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डॉ अंकित जायसवाल
भाषा का अभिप्राय सवांद के लिए बोले जाने वाले प्रतीकों से है जबकि लिपि अथवा लेखन का मतलब दृश्य सम्प्रेषण (कम्युनिकेशन) से है। मानव सभ्यता में भाषा का प्रयोग लिपि के विकास के बहुत पहले से होता आ रहा है। मेसोपोटामिया में क्युनिफार्म लीपि 3400 ईपू तथा मिस्र की हयरोगलीफिक्स लिपि का विकास लगभग 3100 ईपू में हो चुका था। भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे प्राचीन हड़प्पा की लिपि है(लगभग3000 ईपू)जो अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है1 ,जबकि पढ़ी जा चुकी सबसे प्राचीन भारतीय लिपि ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि है जो कि चौथी शताब्दी ईपू की है। अभी तक हड़प्पा लिपि और ब्राह्मी अथवा खरोष्ठी लिपियों के बीच कोई सम्बंध स्थापित नहीं किया जा सका है। हड़प्पा सभ्यता के लिपियों में प्रयुक्त चिन्हों और वहाँ की खुदाई से मिले मूर्तियों को ब्राह्मण और बौद्ध धर्म के लोग अपने-अपने धर्म-प्रतीकों से समानता दिखाकर अपने धर्म को और प्राचीन दिखाने की कोशिश करते हैं लेकिन जबतक हड़प्पा लिपि पढ़ी न जा सके इस पर अंतिम रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता, हो सकता है कि हड़प्पा चिन्हों का वर्तमान धर्म के प्रतीकों से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न हो बल्कि उनकी अपनी अलग मान्यता और उपासना हो और समय के साथ उन्हीं प्रतीकों को दोनों धर्मों के लोग अपना लिए हों।
सैन्धव सभ्यता की लिपि अब तक पढ़ी न जा सकी है इसलिए हमारे इतिहास की बहुत सी महत्वपूर्ण बातें अब तक अनसुलझी हैं, इसीलिए सैन्धव सभ्यता को आद्य-ऐतिहासिक काल मे रखा गया है।
ऐतिहासिक काल में लेखन कला के साक्ष्य अशोक के अभिलेखों से शुरू होते हैं, फिर भी अब तक 2-3 ऐसे अभिलेख मिल चुके हैं जिन्हें अशोक से पहले का माना जाता है। इसमें से पिपरहवा धातु-मंजूषा लेख मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में लिखी गयी है। इस लेख में दीर्घ स्वरों के अभाव के कारण विद्वानों ने इसे अशोक के पहले का माना है।2 इसी समय के सोहगौरा(गोरखपुर) कांस्य-फलक लेख और महस्थान(बंग्लादेश) का शिला-फलक लेख हैं।
अशोक के पहले लेखन का कार्य विशेषकर भुर्जपत्रो, ताड़पत्रों, लकड़ी, वस्त्र आदि पर होता था लेकिन उपर्युक्त चीजें जल्द ही सड़-गलकर नष्ट हो जाती थीं और लेखकों को उनकी नयी प्रतिलिपियाँ बनानी पड़ती थी। अशोक ने अपने द्वितीय शिलालेख में लिखवाया है:- "चिलं-थितिका च होतूतीती" अर्थात पत्थरों पर अपने लेख इसलिए लिखवाया ताकि ये चिरस्थायी हो सकें।3
शिलालेखों पर विशेषकर राजाओं की प्रशस्तियाँ, धार्मिक-नैतिक अनुशासन, व्यावहारिक लेख आदि लिखवाये गए हैं तो वहीं लंबी-लंबी पुस्तकों और साधारण पत्रों को लिखने के लिये कोमल और लचीले भुर्जपत्रो और ताड़पत्रों का उपयोग किया गया है।
अशोक ने अपने भाब्रू(बैराट) शिलालेख में सात पुस्तकों का नाम दिया है जिन्हें भिक्षु और भिक्षुणियों को बार-बार पढ़नी और सुननी चाहिये, अवश्य ही ये पुस्तकें पांडुलिपियों पर लिखी गयी होंगी।4
भूर्ज वृक्ष का भीतरी छाल होता है जो हिमालय प्रदेशों में खूब पाये जाते हैं। वहीं ताड़पत्र मूलतः दक्षिण का पौधा है इसलिए शुरुआती ताड़पत्र दक्षिण में ही मिलते हैं, तमिल में इस ताड़पत्र या तालपत्र को "ओलई" कहा जाता है।5 ऐतिहासिक तौर पर भुर्जपत्रो का प्रथम विवरण यूनानी लेखक 'कर्टियस' ने दिया है।6 कर्टियस के अनुसार सिकन्दर के आक्रमण के समय भारतीय वृक्ष के छालों पर लिखते थे। गुप्तयुगीन रचना अमरकोश में भूर्ज को वनौषधि वर्ग में रखा गया है जबकि उसी समय कालिदास कुमारसंभव में लिखते हैं कि " जहाँ(हिमालय पर) धातुरस(गैरिकादि) के द्वारा अक्षरों के लिखने से हाथी के लाल हो जाने वाले भुर्जपत्र, विद्याधर-सुंदरियों के प्रेम-पत्रों की लेखन क्रिया द्वारा उपयोग में आते हैं। प्रारम्भिक सदी के बाद के बौद्ध साहित्य में लेखन सामग्री के रूप में भुर्जपत्रों का खूब उल्लेख मिलता है। मध्य और उत्तरी भारत के लोग तुज वृक्ष के छाल का प्रयोग भी लिखने के लिए करते थे।
कश्मीर घाटी को एक विशिष्ट पहचान नवपाषाणकालीन स्थलों बुर्जहोम और गुफ़्कराल(दोनों झेलम घाटी में, 5000 वर्ष पूर्व) से मिलती है जहाँ सीढ़ियों वाले घर(गड्ढों में) मिलें हैं। श्रीनगर से 16 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक करेवा पर "बुर्जहोम" है। जहाँ से डल झील 2 किलोमीटर पर ही स्थित है। बुर्जहोम का अर्थ है प्लेस ऑफ बर्च यानी वह स्थान जहाँ भुर्जवृक्षों की भरमार हो। इनके जले हुये अवशेष इसे नवपाषाणकाल तक ले जाते हैं। भुर्जवृक्षों से ही भुर्जपत्र तैयार होते हैं।
भूर्ज छाल पर सबसे प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक खोतान के एक मठ से मिली है, जिसपे खरोष्ठी लिपि में धम्मपद लिखा है।7 इसका काल द्वितीय या तृतीय सदी ई माना गया है। बक्शअली पांडुलिपि जो कि 1881 में मिली थी वह 70 भूर्जपत्रों से बना था। इसकी लिपि शारदा और भाषा प्राकृत गाथा है, जो चौथी सदी के समय की है। यह एकमात्र ऐसी पांडुलिपि है जिससे उस काल की गणितीय अवधारणाओं को बिना किसी हेरफेर के समझा जा सकता है क्योंकि बाद के मिले गणितीय पांडुलिपियों में प्रतिलिपि बनाते समय उनमें बहुत फेरबदल कर दिया जाता था। 1890 में एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी हैमिल्टन बावर को गोबी मरुस्थल के उत्तरी भाग में एक व्यक्ति से कुछ प्राचीन पांडुलिपियां मिलीं जो उन्हें बेचने आया था। उसे यह पांडुलिपियां नजदीक के किसी स्तूप से मिला था। यह पांडुलिपियों का एक संग्रह था जो किसी यशोमित्र भिक्षु का था, जिसके मरने के बाद उसी के साथ इन पांडुलिपियों को स्मृति-चिन्ह के तौर पर दफना दिया गया था। इन क्षतिग्रस्त पांडुलिपियों में सात निबंध थे जो कि 3 आयुर्वेद पर 2 शगुन-विचार पर और 2 साँप के काटने के झाड़-फूँक से जुड़े थे। इन पांडुलिपियों की तिथि पाँचवीं सदी के आसपास है।8
ये पुरानी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ इसलिए सुरक्षित बच गई हैं, क्योंकि ये एक सुरक्षित बॉक्स में बालू और पत्थरों के नीचे दबाकर रखे गये थे बाकी इनके समकालीन अन्य ग्रन्थ नष्ट हो गये। भारत में ही जो पांडुलिपियाँ सुरक्षित बचीं हैं वो 14वीं-15वीं सदी के बाद की हैं वो भी कश्मीर जैसे ठंडे प्रदेशों के वजह से। आजकल ये पूना, लंदन, बर्लिन आदि के संग्रहालयों में सुरक्षित कर ली गयी हैं।
ताड़पत्रों पर हस्तलिखित सबसे पुरानी पांडुलिपियाँ एक नाटक के खण्ड हैं जो कि दूसरी सदी ई. की हैं।8
काशगर से प्राप्त ताड़पत्रों पर लिखीं पांडुलिपियाँ चौथी सदी की हैं। प्रज्ञापारमिता-हृदय सूत्र और उष्णषविजयधारिणी की पांडुलिपियाँ जो मध्य भारत से जापान के होरिउजी विहार में सुरक्षित है वो छठी सदी की है। स्कन्दपुराण का एक हस्तलिखित पंडिलिपि काठमांडू के राजकीय पुस्तकालय में रखी है जो छठी सदी की है।9 बौद्ध ग्रन्थ लंकावतर की एक प्रति नेवार संवत 28 अर्थात 906-7 ई0 की है।
ताड़पत्र और भोजपत्रों की पुरानी पांडुलिपियाँ अधिकतर ठंडे और शुष्क प्रदेशों में ही पायी गयीं हैं क्योंकि पंद्रहवीं सदी के पहले का कोई भी पांडुलिपि प्रति दक्षिण भारत के गर्म और आद्र जलवायु के कारण अबतक नहीं पायी गयी है।
ग्यारहवीं सदी में अलबरूनी लिखता है कि प्राचीन यूनानियों की तरह हिंदुओं में जानवरों की खाल पर लिखने की आदत नहीं है, क्योंकि ये अपने ग्रन्थों को चमड़े पर लिखकर उसे अपवित्र नहीं करना चाहते जबकि कुरान की पुरानी पांडुलिपियाँ चिंकारा के खालों पर लिखी गयीं हैं। अलबरूनी कहता है कि हिंदुओं के देश में, दक्षिण में नारियल और खजूर जैसे पतले पेड़ मिलते हैं जिनसे खाने के लिये फल तो मिलते ही हैं साथ ही लगभग एक गज लम्बा और तीन अँगुल मोटा पत्ता भी मिलता है। इन पत्तों को जोड़कर किताबें तैयार होती हैं जिन्हें बीच से धागों में पिरोकर बांध दिया जाता है।10 इन पत्तों को ताड़ी कहते हैं जबकि ठीक इसी तरह के उपयोग के लिये उत्तरी-मध्य क्षेत्र में पाए जाने वाले छाल को तुज के पेड़ से निकाला जाता है। यह धनुष ढकने के काम भी आता है। यूनानियों की तरह हिन्दू भी बाएं से दाएँ की ओर लिखते हैं।
हर्षवर्धन के शासनकाल में विषय अर्थात जिले के आय-व्यय का लेखा रखने के लिये अक्षपटालाधिकृत नाम का अधिकारी होता था जो लेखन सामग्री के लिये अवश्य ही पांडुलिपियों का प्रयोग करता रहा होगा। इस तथ्य की पुष्टि हर्ष के बाँसखेड़ा लेख से होती है जिसे भानु नामक महाक्षपटलाधिकृत के आदेश पर लिखा गया।11
यह बात प्रचलित है कि भारत में कागज का उपयोग मुसलमानों द्वारा हुआ लेकिन इसके सर्वप्रथम निर्माण का श्रेय पहली-दूसरी सदी में चीनियों को प्राप्त है। महत्वपूर्ण है कि सिकन्दर के साथ आने वाला यूनानी लेखक निआर्कस ने लिखा है कि भारतीय कपास को कूटकर लिखने की सामग्री तैयार करते हैं। कागज पर लिखे पुराने हस्तलेख मध्य एशिया के काश्गर से मिले हैं जो पाँचवी सदी के गुप्त कुटिल लिपि में लिखा गया है। ये कागज भारतीय मूल का नहीं है।12
ब्राह्मण ग्रँथों में ग्यारहवीं सदी में कागज पर लिखे शतपथ ब्राह्मण की एक प्रति कश्मीर से मिली है। सल्तनत और मुगल शासन के दौरान भारत में सस्ते और सुंदर कागज उपलब्ध होने पर छाल और पत्तों पर लेखनकार्य कम हो गया लेकिन धार्मिक रूप से पवित्र होने के कारण आज भी धार्मिक जन्त्रों-मंत्रों को लिखने के लिये इनका प्रयोग होता है।
ऐतिहासिक तौर पर पांडुलिपियों को उनके प्राप्त दशा से अलग तरीके से पढ़ा और समझा जाता है क्योंकि अधिकाँश रचनाओं का काल उनके उपलब्ध पांडुलिपियों से अधिक पुराना होता है। पांडुलिपियों में लिखित रचनाओं का भी अपना एक अलग जीवनकाल होता है क्योंकि समय के साथ इनमें विकास और परिवर्तन देखने को मिलता है। विकास और परिवर्तन की यह प्रक्रिया सैकड़ों से हजारों वर्षों तक हो सकती है तब जाकर तो वह अपना अंतिम स्वरूप ग्रहण करती है। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य हैं। बहुत सारी प्राचीन पांडुलिपियों के कोई एक रचयिता नहीं रहे हैं बल्कि उनमें अन्य कई लेखकों का योगदान भी रहता है जो पांडुलिपियों की प्रतिलिपि बनाते समय उसमें कुछ और बातें जोड़ देते हैं।
पांडुलिपियों के विषय में यह आम बात रही है कि 50-100 साल के बाद उसकी नयी प्रतिलिपियाँ बना दी जाती थीं ताकि पुरानी पांडुलिपियाँ समय के साथ नष्ट हो जायें तब भी उनका विषय-वस्तु नयी पांडुलिपियों में सुरक्षित रहे। 100- 50 सालों में प्रतिलिपि बनाते समय इनके लिपियों और विषयवस्तु में भी अंतर आने लगता है।
पांडुलिपियों का विवरण चीनी यात्रियों ने भी किया है। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय आने वाला चीनी यात्री फाहियान ने लिखा है कि उसने भारत में 3 वर्ष संस्कृत लिखने, बोलने और यहाँ की नीति पुस्तकों की प्रतिलिपि बनाने में बिताये।
ये पुस्तक अवश्य ही पांडुलिपियों के संग्रह थे। भारत आने का उसका मुख्य उद्देश्य यही था कि वह बौद्ध धर्म और नीति के पुस्तकों को प्राप्त कर सके जो चीन में प्राप्त नहीं होते हैं। हर्ष के समय आने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि यहाँ की शिक्षा धार्मिक स्थलों और विहारों के माध्यम से दी जाती है। धार्मिक पुस्तकें लिखी हुयी हैं। ह्वेनसांग रास्ते में कुछ हानि के बावजूद चीन में अपने साथ बौद्ध ग्रन्थों की पांडुलिपियाँ ले गया, जिनका अनुवाद करने में उसका शेष जीवन व्यतीत हुआ।
पुस्तकों को तैयार होने में बहुत अधिक पांडुलिपियाँ लगती थीं। इतसिंग ने लिखा है कि अश्वघोष की बुद्धचरित को लिखने के लिये 10 पुस्तकों में विभाजन करना पड़ता था। इतसिंग ने नालन्दा में 450 संस्कृत पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं।13
चीनी यात्रियों के अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय में तीन भवनों के पुस्तकालय थे जिनके नाम हैं:- रत्नसागर, रत्नोधि और रत्नरंजक।14
नालन्दा विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम बहुत विस्तृत था। यह था तो महायान बौद्ध विहार लेकिन यहाँ हीनयान ग्रँथों के साथ ही व्याकरण, न्याय, ब्राह्मण-साहित्य और दर्शन भी पढ़ाये जाते थे। ब्राह्मण और बौद्ध दर्शन इतने परस्पर संबंधित थे कि विद्वान अनुरागियों को भी इनमें अंतर करना मुश्किल कार्य था। स्वयं बौद्ध भिक्षु और यात्रियों ने लिखा है कि वेदों, वेदांत और सांख्य दर्शन के साथ धर्मशास्त्र, पुराण और ज्योतिष का भी यहाँ अध्ययन होता था।15
बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दिया, ठीक इसी तरह के विक्रमशिला विश्वविद्यालय विहार के नष्ट करने का वर्णन तबकात-ए- नासिरी में मिन्हाजुद्दीन सिराज विस्तार से करता है कि" यहाँ के निवासी अधिकाँश ब्राह्मण(बौद्ध भिक्षुओं को भी ब्राह्मण कहता है) थे, जो सभी मुंडन कराये रखते थे। इन सबको तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया। हिंदुओं की भारी सँख्या में किताबें पड़ी थीं। इसपर जब मुसलमानों की दृष्टि पड़ी तो उन्होंने उनका अर्थ जानने के लिए कुछ हिंदुओं को बुलाया लेकिन जानकार तो मारे गए थे फिर भी कुछ सूचनाएं मिलने पर यह पता चला कि यह सारा दुर्ग और नगर तो एक विद्यापीठ थी जिसे हमने राजसी दुर्ग समझ कर नष्ट कर दिया।16
विक्रमशिला के महास्थविर शाक्य श्रीभद्र अपने कुछ साथियों के साथ कुछ पांडुलिपियाँ लेकर पहले ही जान बचाकर तिब्बत की ओर भाग चुके थे। इस तरह पांडुलिपियों के इन भंडारगृहों का दुखद अंत हो गया।
संदर्भ ग्रन्थ सूची:-
1.सिंह उपिंदर, प्राचीन एवं पूर्वमध्यकालीन भारत का इतिहास, पृ.5
2.डॉ परमेश्वरी लाल गुप्त, प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख भाग 1, पृ.1
3.पांडेय राजबली, भारतीय पुरलिपि, पृ.68
4.अशोक का भाब्रू(बैराट) शिलालेख की पाँचवीं पंक्ति
5.सिंह उपिंदर, उपरोक्त, पृ.14
6.पांडेय राजबली, उपरोक्त, पृ.60
7.ओझा गौरीशंकर हीराचंद, भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ.144
8.सिंह उपिंदर, उपरोक्त, पृ.583
9.डॉ लुडर्स द्वारा प्रकाशित क्लिमर संस्कृत टेक्स्ट्स, भाग 1
10.अलबरूनी का भारत(अनुवादक रजनीकांत शर्मा), पृ.132
11.हर्ष का बाँसखेड़ा लेख, पांडेय विमल चन्द्र, प्राचीन भारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास,पृ.209
12.पांडेय राजबली, उपरोक्त, पृ.64
13.पांडेय विमल चन्द्र,उपरोक्त, पृ.214
14. अलतेकर अनंत सदाशिव, प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्वति, पृ.90
15.वही, पृ. 91
16. देखिये, तबकात-ए-नासिरी।