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चुप्पियों का इक गाँव

झुग्गी झोपड़ियों  से  काम काज को निकली  ज़रा ज़रा सी छुकरियों में  चुप्पियों का इक गाँव बसा है.

a village of silence

झुग्गी झोपड़ियों  से 

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काम काज को निकली 

ज़रा ज़रा सी छुकरियों में 

चुप्पियों का इक गाँव बसा है.

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भूख ने 

पेट की अंतड़ियों को 

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यूँ कसा है 

कि आवाज ही नहीं निकलती. 

 

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चेहरे पे गर्द,

जिस्म सर्द 

बहुत कुछ सहता है.

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दर्द का खुला है खाता 

मगर कोई रंग 

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नज़र नहीं आता. 

 

ये उफ़्फ़ नहीं करतीं 

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चाहे 

कहीं भी 

फिरा लो हाथ 

या चलते-फिरते 

काट लो चिकुटी 

 

क्योंकि इनकी 

संवेदनाओं की 

सारी सुइयाँ 

महज़ रोटियों 

में हैं अटकीं...

डॉ कविता अरोरा

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