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प्रयागराज में चली पिस्तौल किसके हाथ में थी?
15 अप्रैल की रात करीब साढ़े दस बजे जिसे इन दिनों प्रयागराज कहा जाता है उस इलाहाबाद में तड़- तड़ चली गोलियों की गूँज सहज ही मंद पड़ने वाली नहीं है। इसलिए नहीं कि ये 22 सेकंड्स तक चली गोलियां लाइव वीडियो में दर्ज हो चुकी है और अनेक डिजिटल माध्यमों से बार बार देखी और दिखाई, सुनी और सुनवाई जा रही हें - बल्कि इसलिए कि ये गोलियां सिर्फ पुलिस हिरासत में मेडिकल जांच के लिए ले जाए जा रहे किसी अतीक या किसी अशरफ की देह में से गुजरी या पोस्टमार्टम के बाद निकली 8 या 5 गोलियां नहीं हैं; इनकी पहुँच पॉइंट ब्लेंक से आगे बहुत दूर कहीं और है, इनके निशाने पर जिन्हें मारा गया वे ही नहीं कुछ और है।
15 अप्रैल को मोतीलाल नेहरू चिकित्सालय के बाहर जो हुआ या जो और जिस तरह करवाया गया उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रात में बेवक्त अतीक - अशरफ को चिकित्सीय जांच के लिए लाया जाना, गाडी को दूर बाहर ही छोड़कर उन्हें खुले में पैदल ही ले जाना, वहां कथित मीडिया का पहले से ही तैनात मिलना, हत्या के बाद हत्यारों द्वारा कथित आत्मसमर्पण के बाद जै श्रीराम के नारे लगाना, हत्या के फ़ौरन बाद से नफरती ब्रिगेड का उन्माद भड़काने के काम में धुआंधार तरीके से जुट जाना आदि-आदि जैसी अब तक ही आयी जानकारियों से साफ़ हो जाता है कि मामला सिर्फ वैसा या उतना नहीं है जैसा और जितना दिखाया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों सहित अनेक व्यक्तियों और संगठनों ने इन सवालों के अलावा इस हत्याकाण्ड में पुलिस के मूकदर्शक या सहयोगी तक बने रहने, अत्यंत मामूली आर्थिक पृष्ठभूमि वाले हत्यारे युवकों द्वारा महंगी, भारत में प्रतिबंधित अत्याधुनिक पिस्तोलों के इस्तेमाल सहित अनेक दूसरे जायज सवाल भी उठाये हैं। आने वाले दिनों में इस काण्ड के और भी कई पहलू सामने आना तय है।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस हत्याकांड सहित यूपी में हुयी कथित पुलिस मुठभेड़ मौतों की सर्वोच्च न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में समिति बनाकर जांच कराने के लिए एक याचिका भी दायर की जा चुकी है।
यहाँ सवाल यह नहीं है कि मरने वाले अपराधी थे या मारने वाले संत हैं। यहाँ चिंता यह है कि यह काण्ड सभ्य समाज की उस बुनियाद को ही ध्वस्त कर देने की ताज़ी, सुविचारित, सुनियोजित कोशिश है, एक ऐसी साजिश है जो अपराधी और संत दोनों के लिए एक समान क़ानून के राज की जमीन पर खड़ी है।
संविधान के सुसंगत ढाँचे के तिरस्कार का यह विचलन - जिसके एक प्रचलन बन जाने की अपार आशंकाएं हैं - एक ऐसी रपटीली फिसलन है जो देश और समाज दोनों को ऐसी गर्त में ले जायेगी जिसका अनुमान लगाना ही सिहरन पैदा कर देता है।
उत्तर प्रदेश पुलिस का दावा है कि 6 वर्ष के योगी राज में उसने मार्च 2023 तक 10,713 मुठभेड़ों में 5,967 अपराधियों को पकड़ा है, 1,708 को घायल किया है और 183 को "मार गिराया" है।
अतीक के बेटे की मुठभेड़ में हुई कथित मौत और उसके बाद खुद अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या भी इसी तरह का आंकड़ा है ? नहीं । यह इस एनकाउंटर राज से आगे का चरण है - यह पुलिस हिरासत में हत्या करवा देना है। यह मुठभेड़ हत्याओं की आउटसोर्सिंग नहीं है - यह सता पार्टी की राजनीति से नियंत्रित पुलिस और पिस्तौलों के अलावा उसकी विचारधारा से भी लैस गुंडों और अपराधियों का फ्यूजन है - एक दूसरे में विलीन होकर समाहित हो जाना है।
यह नयी कार्यनीति है - एक ऐसी कार्यनीति जो अब तक जिन्हें भीड़ हत्याएं कहा जाता रहा है उन्हें बाकायदा सांस्थानिक काम का दर्जा देती है। इसके साथ साथ यह फासिस्टों का शास्त्रीय - कॉपीबुक - अनुकरण है। एक समुदाय विशेष के बड़े और प्रभावशाली व्यक्तियों को खुले आम निबटाकर और बाद में उसके समुदाय विशेष का होने को प्रमुखता से उछालकर पूरे समुदाय को भय और आतंक में डुबो देने की कार्यनीति है। इस हत्याकाण्ड के बाद चली मुहिम से यह बात साफ़ हो जाती है। अब तक इस कार्यनीति को दूसरी तरह आजमाया जाता था। निशाने पर लिए गए समुदायों - यहाँ अभी तक ईसाई और मुसलमानों - पर खुलेआम हिंसा और अपराध करने वालों को सजा से बचाना, उन्हें गौरवान्वित करना, उन्हें नायक बनाना, हिन्दू-ह्रदय सम्राट बताना आदि-आदि की तरतीबें निकाली जाती थीं।
ग्राहम स्टेंस और उनके मासूम बच्चों के हत्यारे दारा सिंह से लेकर, शम्भूदयाल रैगरों से होते हुए बिलकिस बानो प्रकरण के बलात्कारी नरसंहारी जैसे इसके उदाहरण अब अनगिनत हो गए हैं। यह नयी कार्यनीति अब आँखों की दिखावटी लाज शरम को छोड़ सीधे सीधे सामने आकर निबटाने का रूप धर रही है। वैसे यह नयी नहीं है - अहमदाबाद के अब्दुल लतीफ़ नाम के एक छोटे गैंगस्टर - बड़े कारोबारी के साथ इसे 90 के दशक में तब आजमाया जा चुका है, जब उसने अपनी राजनीतिक शक्ति इतनी बढ़ा ली कि नगर निगम के 12 वार्ड्स तक जीत लिए। शाहरुख खान की 2017 की फिल्म रईस इसी के जीवन पर आधारित थी। मगर इलाहाबाद में जो करवाया गया और उसके बाद उसे जिस तरह बतलाया गया वह फिल्मी पटकथा नहीं है। यह वैसा है जैसे के बारे में बिलकिस बानो केस में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है ; "आज बिलकिस है, कल कोई भी हो सकता है।" जिस जज ने यह टिप्पणी की उन्होंने तो "हम और आप भी हो सकते हैं" भी कहा है - यह अतिशयोक्ति नहीं है। लोया कर दिए जाने का मुहावरा जस्टिस लोया को लेकर ही बना है।
अतीक मामले में दोषी तो मीडिया भी है
अतीक के मामले को लेकर जिस तरह से गा-बजाकर माहौल बनाया गया उससे भी यह रणनीति उजागर हो जाती है। उसे मुकदमे की सुनवाई की तारीखों पर लाने के लिए गुजरात से झांसी तक का सड़क मार्ग चुनकर उनकी शोभायात्रा निकालना, रास्ते भर उसके पीछे मीडिया के वाहनों का चलना, चौबीसों घंटा सातों दिन चलने वाले चैनलों द्वारा "अब वाहन पलटेगा या तब वाहन पलटेगा" "अब एनकाउंटर होगा या तब होगा" का शोर मचाकर जिस तरह का माहौल गया वह इस तरह के काण्ड को स्वीकार्य बनाने की तैयारी का हिस्सा था। गोदी मीडिया ने अपनी इस कारगुजारी से खुद का मान कहाँ पहुंचाया इसे जाने दें, अलबत्ता हिंदी शब्दकोश में एक नए शब्द "मूत्रकारिता" का इजाफा जरूर किया। योगी के "मिट्टी में मिला देने" के ऐलान के लिए वातावरण बनाया।
In whose hand was the pistol fired in Prayagraj?
क्या यह अपराध और अपराधी से घृणा और नफरत का नतीजा है ? इस भ्रम को तो इसका चुनिन्दापन - सेलेक्टिवनैस - ही दूर कर देता है। इस काण्ड के पहले से ही सोशल मीडिया में ऐसे भाजपा नेताओं की परिचयावली मय उनकी जन्म कुंडली के वायरल हो रही है, जिनके कारनामों के रिकॉर्ड अतीक के मुकदमों और अपराधों से कम नहीं है। इनमें भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह जैसे सज्जन भी शामिल हैं जिनके जघन्य दुराचरण के खिलाफ अभी हाल ही में भारत की महिला कुश्ती टीम की वे युवतियां धरने पर बैठी थीं जिन्होंने न जाने कितने विश्व मुकाबले जीते हैं। उनकी गिरफ्तारी तो बहुत दूर की बात है - जिस पद पर वे विराजमान हैं उस पद से भी नहीं हटाया गया। यह फासिस्टी मुहिम धर्म-सापेक्ष नहीं होती, यह बर्बरता सिर्फ बाहर नहीं रहती - यह घर में क्या कहर बरपाती है इसे भाजपा के मंत्री रहे, गुजरात के बड़े नेता हरेन पांड्या की विधवा पत्नी के शपथ पत्रों में पढ़ा जा सकता है।
इसकी व्याप्ति बहुत भयानक तेजी से बढ़ रही है। यह समूची जनता को हत्यारा भले न बना पाई हो मगर उसे हत्याओं और पाशविक हिंसा में सुख लेने की सांघातिक बीमारी का शिकार जरूर बना रही है।
वैसे तो भाजपा-आरएसएस और उनका कुनबा धीमी तीव्रता के साथ यह काम लगातार जारी रखता रहा है - मगर इस बार रामनवमी से यह कुछ ज्यादा तेजी के साथ किया जा रहा है। 15 अप्रैल के काण्ड में जिनसे कराया गया वे अभी-अभी किशोरावस्था से बाहर आये बेरोजगारी के शिकार वे युवा हैं जिन्हें इंसान बनने के मौके नहीं मिले - जो नशेड़ी, अपराधी, अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने वाले बलात्कारी और लम्पट बन गए। जिन्होंने उन्हें ऐसा बनाया अब वे ही उनका इस्तेमाल अपनी बन्दूक के कारतूस की तरह कर रहे हैं। मगर अब यह व्याप्ति लम्पटों से आगे जा चुकी है। मध्य प्रदेश के एक स्कूल में 10-11 वर्ष के बच्चे अपनी ही क्लास में पढ़ने वाले एक मुस्लिम छात्र को अलग ले जाकर उसके साथ जिस तरह का हिंसक बर्ताब करते हैं, नोएडा के स्कूल में तीसरी चौथी क्लास में पढ़ने वाली एक मासूम बच्ची अपने ही जैसी मासूम एक बच्ची के साथ उसके धर्म के बारे में जानने के बाद उसके साथ जो स्तब्धकारी व्यवहार करती है वह अत्यंत चिंताजनक है। जाहिर है इस बच्ची के अभिभावक खुद जहर खुरान बन चुके हैं।
दिल्ली में मेट्रो में मुस्लिम समुदाय के परिवार को देख जैश्रीराम के नारे लगाते शोहदे सिर्फ गुमराह युवा नहीं हैं; वे नफरती जहर में बींधे जा चुके ऐसे तीर बनते जा रहे हैं जिनका निशाना कोई भी हो सकता है। खंडवा के गाँव में घटी घटना बता चुकी है कि कोई भी का मतलब कोई भी, यहाँ तक कि भाई बहन भी हो सकते हैं। बाहर से आये भाई के साथ अपने घर में बैठकर बात कर रही बहन को उसके भाई के साथ खींच कर पीटा गया, एक पेड़ से बांध दिया गया। महिला के पति द्वारा फोन पर यह बताने के बाद भी कि वे भाई बहन है, तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक कि पुलिस नहीं आ गयी।
प्रयागराज में चली पिस्तौल किसके हाथ में थी सिर्फ इतना जानने से खतरे का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके असली सूत्रधार कौन हैं, उनका मकसद क्या है इसे समझने के लिए इस हत्याकांड के बाद उत्तर प्रदेश के मंत्रियों, संघी आईटी सैलों और भाजपा नेताओं के "योगी जी ने जो कहा सो किया" के श्रृगाल गान को देखना होगा। दिखावे का भी पश्चाताप या कुछ गलत हुआ का भाव नहीं है। यूपी की क़ानून व्यवस्था को देश की सबसे बेहतर बताने की थेथरई खुद मुख्यमंत्री योगी कर रहे हैं।
यह जिसके गुण्डे, जिसकी लाठी, जिसकी पुलिस से आगे की बात है। क़ानून का राज खत्म होगा तो सिर्फ एक या दो समुदायों के लिए नहीं सभी के लिए खत्म होगा। दलित, आदिवासी, गरीब, मजदूर, महिलायें और लोकतंत्र तथा समानता के हिमायती भी निशाने पर होंगे। यह सचमुच में अँधेरे के आमद की विस्फोटक घोषणा है। इसलिए खुद भले जुगनू ही बनकर रोशनी करनी पड़े - इस अँधेरे के खिलाफ उजाला करना होगा। कौन करेगा का इन्तजार छोड़कर; "जुगनुओं का साथ लेकर रात रोशन कीजिये/ रास्ता सूरज का देखा तो सुबह हो जायेगी।" का रास्ता चुनना होगा।
बादल सरोज
सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा