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Know why RSS's Hindutva is against Hinduism: Karpatriji Maharaj in protest of RSS
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का यह दावा है कि वे हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व को मानने वाले हैं और अहर्निश उसका प्रचार भी करते रहते हैं। हक़ीक़त यह नहीं है। संघ की विचारधारा का हिन्दू धर्म और सनातन हिन्दू धर्म की परंपराओं और उनके विचारों से तीन-तेरह का संबंध है। इस पहलू की ओर बहुत पहले स्वामी करपात्री जी महाराज ने विस्तार से लिखकर ध्यान खींचा है। स्वामी करपात्री जी महाराज के विचारों का हिन्दू धर्म, वैदिकधर्म और शास्त्रों की परंपरा से गहरा संबंध है। वे संघ की विचारधारा की आलोचना करते हुए अपने विचारों को हिन्दू धर्म संबंधी मान्यताओं और शास्त्रों के साथ उसके समन्वय तक सीमित रखते हैं।
उल्लेखनीय है करपात्रीजी महाराज ने लोकतंत्र में शिरकत की और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उनका विश्वास था। उसके विपरीत आरएसएस ने न तो लोकतंत्र में शिरकत की और नहीं उनका लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास है। लेकिन लोकतंत्र के फल जरूर खाए।
करपात्री जी ने ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू धर्म’ (नवम्बर 1970, तुलसी मन्दिर, तुलसीघाट (भदैनी) वाराणसी) नामक पुस्तक में विस्तार के साथ आर.एस.एस. के हिंदू धर्म के प्रौपेगैंडा की पोल खोली है।
हिन्दू धर्म और आरएसएस के हिन्दू धर्म में अंतर
करपात्रीजी ने संघ के हिन्दुत्व को शास्त्रविहीन कुतर्क के रूप में रेखांकित किया है।
आर.एस.एस. प्रमुख माधव सदाशिव गोलवरकर की चर्चित पुस्तक ‘विचार नवनीत’ के तर्कों की हिन्दू परंपरा और शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर आलोचना लिखी। करपात्रीजी ने माधव सदाशिव गोलवलकर सरसंघचालक आर.एस.एस. द्वारा लिखी किताब ‘नवनीत विचार’ के बारे में व्यक्त विचारों का खंडन करते हुए अनेक प्रश्न उठाए हैं और लिखा है हिन्दू धर्म में ‘प्रमाण’ का महत्व है, जबकि आरएसएस के हिन्दू धर्म में प्रमाण का कोई महत्व नहीं है।
इसी तरह संघ की धारणा है भारत में जो जन्मा है वह हिन्दू है, इस धारणा को करपात्री जी ने प्रमाणों के साथ अस्वीकार किया है। उनका मानना है ‘जन्मना हिन्दू’ की धारणा बहुत ही ख़तरनाक और हिन्दू विरोधी है। इसी तरह भगवा ध्वजा को लेकर भी सवाल खड़े किए हैं।
करपात्री जी ने आरंभ में सबसे महत्वपूर्ण बात लिखी है। उन्होंने लिखा, ‘प्रमेय की सिद्धि प्रमाण पर निर्भर होती है। प्रमाणशून्य विचारवान, सिद्धांत सब अप्रामाणिक, भ्रान्त,विनश्वर अथ च हेय समझे जाते हैं।’ ( पृ. 1) आशय यह कि किसी भी विचार या विचारधारा के प्रतिपादन के लिए प्रमाण पेश किए जाने चाहिए। इस नज़रिए को आधार बनाकर करपात्री जी ने गोलवलकर के विचारों की तीखी आलोचना पेश की है।
‘विचार नवनीत’ में माधव सदाशिव गोलवलकर ने लिखा, ’हमारी सांस्कृतिक परम्परा का दूसरा विशिष्ट पहलू यह है कि हमने किसी भी ग्रंथ को अपने धर्म और संस्कृति की एकमेव सर्वोच्च सत्ता नहीं माना है।… संघ ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए किसी एक पुस्तक को अधिकृत रुप से न स्वीकृत किया है और न तैयार किया है।’
गोलवलकर के उपरोक्त कथन के व्यापक निहितार्थ हैं। उनका यह कहना कि संघ ने किसी एक पुस्तक को अधिकृत रुप से स्वीकृत नहीं किया है। सवाल उठता है आरएसएस, भारत के संविधान और भारतीय दंड संहिता को मानता है या नहीं ? वैदिक शास्त्रों को मानते हैं या नहीं ?
करपात्री जी ने इस प्रसंग में लिखा ‘हर एक राष्ट्र एवं जाति को अपने धर्म, संस्कृति, सभ्यता एवं राष्ट्रीयता का आधार कोई न कोई ग्रन्थ (पुस्तक) मानना ही पड़ता है। हाँ, आप एक पुस्तक का प्रामाण्य न मानें, अनेक पुस्तकों का प्रामाण्य न मानें, अनेक पुस्तकों का प्रामाण्य मानें, पर कम से कम एक ग्रंथ को प्रामाण्य मानना ही पड़ेगा।’
करपात्री जी ने आगे लिखा ‘वस्तुतः आप लोग एक नहीं वेद से लेकर रामचरित मानस तक सैकड़ों पुस्तकों को प्रमाण मानते हैं। परन्तु, उससे बँधते नहीं हैं। किसी पुस्तक में आप लोगों के अनुकूल जो वचन हैं, उन्हें मान लेंगे, आपके मन्तव्यों, व्यवहारों के विरुद्ध जो वचन होंगे उन्हें आप बेखटके ठुकरा देंगे, पर यह अर्ध- कुक्कुटी - न्याय है। जैसे कोई मुर्ग़ी के आधे अंश को खाना चाहे, आधे को अण्डा देने के लिए रखना चाहे।विचार-विनिमय के लिए आवश्यक है कि जिस प्रमाण को माना जाय उसे संपूर्ण रूप से माना जाय।’
आगे लिखा, ‘जो शास्त्र-विधि को छोड़कर मनमाना काम करता है वह सिद्धि, सुख, परागति कुछ भी नहीं पाता।… मनु की खूब प्रशंसा करेंगे, मनु के वचनों का अपने मन्तव्य सिद्धि के लिए खूब प्रयोग करेंगे। परन्तु जब मनु का ही “धर्म जिज्ञाससमानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।” धर्म जिज्ञासुओं के लिए श्रुति परम प्रमाण है, यह वचन आपके समक्ष रखा जायगा तब आप उसे ही अस्वीकार कर देंगे।’
इस प्रसंग में करपात्री जी महाराज ने इस बात पर ख़ास ज़ोर दिया कि जिन ग्रंथों से संघ के लोग उदाहरण देते हैं उन ग्रंथों को मानते क्यों नहीं। यदि वे ग्रंथों को मानते ही नहीं हैं तो उनके ग्रंथों द्वारा उद्धृत प्रमाणों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह तो शास्त्रहीनता है। यह शास्त्रहीनता संघ के प्रचार अभियान की धुरी है। वे प्रत्येक अवधारणा में शास्त्रहीनता का इस्तेमाल करते हैं। वे किसी भी बात को अवधारणा और प्रमाणों के साथ पेश नहीं करते, बल्कि ऊलजुलूल तर्कों के साथ पेश करते हैं। मसलन्, संघ द्वारा प्रचारित राष्ट्रीयता की धारणा को ही लें। गोलवलकर ने लिखा है ‘प्रेरणा का वास्तविक एवं चिरकालिक स्रोत राष्ट्रीयता की शुद्ध भावना से ही प्राप्त किया जा सकता है।’ इस पर करपात्रीजी ने तीखा प्रहार करते लिखा ‘शास्त्रादि प्रमाणशून्य भावना सिवा भ्रान्ति के और कुछ भी नहीं।’
अपने तर्क को आगे विकसित करते हुए करपात्री जी ने लिखा ‘शालिग्राम में विष्णु बुद्धि नर्मदेश्वर में शिव बुद्धि का आधार शास्त्र ही हैं। शास्त्र के बिना प्रतीकोपासना बन ही नहीं सकती। प्रभा या यथार्थ ज्ञान प्रमाण से ही होता है। प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि हो सकते ही हो सकते हैं। भक्ति या भावना स्वतंत्र रुप से प्रभाजनक प्रमाण नहीं होते।’
करपात्रीजी ने भगवा ध्वज के प्रसंग में गोलवलकर को उद्धृत करते लिखा कि ‘आप कहते हैं कि कोई व्यक्ति चाहे वह कितना ही महान् क्यों न हो, राष्ट्र के लिए आदर्श नहीं बन सकता। श्री राम को इष्टदेव पूजा करते हैं। इसीलिए भगवाध्वज को परम सम्मान के अधिकार-स्थान पर अपने सामने रखा है।’ (विचार नवनीत,पृ.334-335)
इस धारणा पर प्रहार करते हुए करपात्रीजी ने लिखा ‘क्या भगवाध्वज को सार्वभौम कहा जा सकता है? यदि कुछ लोग राम के पूजक नहीं हैं तो भगवाध्वज के भी बहुत लोग पूजक नहीं हैं। भारत की विभिन्न जातियों के अपने ध्वज अलग-अलग हैं। अपने -अपने ध्वजों का महत्व गान सभी करते हैं। कोई भी ध्वज भावना की दृष्टि से पूज्य होता है। भावना बिना झंडा और दंडा दोनों जड़ कपड़ा और काष्ठ ही तो है। भारत के विभिन्न राज्यों के अलग प्रकार के ध्वज होते थे। महाभारत संग्राम में भीष्म, द्रोण, कर्ण, भीम, अर्जुन के रथ के ध्वज पृथक् -पृथक् थे। अर्जुन तो कपिध्वज के रूप में प्रसिद्ध ही है। अतः सभी हमारे पूर्वज भगवाध्वज को ही मानते थे, यह तो नहीं ही कहा जा सकता। स्वामी समर्थ रामदास के संसर्ग से ही शिवाजी ने भगवाध्वज अपनाया, संघ ने उसी को अपना आदर्श मान लिया, यह ठीक है। परंतु यह सार्वभौम, सर्वमान्य नहीं कहा जा सकता।’
गोलवलकर ने लिखा, ‘भगवाध्वज हमारे राष्ट्रत्व का प्रतीक है।’ (विचार नवनीत,पृ.334)। करपात्री जी ने लिखा, ‘यह कथन ही सिद्ध करता है कि इसके लिए प्रमाण अपेक्षित है। कारण प्रतीकोपासना अवश्य ही प्रमाण सापेक्ष है। ध्वज स्वयं प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों में से कोई प्रमाण नहीं है। भावनावाला भक्त भावना के साथ उसकी पूजा करता रहे, उनसे भले प्रेरणा लेता रहे पर वह सप्रमाण होने से ही सजीव हो सकता है। प्रमाण बिना तो निर्जीव ही रहता है।’ उसी तरह ‘शास्त्र बिना धर्म सिद्ध नहीं होता। श्री गोलवलकर और उनके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने शास्त्र का प्रामाण्य अंगीकार नहीं किया। इसीलिए वे धर्मस्वरुप के निर्णय में भी सफल नहीं हुए।’
करपात्री जी ने अहिंसा-हिंसा, पवित्रता, स्वच्छता, संस्कार आदि के प्रसंग में भी आरएसएस के नज़रिए की तीखी आलोचना पेश की और लिखा, ‘शास्त्रोक्त धर्म ही मन के संस्कारक होते हैं।’
करपात्रीजी ने लिखा संघ के लोग, ‘सामूहिक रुप से मनमानी खान-पान,कबड्डी खेलने एवं राष्ट्र माहात्म्य बोधक गीत को ही संस्कृति मानते हैं।’ इस नज़रिए की आलोचना करते हुए करपात्री जी ने लिखा ‘धर्म, दर्शन, इतिहास, सदाचार, भाषा (भावाभिव्यंजक कलाओं का भी भाषा में ही अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए) इन पाँच विभागों में संस्कृति का स्वरूप समझा जा सकता है। उनमें धर्म केवल शास्त्र -गम्य है। ब्रह्म शास्त्रसापेक्ष तर्क एवं अनुभव से गम्य है। सदाचार धार्मिक शिष्टों की परम्पराओं से ज्ञेय है।’
करपात्रीजी ने संविधान की प्रशंसा करते हुए लिखा ‘भारतीय संविधान में दंड विधानों का उद्देश्य बदला चुकाना नहीं किन्तु अपराधी के अन्तरात्मा की शुद्धि ही दंड-विधान का उद्देश्य माना गया है। अतः अन्यायी आततायी को दंड देना भी उसके कल्याण के उद्देश्य से उचित ही होता है। दंड न देने से उसका अन्याय, अत्याचार बढ़ेगा। इससे उसका अनिष्ट होगा। इस सर्वहितैषता सर्वकल्याण की कामना का यह मतलब नहीं कि चोरों, हत्यारों, आक्रामकों को दंड न दिया जाय उनकी उद्दण्डता को बढ़ने दिया जाय।’ ( पृ. 24)
करपात्रीजी ने सर्वहित बुद्धि को ही ब्रह्म बुद्धि और समबुद्धि कहा है।
करपात्री जी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्ता को माना और संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार घोषणापत्र का समर्थन किया। जबकि आरएसएस मानवाधिकार घोषणापत्र को मानता ही नहीं है। करपात्रीजी ने लिखा, ‘राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार घोषणापत्र में प्रत्येक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता मान्य की गयी है।’ इस आधार पर उन्होंने संघ द्वारा ग़ैर हिन्दू धर्मों की आलोचना की आलोचना का खंडन किया।
आरएसएस प्रमुख की आलोचना करते हुए करपात्री जी ने लिखा ‘धर्म की व्याख्या भी आपकी अपनी स्वतंत्र है जो किसी धर्मग्रंथ से नहीं मिलती है।’ करपात्री जी ने सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक बहुलतावाद पर ज़ोर देते हुए सवाल किया कि ‘ क्या राष्ट्रीय वर्णों , जातियों की विशिष्टताओं की रक्षा क्या आवश्यक नहीं है ? यदि है तो क्या आप अपने संगठन में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों की विशिष्टता की रक्षा कर रहे हैं ? वेदाध्ययन, संध्या, अग्निहोत्र, भोजन, पान,संबंध एवं आचार की रक्षा कर रहे हैं? क्या सबके खानपान आचार को नष्ट कर उनकी विशेषताओं को नहीं नष्ट कर रहे हैं ? क्या मन्वादि शास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों के आचारों का विधान है उनका आपके संघटन में कोई स्थान है ? इस संबंध में आप जो कह देते हैं कि हम कोई पुस्तक ही नहीं मानेंगे, पर राष्ट्रों की विशेषताओं की रक्षा बात करते हैं। क्या राष्ट्रीय वर्णों, जातियों की विशेषताओं को मिटाकर राष्ट्रीय संघटन किया जा सकता है ?’ (करपात्रीजी, उपरोक्त, पृ.33)
गोलवलकर ने लिखा था संघ का लक्ष्य है ‘विविधता के बीच एकता की पहचान’ स्थापित करना, इस कथन की आलोचना करते हुए करपात्री जी ने सवाल किया ‘क्या यह वर्ण, जाति एवं राष्ट्र के संबंध में नहीं लागू होना चाहिए ? …वैधर्म्य विविधता है, सामर्थ्य एकता है। पार्थिव विविध पदार्थों में पार्थिकता के सर्वत्र समान होने में वही साधर्म्य है। वही एकता है।…इससे मानवरुप के सभी राष्ट्रों,जातियों में एकता का अनुभव किया जा सकता है।’ ( पृ. 34)
करपात्री जी ने सरसंघ संचालक के द्वारा मनगढ़ंत और आधारहीन बातों को अपनी किताब ‘नवनीत विचार’ में लिखने के लिए तीखी आलोचना की है।(पृ.37) साथ ही आगे लिखा ‘रा.स्व.संघ तथा जनसंघ के लोग भी यद्यपि हिन्दूकरण के लिए कुछ संस्कार आवश्यक समझते हैं तथापि वे किसी शास्त्र का प्रामाण्य नहीं मानते हैं। शास्त्रनिरपेक्ष उनका काल्पनिक संस्कार या मान्यता मात्र ही उनके हिन्दुत्व का आधार है। उनकी दृष्टि में हिन्दुत्व की परिभाषा नहीं हो सकती फिर भी ब्रह्म की तरह अपरिभाष्य होने पर भी हिन्दू है।’ ( पृ. 42)
आरएसएस के सरसंघ चालक का मानना है कि भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है। इस धारणा का करपात्री जी ने खंडन किया और लिखा कि ‘जन्म लेने मात्र से जाति मानना ग़लत और असंगत है। क्योंकि इस तरह गो, हिरण, बकरे आदि सब एक जाति के गिने जायेंगे क्योंकि वे सब भी तो जन्म लेते हैं। प्रसव तो उनमें भी समान है। जिस तरह गोलवलकर प्रसव के कारण सबको हिन्दू मान रहे हैं यह धारणा बुनियादी तौर पर ग़लत है।’( पृ. 44)
गोलवलकर ने कहा है कि हिन्दू को परिभाषित नहीं किया जा सकता। इस पर करपात्री जी ने लिखा ‘आश्चर्य है कि जो हिन्दुत्व के संबंध में जो कुछ भी नहीं जानता, जो उसकी परिभाषा भी नहीं कर सकता, वही दुनिया के सामने बढ़ चढ़कर घमंड की बात करता है। ऐसे समूहों की संसार में कमी नहीं जो संसार में अपने को ही सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। ईश्वर आत्मा या परम सत्य को अनुभूति का दावा करने वालों की भी कमी नहीं है।’ ( पृ. 61-62)
करपात्री जी ने संघ के ‘हिन्दुत्व’ के बारे में लिखा ‘इनका ‘हिन्दुत्व’ ‘मुसलिम-विरुद्धत्व’ ही है।’ (पृ. 71) अन्यत्र यह भी लिखा, ‘वस्तुतः आधुनिक राष्ट्रवाद एक अन्धविश्वास और प्रतिक्रिया मात्र है।’(पृ. 77)
गोलवलकर की राष्ट्र की धारणा की प्राचीन शास्त्रों के प्रमाणों के आधार पर करपात्रीजी ने आलोचना पेश करते हुए उनके प्रमाणहीन नज़रिए पर लिखा, ‘शास्त्र का प्रामाण्य आप मानते ही नहीं, प्रमाणहीन परंपरा भी अंध परंपरा ही है, फिर कौन संस्कार महत्वपूर्ण और कौन तुच्छ इसका निर्णय कैसे हो ?’ (पृ. 80-81)
इसके अलावा गोलवलकर ने अपनी किताब में हिन्दू शास्त्रों के अनेक उद्धरण देकर जो व्याख्या की है उसकी करपात्रीजी ने तीखी आलोचना लिखी है। साथ ही रेखांकित किया कि किस तरह गोलवलकर ने अर्थ का विकृतिकरण किया है। अर्थ के अनर्थ करने के करपात्री जी ने अनेक उदाहरण गोलवलकर की किताब से पेश करके प्राचीन शास्त्रों के आधार पर उनका खंडन किया और एक तरह से यह दर्शाने की कोशिश की है कि गोलवलकर को शास्त्रों के सही अर्थ का ज्ञान तक नहीं था। उनको तर्क और बुद्धि मान्य नहीं थी। जब तर्क और बुद्धि ही मान्य नहीं है, हिन्दू धर्म की किसी किताब को प्रमाण नहीं मानते तो चीजों के बारे में निर्णय किस आधार पर लिया जाएगा।
करपात्री जी ने गोलवलकर के लेखन पर लिखा ‘वस्तुतः शास्त्र विश्वास और शास्त्र ज्ञान न होने से ही आपने ऐसी असंगतियों का समुच्चय संगृहीत कर रखा है।’ (करपात्री जी, उपरोक्त,पृ.109) अपने कथन की पुष्टि के लिए करपात्रीजी ने गोलवलकर ने विभिन्न क़िस्म के अंतर्विरोधी विचारों को प्रमाण स्वरुप पेश किया है।
करपात्रीजी ने संघ प्रमुख के नज़रिए पर लिखा ‘आप शास्त्रों का प्रामाण्य मानने से भागते हैं, यदि शास्त्र प्रामाण्य मान लेंगे तो आपका कोई सिद्धांत एक मिनट भी टिक नहीं पायेगा। एक तरफ़ तो आप शाश्वत धर्म, शाश्वत संस्कृति, शाश्वत हिन्दुत्व की बात करते हैं दूसरी तरफ़ आप शाश्वत सनातन शास्त्र एवं शास्त्रोक्त शाश्वत धर्म या नियम नहीं मानते।’ ( करपात्रीजी,पृ.114)
‘वस्तुतः आपलोग भी उसी शिक्षा के प्रभाव से ही प्रभावित होकर जाति पाँति वर्णाश्रम व्यवस्था मिटाकर सबको एक करके वेद, दर्शन एवं धर्मशास्त्र को ठुकराकर, एक ऐसे विचित्र ढंग का राष्ट्र बनाना चाहते हैं, जो न हिन्दू होगा, न मुसलमान, न अंग्रेज ही।’ ( उपरोक्त,पृ. 115)
करपात्री जी ने लिखा ‘यदि धर्म संस्कृति एवं राष्ट्र के गौरव के मूल हमारे वेद, धर्मशास्त्र, दर्शन, राजनीति आदि पर आस्था नहीं रहेगी, तो धर्म संस्कृति की दुहायी देते रहने का कुछ भी अर्थ नहीं रह जायगा। जिसका कोई आधारभूत प्रामाणिक प्रकाश सम्भव नहीं होता, वह यों ही भटकता है। कभी रूस या चीन का अंधानुकरण करता, कभी इंग्लैंड या अमेरिका का, कभी अंतर्राष्ट्रीयता का, कभी राष्ट्रीयता का नारा लगाता है।’ (उपरोक्त,पृ.116)
प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी