अमृता प्रीतम और इमरोज
उस बरस, उस महीने में, जब अमृता जी से मिलने गई (यह तो जानती थी कि वह अस्वस्थ हैं) तो ‘के-२५’ का खुला द्वार, पगडंडी उदास थे...खुले आँगन में काँचघर बन गया था। पौधे, फूल, तुलसी हल्की धूल चढ़े, नाराज़ से लगे! रंग- बिरंगी चिड़िया उनके घर के बीच के आँगन में बने अपने घरौंदों में नहीं थीं। पानी और तश्तरियों में दाने खोए से खाए जाने की आस में एक-दूसरे के सहारे प्रतीक्षारत् थे जैसे।
दृष्टि और मन गड्ड-मड्ड हो रहे थे कि लम्बे इकहरे बढ़े खिचड़ी बाल, बिना शेव किए, माथे पर तेज़, सफ़ेद कुर्ता-पजामा उन ही की तरह बिना देखभाल के अभाव को झेलता लगा...लम्बे क़दम बढ़ाते सामने खड़े व्यक्ति इमरोज होने का पता दे रहे थे...चेहरे पर प्रेम का नूर भी था और ग़रूर भी था पर सरूर...क़दम चौकस प्रहरी से थे...उन्होंने हमें काँचघर की ओर मोड़ लिया और कोई अनसुना अपरिचित नाम लेते हुए उसे पानी चाय लाने के लिए कह, दरवाजा खोल हमें भीतर लेते हुए बैठाने के लिए कमरे में निगाह डाल रहे थे कि हमने स्वयं ही कुर्सियाँ उठा,साफ़ कर बैठ गए!
इमरोज जी की निगाह हमारी निगाह के साथ फिर रही थीं और फिर समय पर ठहर रही थीं...
मैं बदलाव देख रही थी समय पर व्यक्तित्व का और व्यक्तित्व पर समय का। चश्मा लगा उन्होंने अपने पनीली आँखों को ओट दे दी। हमने में बातों के भँवर का रुख़ मोड़ने की कोशिश की ...पानी पिया, चाय का कप...स्मरण हो आया वह समय ...इमरोज जी को उत्साहित हो स्वयं बनाकर परोसते देखा है और अमृता जी को नज़र उठा नज़रों से बरजते भी...!
चाय पीने की भीतर से क़तई चाह नहीं थी, हमने कप हाथ में ले पूरे काँचघर को एक सिरे से देखना और फ़ोटो लेना शुरू किया... इमरोज जी चित्रों की कहानी बताते जा रहे थे उमगती उदासियों के बीच। और हमारा मन तिडक रहा था ...पूरा कमरा धूल, जालों लगा और अनहोनी की उदासी की गंध समाए हुए ये कैसी दास्ताँ का गवाह बन रहा है !
बेचैनी और बढ़ी ...हमने आदरणीय से अमृता जी के पास ले चलने का आग्रह किया। जिसे उन्होंने तत्काल अस्वीकार कर दिया यह कहते कि जिसे आपने जिस रूप में देखा है उसी रूप में मन में रखिए ...अब हम दो ही उसके पास रहते हैं उसकी देखभाल के लिए,मैं और बहू...। अब आपको भेजकर मैंने उसे खाना (खाने के नाम पर सूपादि) खिलाना है। हम पल भर भी अकेला नहीं छोड़ते।
सुनकर कुछ कहना बचा नहीं था...हमारी फीकी हँसी में उदासी पैबस्त हो गई थी। घर सा घर था सब कुछ था पर उस सब में सब कुछ अनुपस्थित...वह अमृतमयी उपस्थिति ...जिससे यह घर था, वह घट होने की ओर है ...हम तरल से बिना उनके स्वर सुने, बिना उनसे स्नेहदर्शन लिए बोझिल पाँवों को मन के साथ ढोते हुए बाहर की राह ली और इमरोज जी ने अमृता जी की !
क़दमों से कई गुना बढ़ रही थी अमृता जी की स्मृतियाँ पलकें भीगी, दरकता अन्तर सब गड्ड-मड्ड...।
उसी माह, उसी सप्ताह में ...दिवाली के दिन अमृता जी के न रहने का समाचार मिला। घाट पर केवल उनका परिवार ही था क्यों कि उन्होंने मना कर दिया बताया था।
निशा निशान्त
दिसम्बर,२०१८