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कश्मीर समस्या और अमेरिका में लोकतंत्र

Kashmir Problem and Democracy in America. अमेरिका और ब्रिटेन न कश्मीर के प्रश्न पर भारत का साथ न देकर पाकिस्तान का साथ दिया।  क्या India और USA के DNA में लोकतंत्र है?

Kashmir problem and America

क्या India और USA के DNA में लोकतंत्र है?

क्या India और USA के DNA में लोकतंत्र है?

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Kashmir problem and democracy in America

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सफल अमरीका यात्रा (PM Shri Narendra Modi on his successful US visit) के दौरान बार-बार यह कहा कि भारत और अमरीका की रगों में डेमोक्रेसी का डीएनए है। यह आज सत्य है या नहीं कहा नहीं जा सकता।  परंतु एक समय ऐसा था जब यह सच नहीं था। भारत के आजाद होने के बाद अमरीका ने भारत में प्रजातंत्र को मजबूत करने के लिए किसी प्रकार की मदद नहीं की। इसके विपरीत उसने पाकिस्तान की हर संभव मदद की। इसके बाद भी पाकिस्तान प्रायः तानशाही शासन के अंतर्गत रहा। 

अमरीका ने पाकिस्तान को सैन्य सहायता दी। उसे सीटो का सदस्य बनाया। कश्मीर के मामले में उसने पूरी तरह पाकिस्तान का साथ दिया। चूंकि अमरीका ने पाकिस्तान को सैन्य सहायता दी इसलिए हमें भी अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा हथियारों पर खर्च करना पड़ा।

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कश्मीर समस्या को अमरीका और ब्रिटेन ने उलझाया

जहां तक कश्मीर का सवाल है, यदि अमरीका और उसका सहयोगी देश ब्रिटेन कश्मीर में मामले में हमारी सहायता भले ही नहीं करते कम से कम तटस्थ रहते तो भी कश्मीर समस्या का हल निकल आता।

नेहरू जी के सुझाव पर माउंटबेटन लाहौर गए और वहां उन्होंने जिन्ना से मुलाकात की। जिन्ना ने सुझाव दिया कि दोनों देशों की सेनाओं को कश्मीर से हट जाना चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने पूछा कि आक्रमणकारी पठानों को वहां से कैसे हटाया जाएगा। इसपर जिन्ना ने कहा कि यदि आप उन्हें हटाएंगे तो समझो कि अब किसी भी प्रकार की बात नहीं होगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के विभाजन के पहले जिन्ना कश्मीर गए थे। वहां उन्होंने यह कोशिश की थी कि कश्मीर के मुसलमान उनका साथ दें। परंतु कश्मीर के मुसलमानों ने स्पष्ट कर दिया कि वे भारत के आजादी के आंदोलन के साथ हैं तथा  द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के विरोधी हैं।

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लाहौर से वापस आने पर माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया जाए। 1 जनवरी 1948 को सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद को सौंप दिया गया। जैसे ही मामला सुरक्षा परिषद को सौंपा गया ब्रिटेन ने भारत के विरूद्ध बोलना प्रारंभ कर दिया। इस बीच ब्रिटेन व अमेरिका ने भारत की हमले की शिकायत को भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का रूप दे दिया। सुरक्षा परिषद की बैठक में ब्रिटेन ने भारत की तीव्र शब्दों में निंदा की। इस बीच ब्रिटेन ने भारत पर युद्धविराम का प्रस्ताव मंजूर करने का दबाव बनाया। ऐसा उस समय किया गया जब भारतीय सेना आक्रमणकारियों को पूरी तरह से खदेड़ने की स्थिति में थी। परंतु ब्रिटेन व अमेरिका जानते थे कि यदि भारत ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया तो कश्मीर की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी। इसलिए उन्होंने जबरदस्त दबाव बनाकर युद्धविराम करवा दिया। 

युद्धविराम का परिणाम क्या हुआ

युद्धविराम का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में बना रहा। इस बीच जनमत संग्रह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। परंतु उसके साथ यह शर्त रखी गई कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा लेगा। इसके साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि पाकिस्तान उन कबीलाईयों और पाकिस्तान के उन नागरिकों को वहां से हटाने का प्रयास करेगा जो वहां पाकिस्तान की ओर से युद्ध कर रहे थे। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया परंतु ब्रिटेन व अमेरिका ने पाकिस्तान पर इसपर अमल करने के लिए दबाव नहीं बनाया। इसका कारण यह था कि ये दोनों देश जानते थे कि यदि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर से अपनी फौज हटा ली जाएगी तो वहां होने वाले जनमत संग्रह के नतीजे भारत के पक्ष में होंगे। जब यह स्पष्ट हो गया कि जनमत संग्रह के माध्यम से ब्रिटेन व अमेरिका कश्मीर पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना दबदबा नहीं रख पाएंगे तो उन्होंने एक नई चाल चली। दोनों देशों ने सुझाव दिया कि कश्मीर के मामले का हल मध्यस्थता के माध्यम से निकाला जाए। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन ने औपचारिक प्रस्ताव भेजा। दोनों देशों ने नेहरूजी पर इतना दबाव बनाया कि उन्हें सार्वजनिक रूप से अपनी असहमति जाहिर करनी पड़ी। 

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पं. नेहरू ने यह आरोप लगाया कि ये दोनों देश समस्या को सुलझाना नहीं चाहते बल्कि अपने कुछ छिपे इरादों को पूरा करना चाहते हैं। बाद में यह भी पता लगा कि मध्यस्थता के माध्यम से ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर में विदेशी सेना भेजना चाहते थे। इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सोवियत संघ ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना आवश्यक समझा। 

सन् 1952 के प्रारंभ में सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए सोवियत संघ के प्रतिनिधि याकोव मौलिक ने कहा कि पिछले चार वर्षों से कश्मीर की समस्या इसलिए हल नहीं हो पा रही है क्योंकि ब्रिटेन व अमेरिका अपने साम्राज्यवादी इरादों को पूरा करने के लिए कश्मीर को अपने कब्जे में रखना चाहते हैं, इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से ऐसे प्रस्ताव रख रहे हैं जिनसे कश्मीर इनका फौजी अड्डा बन जाए। इसके बाद सोवियत संघ ने ब्रिटेन और  अमेरिका के उन प्रस्तावों को वीटो का उपयोग करते हुए निरस्त करवा दिया जिनके माध्यम से ये दोनों देश कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे।

सन् 1957 में पुनः सुरक्षा परिषद में कश्मीर के प्रश्न पर एक लंबी बहस हुई। बहस में भाग लेते हुए सोवियत प्रतिनिधि ए ए सोवोलेव ने दावा किया कि कश्मीर की समस्या (Kashmir problem) बहुत पहले अंतिम रूप से हल हो चुकी है। समस्या का हल वहां की जनता ने निकाल लिया है और तय कर लिया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।

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 इस बीच अनेक ऐसे मौके आए जब जवाहरलाल नेहरू ने कड़े शब्दों में ब्रिटेन व अमेरिका की निंदा की। 

इस दरम्यान अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी भरकम सैन्य सहायता देना प्रारंभ कर दिया। नेहरू ने बार-बार कहा कि वे किसी हालत में इन साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में नहीं आएंगे न अगले वर्ष और ना ही भविष्य में कभी।

इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसकी कल्पना कम से कम जवाहरलाल नेहरू ने नहीं की थी। 

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वर्ष 1962 के अक्टूबर में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। चीनी हमले के बाद अमेरिका व ब्रिटेन ने भारत को नाम मात्र. की ही सहायता दी और वह भी इस शर्त के साथ कि भारत कश्मीर समस्या हल कर ले। 

अमेरिका के सवेरोल हैरीमेन और ब्रिटेन के डनकन सेन्डर्स दिल्ली आए। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने चीनी हमले की चर्चा कम की और कश्मीर की ज्यादा। 

भारत की मुसीबत का लाभ उठाते हुए अमेरिका ने मांग की कि भारत में वाइस ऑफ अमेरिका का ट्रांसमीटर स्थापित करने की अनुमति दी जाए और सोवियत संघ से की गई संधि को तोड़ दिया जाए।

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कुल मिलाकर अमेरिका और ब्रिटेन न कश्मीर के प्रश्न पर भारत का साथ न देकर पाकिस्तान का साथ दिया। 

अमेरिका व ब्रिटेन प्रजातांत्रिक देश हैं परंतु अपने संकुचित स्वार्थों की खातिर इन दोनों देशों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का साथ न देकर एक तानाशाही देश का साथ दिया। यदि ये दोनों देश भारत का साथ देते तो कश्मीर की समस्या कब की हल हो गई होती।  

नेहरू जी के इस दृढ़ रवैये की चर्चा श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्य सभा में नेहरूजी को श्रद्धांजलि देते हुए की थी। वाजपेयी ने कहा ‘‘मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर ज़रूरत पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। किसी के दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे।‘‘

न सिर्फ कश्मीर के प्रश्न पर, बल्कि बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान भी अमरीका ने पाकिस्तान की सहायता की। इतिहास गवाह है कि अमरीका ने अपनी नौसेना का सातवां बेड़ा रवाना किया था। कुल मिलाकर यदि अमरीका पाकिस्तान की सहायता नहीं करता तो हमें हथियारों पर जो रकम व्यय करना पड़ी उसका उपयोग हम अपने देश की गरीबी दूर करने के लिए कर पाते।   

एल एस हरदेनिया (LS Herdenia)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 

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