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'ई' लेखकों के नाम प्रभाष जोशी का आखि‍री पैगाम

Prabhash Joshi's last message to 'E' writers. 'ई' लेखन में अभी चार चीजों की कमी नजर आती है, पहला है सुंदर गद्य का अभाव। दूसरा, लेखकीय ईमानदारी का अभाव। तीसरा, लेखन के प्रति‍ पेशेवराना दायि‍त्‍व और परि‍श्रम का अभाव और चौथा है ...

Prabhash Joshi's last message to 'E' writers 'ई' लेखकों के नाम प्रभाष जोशी का आखि‍री पैगाम

'ई' लेखकों के नाम प्रभाष जोशी का आखि‍री पैगाम

आज प्रभाष जोशी का जन्म दिन है- 

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आज प्रभाषजी का जन्म दिन है। वे कुछ मूल्‍य छोड गए हैं। आदमी मरता है तो बहुत कुछ त्‍यागकर ही उसे संसार से प्रयाण करना होता है। प्रभाषजी भी जब हमें छोड़कर गए तो लेखकों और पत्रकारों के लि‍ए कुछ मूल्‍य छोड़ गए हैं। 'ई' लेखकों को प्रभाषजी की कुछ बातें जरूर सीखनी चाहि‍ए। उनका मानना था '' अंदर जो भी घुमड़ रहा हो, घुमड़े, मैं अपने को भावनाओं के हवाले नहीं करूँगा।'' इस नि‍यम का उन्‍होंने जिंदगी भर पालन कि‍या।

'ई' पत्रकारि‍ता करने वालों के लिए प्रभाष जोशी की चुनौती क्या है?

जो 'ई' लेखन में आ गए हैं, 'ई' पत्रकारि‍ता कर रहे हैं। उनके लि‍ए प्रभाषजी बड़ी चुनौती छोड़ गए हैं। 'ई' लेखन में अभी चार चीजों की कमी नजर आती है, पहला है सुंदर गद्य का अभाव। दूसरा, लेखकीय ईमानदारी का अभाव। तीसरा, लेखन के प्रति‍ पेशेवराना दायि‍त्‍व और परि‍श्रम का अभाव और चौथा है आलोचना और जि‍म्‍मेदारी के बीच संतुलन का अभाव।

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'ई' लेखक मानकर चलता है कि‍ वह जो लि‍ख रहा है, सही लि‍ख रहा है और उसे लेखन कला के बारे में, गद्य को और सुंदर बनाने के बारे में अब कि‍सी से सीखने की जरूरत नहीं है। संपादन कला के बारे में उसे कि‍सी से सीखने की जरूरत नहीं है। 

पत्रकारि‍ता में प्रभाष जोशी के आदर्श

'ई' लेखकों को परि‍श्रम करके इंटरनेट पर रीयल टाइम में सुंदर गद्य लि‍खने की कला वि‍कसि‍त करनी होगी। प्रभाषजी इस मामले में आदर्श थे, वे सुंदर गद्य लि‍खते थे, सुंदर गद्य बोलते भी थे। पत्रकारि‍ता में उनके आदर्श थे एस. मुलगांवकर। मुलगांवकर अंग्रेजी प्रेस के आजाद भारत के श्रेष्‍ठतम पत्रकार-संपादक थे। अखबार के मालि‍कों (घनश्याम दास बि‍डला से लेकर रामनाथ गोयनका तक ) से लेकर प्रधानमंत्री नेहरू तक सभी उनके पत्रकारीय कौशल और ईमानदारी के कायल थे, उनका सम्‍मान करते थे। उनके व्‍यक्‍ति‍त्‍व का प्रभाष जी पर भी गहरा असर था।

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मुलगांवकर के बारे में प्रभाष जोशी

प्रभाषजी ने मुलगांवकर के बारे में जो बातें कही हैं, उन बातों पर प्रभाषजी ने भी अमल कि‍या था। प्रभाषजी ने उनके बारे में लि‍खा '' संपादकी को कभी नि‍जी या बाहरी तत्‍वों से प्रभावि‍त नहीं होने दि‍या। अपने लि‍ए संपादकी का कोई लाभ नहीं मि‍ला न कि‍सी को लेने दि‍या। संपादकी का इस्‍तेमाल संबंध बढ़ाने, सत्‍ता में भागीदारी करने, राजनीति‍ करने और घरबार भरने में नहीं कि‍या। अपने संपादकी पव्‍वे और प्रभामंडल का इस्‍तेमाल कि‍सी और क्षेत्र या प्रयोजन में नहीं कि‍या।'' (जनसत्‍ता ,23-03-1993) मुलगांवकर ''लल्‍लो-चप्‍पो की बजाय धरती की सख्‍त और कटु वास्‍तवि‍कता को पसंद करने वाले आदमी थे।'' 

गि‍रि‍लाल जैन के विषय में प्रभाष जोशी के विचार
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'टाइम्‍स ऑफ इंडि‍या' के सफलतम संपादक थे गि‍रि‍लाल जैन। उनकी संपादनकला का मूल्‍यांकन करते हुए जो बातें प्रभाषजी ने लि‍खी हैं वे 'ई' संपादकों से लेकर 'प्रिट' संपादकों तक सबके काम की हैं। प्रभाषजी का मानना था, ''अखबार के संपादक को सभी तरह के वि‍चारों और दृष्‍टि‍कोणों को पाठकों के सामने रखना होता है और यह अपनी एक अलग सख्‍त लाइन ले कर अलख नहीं जगा सकता। जगाना नहीं चाहि‍ए। ... पत्रकार को तटस्‍थ आलोचक-समीक्षक होना चाहि‍ए।''

हम आम तौर पर वि‍चारों में 'समानता' और 'सातत्‍य' खोजते रहते हैं। हि‍न्‍दी के लेखकों में यह बीमारी बहुत है। प्रभाषजी ने लि‍खा, ''अंग्रेजी में कहावत है कि‍ आजीवन और नि‍रंतर वैचारि‍क समानता और सातत्‍य सि‍र्फ गधों में होता है और बुद्धि‍मान अक्‍सर सहमत नहीं होते और सि‍र्फ गधे ही हमेशा सहमत होते हैं। गांधीजी से कि‍सी ने पूछा था कि‍ आप कई बार अपने वि‍चार बदल लेते हैं। हम कि‍स पर जाएं और कि‍से आपकी पक्‍की राय मानें। गांधीजी ने कहा था कि‍ आप उसी को मेरी राय मानें जो मैंने बाद में कही है। वि‍चारों में परि‍वर्तन होता हो और वह ठीक नहीं हो तो वि‍चार करने का और लि‍खने पढ़ने का अर्थ और प्रयोजन ही क्‍या रह जाएगा ? अगर आपके वि‍चार बदलें नहीं तो इसका एक ही मतलब है कि‍ आपने ज्‍यादा वि‍चार कि‍या ही नहीं है। और अगर आप दूसरों के वि‍चार बदल नहीं सकें तो इसका भी यही मतलब है कि‍ आपके वि‍चारों और उन्‍हें लि‍खने -समझाने में दम नहीं है। वि‍चार से ही वि‍चार बदले और बनाए जाते हैं। वि‍चार परि‍वर्तन ही सही और सच्‍चा और स्‍थायी परि‍वर्तन है।''

प्रेस के बारे में प्रभाष जी के विचार

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प्रभाषजी ने जो बात प्रेस के बारे में कही थी वह 'ई' लेखन के लि‍ए भी सच है,लि‍खा था, '' अखबार कोई एक गोले की तोप नहीं है और न पत्रकारि‍ता एक राउंड गोली की बंदूक। अगर आप में दम नहीं है तो आपका भंड़ाफोड़ देखते- देखते हो जाएगा। दम प्राप्‍त परि‍स्‍थि‍ति‍ में कि‍सी मान्‍यता पर खडे होकर टि‍के रहने में है। जि‍समें दम नहीं होता वह बि‍खरता है और जि‍समें होता है वह समय,कसौटि‍यों और अग्‍नि‍ परीक्षाओं में से नि‍खरता जाता है।'' (जनसत्‍ता, 26-12-1993)

इंटरनेट पर घूम -घूमकर गाली देने वाले, नेट लेखकों को गरि‍याने वाले जानते नहीं हैं कि‍ नेट लेखन के लि‍ए साहित्यिक अतीत से मुक्त होकर सोचना परमावश्‍यक है। नेट रीडिंग और नेट लेखन में साहित्यिक अतीत की यादें और धारणाएं पग-पग पर बाधाएं खड़ी करती हैं। नेट लेखन शुद्ध लेखन है यह ऐसा लेखन है जि‍सने 'साहि‍त्‍य' परंपरागत धारणाओं, वि‍धाओं की धारणाओं, आलोचना, साहि‍त्‍य के इति‍हास, प्रेस लेखन आदि‍ सबको लेखन में रूपान्‍तरि‍त कर दि‍या है। अब सारी दुनि‍या में सि‍र्फ लेखन है और कुछ नहीं लेखन ही सत्‍य है। लेखक, आलोचना, महानता, वि‍द्वता, वि‍धाएं आदि‍ की स्‍वतंत्र सत्‍ता का अंत हो चुका है। अब सि‍र्फ लेखन बचा है। सब कुछ लेखन में समाहि‍त हो चुका है। 

नेट का जगत खुला जगत है। साहि‍त्‍य के बंद संसार से यह पूरी तरह भि‍न्‍न है। नेट के खुलेपन को झेलना पड़ेगा, नेट का खुलापन अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी का चर्मोत्‍कर्ष है। नेट में लि‍खे हुए को देखकर लेखक के वि‍जन का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। इसमें भागीदारी के लि‍ए उत्‍तेजना और गाली गलौज की भाषा की नहीं गंभीरता, नि‍‍र्भीकता और तत्‍क्षण बुद्धि‍ की जरूरत होती है। नेट लेखन में अपना वि‍जन महसूस करने के साथ अन्‍य के वि‍जन को भी महसूस करते हैं, गंभीरता से लेते हैं। नेट मूलत: प्रदर्शन की जगह है। यह बातचीत का आरामदायक स्‍थान नहीं है। हमारे पाठक तत्‍काल जि‍स स्‍थान पर टि‍प्‍पणी लि‍ख रहे हैं उसे कम्‍प्‍यूटर सि‍द्धान्‍तकारों ने 'हॉस्‍पीटल' की संज्ञा दी है। वेब का पाठक जब भी लौटकर यहां पर आता है तो मूलत: 'हास्‍पीटल' में ही लौटकर आता है। हमें देखना होगा कि‍ वह कि‍तनी बार लौटता है उसका बार-बार लौटना नेट के पाठ की पुष्‍टि‍ है।

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वेब का लेखक साधारण लेखक नहीं होता, वह परंपरागत लेखक से बुनि‍यादी तौर पर भि‍न्‍न होता है। यह बेहतर, आत्मसजग, आलोचनात्मक, विचारक लेखक है। इसके पास प्रसि‍द्धि‍ है, सूचनाएं हैं। आत्‍माभि‍व्‍यक्‍ति‍ है। लेखन के साथ उसका परि‍वार, दोस्‍तों आदि‍ से संबंध भी बना रहता है। वेब लेखक की प्रति‍ष्‍ठा, संपर्क और शि‍रकत में नि‍रंतर वृद्धि‍ होती है। जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं तो उन्हें वेबसाइट बनानी होंगी। वेबसाइट को पढ़ना होगा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो सामाजिक परिवर्तन, न्याय, और सामाजिक सुधार आदि संभव नहीं है। इसके लिए हमें राजनीतिक वेबसाइट बनानी होंगी। जो लोग वेब पर मिलेंगे उनके बीच गहरे संबंध होंगे। वे स्वतंत्रचेता विचारक होंगे। उनमें सामुदायिकता की भावना ज्यादा होगी। पुरानी तर्क प्रणाली में तर्क बदलने की गुंजाइश नहीं है। जबकि नेट में तर्क परिवर्तन की पर्याप्त संभावनाएं हैं। यह परंपरागत पाठ से भि‍न्‍न पाठ है। लिंक के कनेक्शन पर आधारित है। उसका सूचना आधार विकासशील है। उसमें निरंतर वृद्धि होती रहती है। वह यूजर के चारों ओर माहौल बनाए रखता है। 

इंटरनेट में कोई चौकीदार नहीं होता, कोई छलनी नहीं होती। इंटरनेट छलनी को अपदस्थ कर देता है। चयन में इस्तेमाल होने वाली सेंसरशिप को खत्म कर देता है। वह आधिकारिक तौर पर चीजों की छानबीन नहीं करता। इंटरनेट यह मानकर चलता है कि शिक्षित समाज में छलनी की जरूरत नहीं होती। सामान्य तौर पर लोग इतने जागरूक होते हैं कि वे गुणवत्तामूलक और अन्य सामग्री में फर्क कर लेते हैं। छलनी की जरूरत पूर्व शिक्षित संस्कृति के युग में होती है। 

आज हम मध्यकाल से आगे आ चुके हैं। शिक्षित समाज में अबाधित सूचना प्रसार सामान्य और अनिवार्य जरूरत है। इसमें कुछ खतरे भी हैं। किंतु यदि हम स्व-प्रशासन की दिशा में आगे जाएंगे तो जोखिम तो उठाना होगा। इसके लाभ बहुत हैं। यहीं पर एक पुराना सवाल पैदा होता है कि सेंसरशिप को सेंसर कौन करेगा ? उल्लेखनीय है प्रत्येक यूजर अपने तरीके से छानता है। चयन करता है। अत: शुरू से छानकर देना सही नहीं होगा।हम यह कैसे तय करेंगे कि पाठक क्या चाहता है। पाठक क्या चाहता है इसे पाठक ही तय करेगा अन्य कोई तय नहीं कर सकता। 

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आज का दौर समस्या केन्द्रित अध्ययन का दौर है। यह परीक्षा का दौर नहीं है। आज हमारे बच्चों के पास भी आलोचनात्मक विवेक है। यह ऐसा दौर है जिसे मीडिया के संदर्भ के सहारे पढ़ा नहीं जा सकता। इसे वेब के सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए। वेब के जरिए लाखों-करोडों चैनलों ने हमला बोला हुआ है। यह वेब का हमला है। इसकी छानबीन संभव नहीं है। इसकी छानबीन का कोई तरीका भी नहीं है। यह पूर्णत: अराजक अवस्था है।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लेखन, रीडिंग और वाचन की तुलना में टाइपिंग अस्वाभाविक और घातक गतिविधि है। कम्प्यूटर क्रांति ने इसे चरमोत्‍कर्ष पर पहुंचाया है। लिखने से क्या लाभ होता है यह सब जानते हैं। वाचन से इंटरनेट पाठ की ओर संक्रमण मानवीय प्रगति का चरमोत्कर्ष है। यह अभिजात्य संप्रसार से व्यक्तिगत सृजन और स्वायत्तता (इंटरनेट) का विकास है।

प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी

Prabhash Joshi's last message to 'E' writers

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