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धारा 370 : भारत-विरोधी मुहिम का नेतृत्व मौजूदा केंद्र सरकार खुद कर रही
धारा 370 पर बहस पर एक नोट
भारत के संविधान का अभिन्न अंग है धारा 370
सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली बहस (Arguments on Article 370 in the Supreme Court) के बीच से यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप में सामने आई है कि धारा 370 भारत के संविधान का एक अभिन्न अंग है।
यह हमारे संविधान के संघीय ढाँचे की अर्थात् संविधान की धारा -1 की पुष्टि करने वाली एक सबसे महत्वपूर्ण धारा है।
धारा 370 ने भारत के साथ कश्मीर के पूर्ण विलय में कभी किसी बाधक की नहीं, बल्कि सबसे बड़े सहयोगी की भूमिका अदा की है। पिछले पचहत्तर साल का भारत का संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास भी इसी बात की गवाही देता है।
भारत के संविधान की आत्मा है संघीय ढाँचा
संघीय ढाँचा भारत के वैविध्यपूर्ण स्वरूप की एकता और अखंडता की एक मूलभूत शर्त और भारत के संविधान की आत्मा है। इसीलिए धारा 370 को किसी भी शासक दल की राजनीतिक सनक का विषय नहीं बनाया जा सकता है। धारा -370 को हटाना भारत के संघीय ढाँचे और संविधान पर कुठाराघात से कम नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 पर चली बहस से यह बात बिल्कुल साफ़ रूप में उभर कर सामने आई है।
खुल कर सामने आया मोदी सरकार का तानाशाहीपूर्ण चरित्र
इस विषय पर सरकारी पक्ष संवैधानिक दलीलों के बजाय राजनीतिक नारेबाज़ियों का सहारा लेता हुआ दिखाई दिया। सरकार की ओर से लगातार संघीय ढाँचे के खिलाफ केंद्रीयकृत, एकात्मक ढाँचे के पक्ष में, राष्ट्रपति में तमाम संवैधानिक शक्तियों और सार्वभौमिकता के निहित होने की तरह की तानाशाही की पैरवी करने वाली दलीलें दी जा रही थीं। इससे फिर एक बार मोदी सरकार का तानाशाहीपूर्ण चरित्र खुल कर सामने आया है।
संविधान के मूलभूत ढाँचे से जुड़ी इस प्रकार की एक धारा के बारे में कोई भी राय देने के पहले किसी के भी सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि वह भारत में किस प्रकार का राज्य चाहता है?
जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संघीय राज्य या तानाशाही, धर्माधारित और केंद्रीयकृत राज्य।
आपका यह नज़रिया ही धारा 370 के प्रति आपके रुख़ को तय करेगा।
धारा 370 में एक जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और संघीय भारत की अधिकतम संभावनाओं के सूत्र निहित है। इसे हटा कर इनकी संभावनाओं को कम किया गया है। धारा 370 भारतीय संविधान का एक master signifier है।
भारतीय राज्य विविधता का महाख्यान, बहु-जातीय आख्यानों का समुच्चय, बहु-राष्ट्रीय राज्य, अर्थात् एक आधुनिक उत्तर-आधुनिक राष्ट्र है। इसीलिए इसे बहु-देशीय उपमहादेश कहा जाता है। हमारे संविधान की भाषा में, “इंडिया, यानी भारत, राज्यों का एक संघ”। यह कोई एकात्मक, केन्द्रीकृत राज्य या तानाशाही नहीं, राज्यों का स्वैच्छिक संघ, विकेंद्रित सत्ता पर आधारित सच्चा जनतंत्र है।
इसी बुनियाद पर भारत के संविधान में सार्वभौमिकता सिर्फ़ जनता (We the people) में निहित है। राज्य के बाक़ी सारे अंगों, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का दायित्व है कि वह जनता के मूलभूत अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं, जन-जीवन में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताओं अर्थात् धर्म-निरपेक्षता और विभिन्न राज्यों के अपने विधायी अधिकारों अर्थात् राज्य के संघीय ढाँचे की रक्षा करें। कमोबेश यही भूमिका राज्य के चौथे स्तंभ पत्रकारिता से भी अपेक्षित है।
भारत में कश्मीर के विलय के साथ संविधान में जिस धारा 370 को जोड़ा गया, उसके पीछे परिस्थितियों का कोई भी दबाव क्यों न रहा हो, उसमें अन्य राज्यों की तुलना में कश्मीर की जनता को प्रकट रूप में कुछ अतिरिक्त अधिकारों की घोषणा के बावजूद वह भारतीय संविधान के संघीय, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ढाँचे से पूरी तरह से पूर्ण संगतिपूर्ण था। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि धारा 370 के ज़रिए भारत के संघीय ढाँचे के अंतर के उस तात्त्विक सच को कहीं ज्यादा व्यक्त रूप में रखा गया, जिसकी बाक़ी राज्यों के मामले में, अर्थात् सामान्यतः कोई ज़रूरत नहीं समझी गई थी।
इसमें, कश्मीर की नाज़ुक परिस्थितियों के दबाव में ही क्यों न हो, जनता के आत्म-निर्णय के उस अधिकार को प्रकट स्वीकृति दी गई थी जिसे किसी भी संघीय ढाँचे के सत्य का मर्म कहा जा सकता है।
राज्यों के आत्म-निर्णय के अधिकार को ही संघीय ढाँचे का अंतिम सच कहा जा सकता है। अर्थात् उसे हासिल करने का अर्थ है राज्यों का अपनी प्राणी सत्ता में सिमट जाना और उनके प्रमाता, संघीय ढाँचे के अंग के रूप का अंत हो जाना।
यही वजह है कि राज्यों का ‘स्वैच्छिक संघ’ विविधता में एकता का एक सबसे मज़बूत सूत्र है जिसमें हर राज्य अपनी अस्मिता से किंचित् समझौता करके ही संघ के साथ अपने को जोड़ता है।
आज़ाद भारत कुल मिला कर एक ऐसे ही आधुनिक राष्ट्र के निर्माण का प्रकल्प था जिसमें कश्मीर का विलय इसके संघीय ढाँचे के लचीलेपन की पराकाष्ठा को मद्देनज़र रख कर किया गया था।
भारत में जो तमाम कथित राष्ट्रवादी ताक़तें बिल्कुल प्रकट रूप में, हमेशा भुजाएँ फड़काने वाले मज़बूत और केन्द्रीकृत भारत की कामना करती रही हैं, कश्मीर की विशेष स्थिति उन्हें कभी मान्य नहीं थी। उन्हें कश्मीर को अलग रखना मंज़ूर था, पर उसे भारत में कोई विशेषाधिकार देना नहीं। इसीलिए इतिहास में वे कश्मीर को अलग रखने के पक्षधर महाराजा हरिसिंह के साथ खड़ी थी।
भारत के पुनर्निर्माण के इस आधुनिकता के प्रकल्प में तब उनकी जिस आवाज़ को दबा दिया गया था, वही दमित आवाज़ अब धारा 370 को ख़त्म करने की बहस के ज़रिये प्रतिहिंसा के भाव के साथ लौट कर आ रही है। यह भारत के आधुनिकता के प्रकल्प में सांप्रदायिकता और धर्म-निरपेक्षता के बीच के अन्तर्विरोधों की अभिव्यक्ति है।
सांप्रदायिक ताक़तें धारा 370 पर हमला करके भारत की एकता के ‘स्वैच्छिक संघ’ के सबसे मूलभूत सूत्र को कमजोर कर रही है और भारत में विभाजनकारी ताक़तों के लिए ज़मीन तैयार करती है।
दुर्भाग्य की बात है कि इस भारत-विरोधी मुहिम का नेतृत्व वर्तमान केंद्रीय सरकार खुद कर रही है। सुप्रीम कोर्ट को मोदी सरकार के इस भारत-विरोधी अभियान से भारत को बचाना है।
-अरुण माहेश्वरी