मीडिया, इमेज मेकिंग और मनोविज्ञान के विशेषज्ञों की टीमें दिन-रात काम करती हैं। इन सभी प्रक्रियाओं का गहरा अनुभव सिर्फ कॉरपोरेट्स के पास होता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि एनडीए बनाम इंडिया की लड़ाई में कॉरपोरेट किसके पक्ष में हैं।
राहुल बनाम मोदी छवि युद्ध शुरू होने के बाद, मोदी की छवि का अलंकरण और राहुल (और उन का परिवार और इंडिया गठबंधन) की छवि का विकृतीकरण किस हद तक किया जाएगा, कहना मुश्किल है। छवियों के इस संघर्ष में उतरने के मानी है मोदी के मैदान पर उन्हीं के द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार लड़ना। इसलिए इस संघर्ष में उन के अलावा किसी और का जीतना नामुमकिन है।
लोकतंत्र में हर पांच साल में होनेवाले चुनाव यह एकमात्र अवसर होता है - लोगों की समस्याओं का समाधान ढूँढने, कम से कम उन पर ध्यान आकर्षित करने और सरकारी नीतियों को अधिक नागरिक-उन्मुख बनाने का। अगर 2024 के चुनाव में गरीबी, असमानता, बेरोजगारी, धार्मिक कट्टरता, नफरत, हिंसा, लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन जैसे ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा नहीं की गई, तो लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा? इस चुनाव का प्रचार मुद्दों पर नहीं, बल्कि व्यक्तियों पर केंद्रित होना लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित होगा। इसीलिए यह लड़ाई मोदी बनाम राहुल के बजाय एनडीए और भारत के विचारों और नीतियों के संघर्ष के रूप में खेली जानी चाहिए। यह आसान बात नहीं; फिर भी उसे संभव बनाने के लिए ‘इंडिया’ को लीक से हटकर रास्ते तलाशने होंगे। उस के लिए एक (लेकिन एकमात्र नहीं) कारीगर तरीका है विकास के मॉडल को चर्चा का केन्द्र बनाना। संक्षेप में, मोदी बनाम राहुल की जगह गुजरात मॉडल बनाम छत्तीसगढ़ मॉडल पर बहस चलाना।
विकास के मॉडल को लेकर बहस हो
गुजरात मॉडल के बारे में लोगों ने कुछ कुछ सुना है। हालांकि आज खुद मोदी-बीजेपी इस पर बात नहीं करते, लेकिन उन्हें 2014 का चुनाव जिताने में इस मॉडल ने बड़ी भूमिका निभाई थी। आज भी वाराणसी के गंगा तटों के सौंदर्यीकरण से लेकर पर्यावरणीय 'बाधाओं' को दूर कर कॉर्पोरेट-अनुकूल कानून बनाने तक, मोदी-शाह हर जगह उसी गुजरात मॉडल को दोहरा रहे हैं। इस मॉडल की कलई अब काफी उतर चुकी है। उस की यश गाथा में छिपी गहरी दरारें, तथा उस की सामाजिक विफलताओं के प्रमाण, आज अध्ययन कर्ताओं के पास उपलब्ध हैं। केवल मुट्ठी भर संभ्रांत लोगों के लिए बना यह मॉडल, किस तरह बहुसंख्यक लोग, पर्यावरण और लोकतांत्रिक व्यवस्था इन सब के लिए हानिकारक है, यह विमर्श खड़ा करना, मुश्किल है, लेकिन असंभव कतई नहीं है।
ऐसे सभी विमर्शों में मुख्य सवाल विकल्प का होता है। विकास पर छिड़ी अनगिनत बहसों में यह सवाल अब तक ज़्यादातर अनुत्तरित रहा है। लेकिन, पिछले पाँच वर्षों में आकार लेने वाले छत्तीसगढ़ मॉडल ने इस कमी की काफी हद तक भरपाई कर दी है। ऐसी विकास नीति, जो पर्यावरण के अनुकूल हो, गरीबों और वंचितों के हित में हो, अलग राह अपनाकर भी जो लोकप्रिय हो सकती हो, आज इस मॉडल के रूप में उपलब्ध है। इसकी चर्चा अभी तक मीडिया में (यहां तक कि खुद कांग्रेसी हलकों में भी) नहीं हुई है। लेकिन अगर वह बड़े पैमाने पर होती है, तो ‘इंडिया’ को मोदी-बीजेपी के खिलाफ खड़े होने के लिए एक मजबूत आधार मिल सकता है।
ग्रामीण पुनरुद्धार का छत्तीसगढ़ मॉडल
छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बहुल राज्य है। बीजेपी ने वहां लगातार 15 साल तक शासन किया और उन्हें पूरा भरोसा था कि वह 2018 में सत्ता में आएंगे। कांग्रेस संगठन ने तब पहले ही हथियार डाल दिये थे। उस समय कांग्रेस नेता भूपेश बघेल ने पूरे राज्य का दौरा किया और लोगों से बातचीत की। यहीं से चुनाव के लिए एक नया नारा जन्मा - ‘नरवा, गुरवा, घुरवा, बाडी – छत्तीसगढ़ की चार चिन्हारी’।
नरवा, नहर, यानि जल व्यवस्था। गुरवा का अर्थ है गायें, पालतू जानवर। घुरवा का अर्थ है कूड़े का ढेर, यानी प्राकृतिक खाद की सुविधा और बाड़ी का अर्थ है वनस्पति उद्यान - ये किसी भी आदिवासी समाज की समृद्धि के प्रतीक हैं। कांग्रेस ने लोगों से वादा किया कि अगर हम सत्ता में आए, तो हम आकर्षक मॉल बनाने के बजाय आदिवासी विकास के इन अवरुद्ध क्षेत्रों को खोलेंगे। आश्चर्य की बात है कि लोगों ने 70 में से 58 सीटें जिताकर उन का हौसला बुलंद किया।
चुनाव के बाद, प्रदीप शर्मा नामक एक नवोन्मेषी इंजीनियर-कार्यकर्ता की मदद से, बघेल ने न केवल अपना वादा पूरा किया, बल्कि 'सुराजी गाँव योजना' के रूप में ग्रामीण पुनरुत्थान का एक नया राज्यव्यापी मॉडल विकसित किया। पानी की समस्या को हल करने के लिए बड़े बांध बनाने के बजाय, 'पानी रोको, पानी सोखो' पद्धति से गांव क्षेत्र की नदियों और नालों का संवर्धन किया गया और आसपास के खेतों-खलिहानों के लिए पानी की आपूर्ति की गई। पशु खाद्य की बढ़ती लागत और दूध न देनेवाले मवेशी ये भारत के हर किसान के लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं। छत्तीसगढ़ में उन का बड़ा ही अनोखा हल ढूंढा गया - 'गौठान उर्फ कैटल क्रेश'. किसान सुबह अपने मवेशियों को सरकार द्वारा निर्मित और गांव द्वारा संचालित इस गौठान में ले जाते हैं। दिन भर उन का दाना-पानी, टीकाकरण, बीमार मवेशियों की देखभाल – सब कुछ वहां नि:शुल्क किया जाता है। शाम को किसान मवेशियों को घर ले जा कर उन का दूध निकालते हैं। इस सेवा के बदले उन्हों ने सरकार को गौमूत्र-गोबर और खेत का कचरा जमा करने का अधिकार बहाल किया है। सरकार ने बड़े पैमाने पर कृषि अवशिष्टों को इकट्ठा करने और उसे वैज्ञानिक तरीके से वर्मी कम्पोस्ट में बदलने की विधि विकसित की है। गौठान में बनने वाली इस मूल्यवान खाद को किसानों को बेचकर उसी से गौठान का कारोबार चल सके, इस तरह की व्यवस्था बनाई गयी है। परिणामस्वरूप, किसानों को गाँव में ही सस्ते दाम पर अच्छी गुणवत्ता वाले प्राकृतिक उर्वरक उपलब्ध हो गए। उस से मिट्टी की बनावट में सुधार हुआ, और कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ सरकार ने 'गोबर धन' नाम से एक नई योजना शुरू की। इसके तहत खेत-जंगल से उठाया गोबर 2 रुपये प्रति किलोग्राम के दर से गौठान में खरीदने की व्यवस्था की गयी और उसका उपयोग वर्मी कम्पोस्टिंग और बायोगैस उत्पादन में किया जाने लगा। गोबर बेचने के बाद 15 दिनों के भीतर पैसा संबंधित व्यक्ति के बैंक खाते में जमा करने का प्रावधान भी किया गया। कोरोना काल में यह योजना अनेक बुजुर्ग, बेसहारा आदिवासी महिलाओं के लिए जीवनयापन का आधार बनी।
'घुरवा' के अंतर्गत गाँव की परती भूमि में विभिन्न प्रकार के चारे की खेती की जाती है। इस के कारण अब किसान गाय-जानवर पालने की जोखिम उठाने में सक्षम हो गए हैं।
'बाड़ी' गतिविधि में परिवारों द्वारा गृह क्षेत्र में और महिला स्वयं सहायता समूहों द्वारा गांव की परती भूमि पर फलों के पेड़ और सब्जियां लगाई जाती हैं और उस के लिए आवश्यक जल आपूर्ति प्रदान की जाती है।
सरकार ने अब हर गांव में ग्रामीण विकास केंद्र स्थापित किये हैं। वहां ग्रामीणों को उनकी रुचि और कौशल को ध्यान में रखते हुए सही व्यवसाय का प्रशिक्षण दिया जाता है और उन्हें आवश्यक तकनीक उपलब्ध करायी जाती है। दाल मिल, खाद्य प्रसंस्करण, वन उपज प्रसंस्करण, हर्बल प्रसंस्करण, साबुन, सैनिटरी नैपकिन, हाथकागज आदि का निर्माण, मिट्टी और गोबर से बनी बढ़िया वस्तुओं का निर्माण, पोहा मिल, कृषि सेवा केंद्र, सौर सरणी जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का निर्माण और मरम्मत, सोलर कोल्ड स्टोरेज, शहद उद्योग, कपास से लेकर कपड़ा निर्माण, रंगाई, छपाई, जनजातीय कलाकृतियों का निर्माण जैसे कई उद्योग वहां शुरू किए गए हैं। इन केंद्रों में काम करने वाले युवाओं को आईआईटी रायपुर के सहयोग से प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
यह कोई चमकधमक वाली भव्य तस्वीर नहीं है। महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्यों में कई गैर सरकारी संगठनों ने ऐसी तकनीकों के सहारे 5-10 गांवों में ग्राम सुधार कर के दिखाया है। छत्तीसगढ़ मॉडल की विशेषताएं कुछ और ही हैं। उस की पहली खूबी है उसका विस्तीर्ण दायरा। राज्य की 10,800 पंचायतों में से 90% से अधिक उपरोक्त योजनाओं को क्रियान्वित किया जा चुका है। इस का मतलब आज़ादी के बाद का यह पहला राज्य व्यापी ग्रामिक पुनर्निर्माण का प्रयोग है। दूसरी बात यह कि, इस प्रयोग में लोग महज लाभार्थी नहीं हैं; बल्कि विकास की प्रक्रिया में सक्रिय साथी हैं। इस मॉडल की तीसरी विशेषता है संसाधनों का समुचित उपयोग। चूंकि राज्य में विपक्ष की सरकार है, इसलिए योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए केन्द्र सरकार से पर्याप्त मात्र में निधि मिलना असंभव था। उस के बावजूद केंद्रीय योजनाओं से उपलब्ध धन राशि का रचनात्मक ढंग से उपयोग कर गाँव में संपत्ति का निर्माण किया जा रहा है और सरकारी मशीनरी इस प्रक्रिया में अच्छी भागीदारी दे रही है। इस मॉडल में खुलापन और लचीलापन है। इसलिए विकास की दिशा में लोग पहल करते हैं और सरकार उन्हें आवश्यक बुनियादी ढाँचा, संसाधन और प्रशिक्षण प्रदान करती है, जिस से उनके लिए बाज़ार के दरवाजे खुल जाते हैं। पिछले पांच वर्षों में राज्य में बेरोजगारी घट रही है और गांवों से विस्थापन कम हुआ है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने गरीबी से उबरने वाले स्वयं सहायता समुदायों के अपने अध्ययन में छत्तीसगढ़ प्रयोग को शामिल किया है। जल्द ही उन के अध्ययन तथा विश्लेषण के निष्कर्ष अध्ययन कर्ताओं को उपलब्ध होंगे।
केंद्रीकरण बनाम विकेंद्रीकरण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों की चर्चा हवा में नहीं की जा सकती। अगर विकास के इन दोनों प्रतिनिधि मॉडल को जनता के सामने रखा जाए और उन पर चर्चा की जाए तो यह बात जनता तक ज़रूर पहुंचेगी। लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में यह एक सार्थक कदम होगा। यह कार्य आसान नहीं, लेकिन इस के बिना कोई विकल्प भी नहीं है। लोकतन्त्र बचाने की लड़ाई में संख्याओं के अंकगणित से आगे बढ़ने और राजनीति की केमिस्ट्री को बदलने का समय आ गया है। हमारे पास ज्यादा समय नहीं है। क्या हम अभी भी मोदी-भाजपा-संघ परिवार की तिकड़मों की प्रतिक्रिया में अपना समय जाया करेंगे, या किसी सार्थक बहस की पहल करेंगे?
रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ
***
(लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययन कर्ता और मराठी वैचारिक पत्रिका ‘सर्वंकष’ के प्रमुख संपादक हैं।)