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डॉ. वंदना गुप्ता के हालिया प्रकाशित संग्रह 'छलांग मारती स्त्रियाँ' की समीक्षा
अमरीकी कवयित्री माया एंजलो, जो एक संस्मरणकार और नागरिक अधिकारों की कार्यकर्ता थीं, उनका मानना था कि महिला आंदोलन का दुःख यह है कि वे प्रेम की आवश्यकता को स्वीकार नहीं करते। देखिये, मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी क्रांति पर भरोसा नहीं करता जहाँ प्रेम की अनुमति नहीं है ! स्त्रीवादी सोच के पैरोकार होते हुए भी वे इसे एकपक्षीय लड़ाई नहीं मानती थीं, उनका कहना था कि हम अपनी अज्ञानता को अपने ऊपर हावी होने देते हैं और हमें यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि हम अकेले जीवित रह सकते हैं, टुकड़ों में अकेले, समूहों में अकेले, नस्लों में अकेले, यहाँ तक कि लिंग के मामले में भी अकेले !
इन तर्कों अथवा वक्तव्यों के माध्यम से मैं डॉ. वंदना गुप्ता के हालिया प्रकाशित संग्रह 'छलांग मारती स्त्रियाँ' की धार कुंद नहीं करना चाहता! उन्होंने इस संग्रह के माध्यम से वर्तमान में स्त्रियों की दशा पर जो हस्तक्षेप किया वह धरती के लिए एक नई सुबह का आगाज़ है। यह इकहत्तर कविताओं का एक स्तवक है जिसमें अनकही पीड़ा का दर्द है, शरबतिया की व्यथा कथा है, स्त्री देह का व्याकरण, मुक्ति की खिड़कियां, हक की लड़ाई, मुक्ति का संविधान व खैरात के शब्द , संवेदनाओं की फसल, आंखों में समन्दर, मरुस्थल की पगडंडी, जीवन के मंत्र व जुआरी मुस्कान भी हैं, जहां लिखा है- चौसर नहीं ताश के पत्ते बिछाए थे उसने.. आज असमंजस में हूँ जीतकर हार जाऊं उस अजीज की खातिर जो जुआरी मुस्कान लिए बैठा है सामने मेरे।
संग्रह के प्रत्येक पृष्ठ पर बकौल कवयित्री- जख्मों का टपकता टटका लहू मिलेगा तुम्हें और संघर्षपूर्ण जीवन की चुनौतियों में निखरने की वजह भी ! सच की शिनाख्त की जाय तो ऋग्वैदिक काल में गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, घोषा व इंद्राणी सदृश्य अनेक विदुषियों ने इस राष्ट्र का मस्तक ऊंचा किया है। लेकिन जिस दुख, पीड़ा व यातना को झेलती रही एक बड़ी आबादी उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, उस मूक को अपनी शब्दों की ताकत से उर्जास्वित करने का का काम डॉ. वंदना गुप्ता ने अपने इस संग्रह के माध्यम से किया है। स्त्रियों में स्व के प्रति जागरूक करने की एक अजीब जिजीविषा है कवयित्री में- खुद ही खोजनी है अपनी जगह/ डूबते मस्तुलों को बचाना है/ सूर्यास्त से पहले.. इससे पहले कि कोई चिनवा दे दीवारों में/ सम्भाल लेना है तकदीर के सूत्र अपनी मुट्ठी में।
वंदना जानती हैं कि अपने अंदर एक अनकही कहानी को रखने से बड़ी कोई पीड़ा नहीं होती अतः किसी ऊंचे बुर्ज पर चढ़ करना चाहती है आसमान से बातें, जीना चाहती है एक लापरवाह जिंदगी। पदचिह्न शीर्षक कविता में वे कहती हैं- नहीं बंधी रहूंगी, खूंटे में तुम्हारे, दाना-पानी के आसरे ताउम्र ! वे बड़ी बेबाकी से कहती हैं- देह के दस्तरखान में, खुश्क होती रही मेरी सांसे, जवान होते ही कतर दिए गए मेरे पंख, मेरे स्वप्न, मेरी चाहतें, मेरे निर्णय की निर्धारित कर दी गयी सीमाएं। कवयित्री अपनी बात दो-टूक शब्दों कहती है कि स्त्री, अब फरेब की दुकान नहीं, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का इतिहास और भूगोल बदलना चाहती है, अब वह लिखना चाहती है नयी तहरीरें अपनी तमाम व्यवस्थाओं की बदल डालना चाहती है फरेब के उन पन्नों को जिन पर उनके अरमानों की तमाम लाशें दफ़न पड़ी ।
'छलांग मारती स्त्रियां' को पढ़ते हुए मैं चौंक पड़ता हूँ जब वे लिखती हैं 'कुछ तितलियां भी कैद थीं, आलपिनों में !' यह एक भयावह दृश्य है उस बादशाह के दरबार की, जहां मुक्ति की छटपटाहट लिए सदियों सदी शरबतिया सदृश्य मजदूरन मर खप जाती हैं- शरबतिया! तुम ऐसे ही चुरा लिया करो अपनी जिंदगी की व्यस्तताओं में कुछ पल अपने लिए ताकि इन चुराए लम्हों में तुम लड़ सको, चाय बागान में काम करने वाली, स्त्रियों के हक की लड़ाई !
डॉ. वंदना गुप्ता की आवाज़ देश के उन रचनाशील कवयित्रियों में शामिल हैं जो आधी आबादी की दारुण दशा पर मुखरित रही हैं, मसलन गगन गिल, निर्मला पुतुल, अनामिका, कात्यायनी, निर्मला गर्ग, सविता सिंह, ज्योति चावला आदि के स्वर समवेत हैं।
वंदना पूछती हैं 'जीवन के मंत्र' में -प्रेम को कैसे रचती हो तुम अपने भीतर, जबकि तुम्हारे अंदर दहकते हैं न जाने कितने पलाश के जंगल.., दूसरी ओर गगन गिल कहती हैं - प्रेम में लड़की शोक करती है, शोक में लड़की प्रेम करती है !
स्त्री विमर्श पर निर्मला पुतुल ने भी एक गंभीर सवाल सामने रखती हैं- बता सकते हो, सदियों से अपना घर तलाशती, एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता ? वहीं वंदना कहती हैं -अजीब विडंबना थी उस स्त्री के जीवन की, पहले आंखों का पानी सूखा फिर सूख गई मन की नदी.. जिस दिन रच लोगी तुम खुद को, रचनात्मकता के न जाने कितने दरवाज़े खुल जाएंगे तुम्हारे लिए !
यह संग्रह स्त्री विमर्श और स्त्री मुक्ति की दिशा में मील का पत्थर है ! जहां देखा हुआ यथार्थ और भोगा गया सच साथ-साथ है। कवयित्री वंदना गुप्ता का रचना संसार ब्रह्मांड से बातें करती हैं, बिना लाग लपेट के। वे वैसी दुनिया में यकीन करती हैं जहां स्त्री-पुरुष सहअस्तित्व को अपनी पूंजी मानकर एक सुंदर संसार की परिकल्पना कर सकते हैं, अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी कविताएं तथा देश-देशांतर अपनी यात्राओं का व्यापक संस्मरण इनके साथ हैं, जो आनेवाली संतति के लिए संग्रहणीय है, स्तुत्य है ! इनके अनवरत लेखन व सुदीर्घ जीवन की अशेष मंगलकामनाएं करता हूँ !
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पुस्तक : छलांग मारती स्त्रियां (कविता संग्रह)
लेखिका : डॉ. वंदना गुप्ता
प्रकाशन : सर्वभाषा प्रकाशन, नई दिल्ली- 110059.,
मूल्य : 250 ₹
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समीक्षक : अरविन्द श्रीवास्तव