बलराज साहनी उन चंद अभिनेताओं में हैं जो खुलकर कहते हैं कि मैं ईश्वर की सत्ता नहीं मानता, आजकल हालात यह हैं कि फिल्म रिलीज के दिन या पहले अभिनेता-अभिनेत्रियां मंदिरों और दरगाहों पर मत्था टेकते रहते हैं
बलराज साहनी उन चंद अभिनेताओं में हैं जो खुलकर कहते हैं कि मैं ईश्वर की सत्ता नहीं मानता, आजकल हालात यह हैं कि फिल्म रिलीज के दिन या पहले अभिनेता-अभिनेत्रियां मंदिरों और दरगाहों पर मत्था टेकते रहते हैं, हिंदी फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्रियां सार्वजनिक मसलों पर बोलने से डरते हैं। कलाकार की इस समाज-विमुखता को किसी भी तर्क से स्वीकृति नहीं दी जा सकती।
हमारे यहां हालात इतने खराब हैं कि अभिनेता-अभिनेत्री हमेशा पापुलिज्म के दवाब में रहते हैं, ऐसा करके वे कला की कितनी सेवा करते हैं यह हम नहीं जानते लेकिन उनका सामाजिक-राजनीतिक सवालों से किनाराकशी करना अपने आपमें नागरिक की भूमिका से पलायन है।
ईश्वर के विषय में बलराज साहनी का दृष्टिकोण
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बलराज साहनी का एक निबंध है ´मेरा दृष्टिकोण´,इसमें उन्होंने साफ लिखा है ,´मैं ईश्वर को बिलकुल नहीं मानता।´, जो लोग आए दिन धर्म और ईश्वर के नाम पर समझौते करते रहते हैं और धर्म की भूमिका की अनदेखी करते हैं,उनके लिए यह निबंध जरूर पढ़ना चाहिए।
बलराज साहनी ने लिखा ´एक नास्तिक के लिए आस्तिकता के साथ जरा-सा भी समझौता करना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि आज के जमाने में धर्म एक ऐसी व्यापारिक संस्था बन गया है कि उसके ´सेल्ज़मैन´ हर तरफ भागे-दौड़े फिर रहे हैं, जिनसे अपने-आपको बचाये रखने के लिए हर समय चौकन्ना रहने की जरूरत है।´
क्याबलराज साहनी मार्क्सवादी थे?
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बलराज साहनी घोषित मार्क्सवादी थे और मार्क्सवाद के प्रति अपनी आस्थाओं को उन्होंने कभी नहीं छिपाया। उन्होंने लिखा ´मैं मार्क्सवाद को दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च उपलब्धि मानता हूँ। मार्क्सवाद के अनुसार सृष्टि ही वास्तविक सत्य है,और उसे अपने विकास के लिए किसी बाह्य आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है। और सृष्टि को समझने –बूझने के लिए विज्ञान ही सबसे अधिक सार्थक साधन है,धर्म या अध्यात्म नहीं।´
आजकल जो लोग प्राचीनकाल में इंटरनेट और विज्ञान आदि की नई-नई खोजें पेश कर रहे हैं, उस तरह के विचारकों को केन्द्र रखकर लिखा,
´अध्यात्मवादियों,योगियो,ज्योतिषियों और दर्शनशास्त्रियों ने सृष्टि को लेकर पूर्ण रुप से समझने के जो दावे किए हैं,वे मुझे हास्यजनक प्रतीत होते हैं।´
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इन दिनों भारत के मध्यवर्ग से लेकर साधारण जनता तक में संतों- महंतों के पीछे भागने की प्रवृत्ति नजर आ रही है। इन संस्थाओं के बारे में साहनी ने लिखा,
´मैं संस्थापित धर्मों और मत-मतान्तरों का विरोधी हूँ,और मेरा ख्याल है कि इन धर्मों के जन्मदाता भी संस्थापित धर्मों के उतने ही विरोधी थे। महापुरुषों के विशाल चिन्तन को किसी सीमित घेरे में बांधकर लोगों को पथभ्रष्ट करना प्राचीन काल से शासक वर्ग की साजिश चली आ रही है।´
´संस्थापित धर्मों से स्वतंत्र रहने वाले मनुष्य के विचारों में स्वतंत्रता आ जाती है।, और वह बुद्ध, ईसा, मुहम्मद और नानक जैसे धार्मिक महापुरुषों को भी प्लेटो, सुकरात, अरस्तू, शंकर, नागार्जुन, महावीर, कांट, शोपनहॉवर हीगेल आदि की तरह उच्चकोटि के चिन्तक और दार्शनिक मानने लगता है, जिन्होंने कि मानव विकास के विभिन्न पड़ावों पर मनुष्य के चिन्तन को आगे बढ़ाया है। इसी प्रकार, वह उनके अमूल्य विचारों का पूरा लाभ उठा सकता है, जो कि मानव सभ्यता का बहुत बड़ा विरसा है।´