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मार्शल मैकलुहान : फेसबुक और नार्सिज्म

Marshall McLuhan: Facebook and Narcissism मार्शल मैकलुहान के शब्दों (Marshall McLuhan on Technology) में कहें तो मनुष्य तो मशीन जगत का सेक्स ऑर्गन है (Man Becomes the Sex Organs of the Machine World)। डिजिटल मानवाधिकार इससे आगे जाता है

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hastakshep
21 Jul 2023
Jagadishwar Chaturvedi

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मार्शल मैकलुहान के जन्मदिन पर विशेष 

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मार्शल मैकलुहान के शब्दों (Marshall McLuhan on Technology) में कहें तो मनुष्य तो मशीन जगत का सेक्स ऑर्गन है (Man Becomes the Sex Organs of the Machine World)। डिजिटल मानवाधिकार (digital human rights) इससे आगे जाता है और गहराई में ले जाकर मानवीय शिरकत को बढ़ावा देता है। हिन्दी के जो साहित्यकार फेसबुक पर हंगामा मचाए हुए हैं वे गंभीरता से सोचें कि सैंकड़ों की तादाद में जो लाइक आ रहे हैं वे कम्युनिकेशन को गहरा बना रहे या उथला ?

डिजिटल रूढ़िवाद से क्यों बचें?

कम्युनिकेशन गहरा बने इसके लिए जरूरी है डिजिटल रूढ़िवाद से बचें। डिजिटल रूढ़िवाद मशीन प्रेम पैदा करता है, तकनीक की खपत बढ़ाता है। लेकिन कम्युनिकेशन में गहराई नहीं पैदा करता। डिजिटल रूढ़िवाद की मुश्किल है कि उसके कान नहीं हैं। वह इकतरफा बोलता रहता है, वह सिर्फ अपनी कही बातें ही सुनता है अन्य की नहीं सुनता। मसलन्, मैंने यह कहा, मैंने यह किया, मैं ऐसा हूँ, मैं यहां हूँ, मैं यह कर रहा हूँ, वह कर रहा हूँ आदि।

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हिन्दी के फेसबुक रूढ़िवादी जब फोटो के जरिए अभिव्यक्ति का जश्न मनाते हैं तो वे भूल जाते हैं कि वे वैचारिक तौर पर क्या कर रहे हैं। 

फेसबुक या किसी भी डिजिटल मीडियम का गहरा संबंध मानवीय क्रियाकलापों और संचार से है। फेसबुक पर लाइक या फोटो लगाने के बहाने हम अपने भाव-भंगिमाओं और गतिविधियों का बतर्ज मैकलहान मशीनीकरण करते हैं, इस क्रम में पेश की गयी हर चीज अपना विलोम बनाती है। हमें मैकलुहान की यह बात याद रखनी चाहिए-

All media work us over completely. They are so persuasive in their personal, political, economic, aesthetic, psychological, moral, ethical, and social consequences that they leave no part of us untouched, unaffected, unaltered. The medium is the massage. Any understanding of social and cultural change is impossible without a knowledge of the way media work as environments .

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डिजिटल ह्यूमनिज्म का है नया दौर

हिन्दी के बौद्धिकों में एक बड़ा वर्ग है जो अभी मानवाधिकार चेतना को महत्वहीन मानता है। उनमें संयोग से उन लेखकों की संख्या भी अच्छी खासी है जो साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हैं। नया दौर डिजिटल ह्यूमनिज्म (digital humanism) का है। वे लोग जो मानवाधिकारों न समझे वे डिजिटल मानवाधिकार को समझेंगे इसमें संदेह है। मेरा इशारा उन लेखकों की ओर है जो हिन्दी में है और फेसबुक पर आएदिन फोटोबाजी करते रहते हैं। लेकिन मानवाधिकारों के प्रति कभी नहीं बोलते। डिजिटल मानवाधिकार विलासिता के लिए नहीं है। फेसबुक पर सिर्फ फोटो लगाना, आत्मगान करना विलासिता है, हिन्दी में इसे फेसबुक रूढ़िवाद कहते हैं। असल में हम ऐसे युग में हैं जहां व्यापार ही हमारी संस्कृति है। यह वह युग है जहां संस्कृति ही हमारा व्यापार है।

फेकबुक कम्युनिकेशन के दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक त्रासदियां सबसे ज्यादा घट रही हैं, लेकिन हिन्दी फेसबुक में यह सब नदारत है। अति-कनेक्टविटी वालों का यथार्थजीवन से अलगाव है। दूरसंचार कम्युनिकेशन पर बढ़ती निर्भरता ने सामाजिक जीवन के अर्थपूर्ण संपर्क को तोड़ दिया है। इसके कारण टाइम और स्पेस का शासन भी खत्म हो गया है। अब हम बिना जाने तत्क्षण राय देने लगे हैं, लाइक करने लगे हैं। अनजान लोगों की लाइकलाइन पगलाती रहती है। अनजान का लाइक अब पैमाना है लोकप्रियता का। अब लाइक करने वाला भी लेखक बन गया है, उसे लेखक के बराबर दर्जा मिल गया है। फलतः लेखक और लाइककर्ता दोनों मित्र हो गए हैं। अब हम लेखक के आन्तरिक और निजी विवरणों में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं।

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फेसबुक टाइमलाइन की क्या विशेषता है

फेसबुक टाइमलाइन की खूबी है कि यूनीफॉर्म, कंटीनुअस और कनेक्टेड है। नार्सिस्ट लोग (फेसबुक पर लिखी उनकी पोस्टों के संदर्भ में) इस तत्व की जानते हुए अनदेखी करते रहे हैं। नार्सिसिज़्म यानी आत्ममुग्धता और अहर्निश असत्य का प्रचार। हिन्दी लेखकों को इससे बचना चाहिए। फेसबुक पर इस बात को लिखना इसलिए जरूरी लगा कि क्योंकि फेसबुक पर यह नार्सिसिज़्म खूब चल रहा है। किसी के भी बारे में अनाप-शनाप लिखने की बाढ़ आई हुई है। इसमें एक पहलू वह भी जिसमें व्यक्ति अपने बारे खूब काल्पनिक बातें लिखता है। इस तरह की काल्पनिक और बे-सिपैर की बातें लिखना नार्सिसिज़्म का वैचारिक धर्म है।

मसलन् किसी के फोटो का दुरूपयोग, विकृतिकरण, कैरीकेचर, पर्सनल हमला करना, किसी को गलत उद्धृत करना, विषयान्तर करके निजी जीवन पर हमला करना, किसी के नाम से असत्य बोलना आदि फेसबुक पर नार्सिसिज़्म की सामान्य प्रवृत्तियां हैं और इसमें हमारे नामी और सुधीजन बाजी मारे हुए हैं। नार्सिसिज़्म वैचारिक एड्स है।

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फेसबुक टाइमलाइन में आप मानवीय जीवन के अनंतरूपों को देख सकते हैं। यहां पर विभिन्न किस्म की घटनाओं जैसे निजी अनुभव, निजी राय, जन्मदिन, मृत्यु दिवस, शादी, ब्याह, तलाक, दलीय नीतियां आदि को देख सकते हैं। फेसबुक में अर्थवान और अर्थहीन दोनों ही किस्म की चीजें देखते हैं। फेसबुक एक तरह से तयशुदा संभावित समय और स्थान है जहां पर कम्युनिकेट कर सकते हैं। यहां वातावरण अदृश्य है। इसकी संरचनाएं और बुनियादी नियम पर्वेसिव हैं। सतह पर यह सहज कम्युनिकेशन का मीडियम है। लेकिन यह सीधे व्यक्ति के अन्तर्मन और धमनियों या नसों को प्रभावित करता है। अनेक फेसबुक लेखक इस बुनियादी तथ्य को नहीं समझते और अंट-शंट लिखते रहते हैं। अंटशंट लेखन, आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा कम्युनिकेशन में पर्वर्जन है। नार्सिज्म है। फेसबुक संवाद का माध्यम है,संवाद के आरंभ होने का अर्थ है प्रौपेगैण्डा का अंत। 

फेसबुक पर किसी भी विचारधारात्मक सवाल पर विचार विमर्श कम्युनिकेशन में रूपान्तरित हो जाता है। वह प्रौपेगैण्डा नहीं रहता।

भारत का मीडिया इस अर्थ में अ-मानवीय है कि वह रीजन, रेशनेलिटी और जीवन के सारवान सवालों को बुनियादी तौर पर नहीं उठाता। वह मनुष्य और पशु में भेद नहीं जानता। वह विश्वसनीय ज्ञान और सूचना का स्रोत अभी तक नहीं बन पाया है। वहां बार-बार नियंत्रण के विभिन्न रूपों का अभ्यास किया जाता है। वहां मोटे तौर पर विज्ञापनदाता, राजनीतिज्ञ और चोंचलबाजों की गणित और नियंत्रण का ख्याल रखा जाता है। अप्रत्यक्ष तौर वे राज्य-कारपोरेट घरानों के भोंपू की तरह काम करते हैं। मानवीय और गैर-मानवीय जीवनशैली के पहलुओं में अंतर करने तमीज अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं। भारत और यूरोप के मीडिया में एक अंतर है। यूरोप में मानवोत्तर दौर की ओर मीडिया प्रयाण कर रहा है, वहां सारवान मानवीय मसले उठाए जा रहे हैं। मानवीय त्रासदी और मानवाधिकारों के सवालों पर ध्यान दिया जा रहा है। भारत में इसके उलट अमानवीय, बोगस, मृत विषयों को व्यापक कवरेज दिया जा रहा है।

प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी

Marshall McLuhan: Facebook and Narcissism

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