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रायसीना ने कभी नहीं देखा मेरा दुख, समय लहूलुहान है

संग्रह के अनेक मुकाम पर कवि संघर्ष करते दिखते हैं, अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने अनेकानेक मोर्चे खोल दिये हैं। वे खुरदुरे समय को बेनकाब कर ही दम लेना चाहते हैं, वे एक योद्धा कवि की तरह थकना नहीं जानते हैं

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hastakshep
22 Jul 2023
literature, review, criticism, Book review

अनिल विभाकर के काव्य संग्रह 'अन्तरिक्षसुता' की समीक्षा

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समकालीन कविता के महत्वपूर्ण स्वर व प्रिय कवि अनिल विभाकर के सानिध्य में रहा। अग्रज कवि ने अपनी सद्य: प्रकाशित संग्रह 'अन्तरिक्षसुता' भेंट कर अनुगृहीत किया। कवि को वर्षों से नहीं दशकों से पढ़ता रहा हूँ, नब्बे के दशक में जली 'शिखर पर आग', इस ताज़ा संग्रह में वह आग और भी प्रज्ज्वलित हो रही है। संग्रह के अनेक मुकाम पर कवि संघर्ष करते दिखते हैं, अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने अनेकानेक मोर्चे खोल दिये हैं। वे खुरदुरे समय को बेनकाब कर ही दम लेना चाहते हैं, वे एक योद्धा कवि की तरह थकना नहीं जानते हैं। वे ऐसा महसूसते हैं कि यदि वे सच को सच कहने से चूक गए तो आने वाली संतति उन्हें क्षमा नहीं करेगी। बाजारवाद पर चोट करते हुए उन्होंने लिखा- जहां भी की रीढ़ की बात/ ढेर सारी रीढ़ दिखाई सौदागरों ने/ पसंद नहीं आई एक भी/ सब लुंज पुंज !

कवि ने बस्तर के दुःख, दर्द और त्रासद को बेहद करीब से महसूसा है, उनकी 'बस्तर' शीर्षक लंबी कविता आईने की तरह वहां की विलुप्त होती सभ्यता-संस्कृति से रूबरू कराती ही नहीं बल्कि राष्ट्र की आत्मा से बस्तर को जोड़ती भी है, कुछ बानगी- न जाने किसकी नज़र लग गयी बस्तर को/ धड़ामधूम और सलवाजुडूम हो रहा है वहां/ कभी दंडकारण्य कहे जाते थे उसके जंगल/ दंडकारण्य में किया था पांडवों ने अज्ञातवास/वहां है चित्रकोट जिसके खिलखिलाते जलप्रपात से/ अनवरत झरती है रामायण और महाभारत की कथाएं.. कवि का कहना है कि - इस समय लहूलुहान है बस्तर, परेशान है बस्तर, दंडकवन में फिर लगी है आग, धूर्त और खून के प्यासे बहरूपिये छीन रहे हैं वहां के मासूम लोगों से मांदल, उनके सपनों के मोरपंख..

कवि अनिल विभाकर ने अपना महत्वपूर्ण समय पत्रकारिता को दिया है, पटना 'हिन्दुस्तान' में बतौर फीचर संपादक और 'जनसत्ता' के रायपुर संस्करण के स्थानीय संपादक के तौर पर यानी दीर्घकालीन लेखन से उनका बावस्ता रहा है, यायावरी के कई-कई अनुभव उनके इस संग्रह में नत्थी हैं, लेकिन समय की नियति को वे बेहद सरल अंदाज में कहते हैं कि- 'रायसीमा ने कभी नहीं देखा मेरा दुख' दुख की पराकाष्ठा तब और अधिक विस्फोटक बन जाती है, तब उन्हें कहना पड़ता है कि- बाज़ार है भाई, यहां जो बिकता नहीं वह किसी काम का नहीं है।' लेकिन कवि निराश या हताश नहीं है, उम्मीदों का सम्बल उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है, वे कहते हैं कि -धरती को भी नहीं मालूम उसे कब तक चलना है/ सृष्टि का क्रमभंग तो हो सकता है/ नहीं होगा कभी धरती की यात्रा का अंत।

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संग्रह में चयनित कविताओं का फ़लक व्यापक है, कई-कई अनछुए विषय पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं, मसलन 'आंगन' शीर्षक कविता दृष्टव्य है- घर था तो आंगन में उतरता था आसमान/ भर आंगन लौटती थी चांदनी/ तारे खेलते थे घर में घोघोरानी-डेंगापानी/ अब तो आंगन के लिए नहीं है घर में कोई जगह/ बंद कर दिए गए आसमान के उतरने के सारे रास्ते ! यह एक बिडम्बना है जो हमारे अतीत, सभ्यता- संस्कृति और परंपराओं को मनुष्य से छीना जा रहा है, आत्मीयता लुप्त हो रही है, पेड़-पौधे से गौरैया तक आंगन से नदारत हो रहे हैं !

कवि की रचनात्मकता और संग्रह का अभिनंदन करता हूँ। कवि सृजनरत रहें, उन्हें ढेर सारी यशकामनाएँ निवेदित करता हूँ।

कविता संग्रह : अंतरिक्षसुता

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कवि: अनिल विभाकर

प्रकाशक : अनन्य प्रकाशन

दिल्ली- 110032.

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मूल्य: 250/₹

समीक्षा- अरविन्द श्रीवास्तव, कला कुटीर, मधेपुरा-852113, बिहार

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