Advertisment

आये क्यों थे - गए किसलिए, के प्रश्नों में घिरे रहे 2000 के नोट, जो अब हैं भी नहीं भी !!

कर्नाटक में निर्णायक शिकस्त के बाद उस हार से ध्यान बंटाने के लिए दो हजार के नोट कीवि दाई का दांव चला गया। 2000 रुपये के नोट को एक प्रेस विज्ञप्ति से ही निपटा दिया

New Update
Rs 2000 note was disposed of with a press release

Rs 2000 note was disposed of with a press release

2000 रुपये के नोट को एक प्रेस विज्ञप्ति से ही निपटा दिया

Advertisment

जितने धूम धड़ाके, आन बान शान और गुलाबी गरिमा के साथ प्राणवान हुए थे उतनी ही फुस्स और अनुल्लेखनीय, निराश विदाई के साथ अनजान बनकर बेजान हो गए 2000 रुपये के नोट। बेकदरी इतनी हुई कि पिछली बार इनसे आधी और चौथाई औकात वाले नोटों की छुट्टी का एलान करने और उनसे उपजी अराजकता पर जापान में जाकर तालियाँ बजाकर मजा लेने वाले परपीड़ा प्रेमी, प्रचारजीवी प्रधानमंत्री इस बार इन्हें दरवाजे तक छोड़ने भी नहीं आये। अब तक इनके बारे में संवेदना, उलाहना या भर्त्सना का एक शब्द तक नहीं बोला। जिस रिज़र्व बैंक ने खूब तामझाम के साथ इन्हें जारी किया था, जब वापस लेने का वक़्त आया तो उसका गवर्नर या डिप्टी गवर्नर भी अलविदा बोलने नहीं आया। एक रूखी सी प्रेस विज्ञप्ति में ही निबटा दिया गया। 

क्या गैरकानूनी हो गए 2000 के नोट ?

2000 के नोट की गत ऐसी हुई है कि बताये न बने !! हैं भी और नहीं भी हैं। कानूनी तौर पर अस्तित्वमान हैं - अवैधानिक या प्रतिबंधित नहीं हुए हैं, 30 सितम्बर तक चलते रहेंगे - मगर चलेंगे भी नहीं। इसके बाद जब नहीं भी चलेंगे तब भी गैरकानूनी नहीं माने जायेंगे। शेक्सपियर ने अपने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन जम्बूद्वीपे भारतखंडे की सरकारी मुद्रा का सबसे बड़ा नोट उनके नाटक के पात्र प्रिंस हैमलेट के टू बी ऑर नॉट टू बी - होने या न होने - के सवाल से घिर कर "अपने अपमानजनक भाग्य के गुलेल और तीरों को सहें या मर जाएँ" की गत से जूझ रहा होगा। तीर्थंकर महावीर के शब्दों में "है भी और नहीं भी है" के संशय में जकड़ा होगा। बिना किसी नए को लाये समाप्त होकर, "हर क्षण कुछ नष्ट हो रहा है - हर क्षण कुछ नया जन्म ले रहा है" कहने वाले गौतम बुद्ध को अचरज में डाल रहा होगा। 

Advertisment

इतनी गरिमाहीन विदाई हुई है कि पूछिए मत !! 

पिछली बार इससे आधे पौने वालों की बंदी के वक़्त उनके निधन को कालाधन निकालने, आतंकवाद मिटाने और भ्रष्टाचार हटाने के लुभावने दावो से नवाजा गया था। इस तरह की घनगरज तो दूर रही ऐसी कोई मिमियाहट भी इसके हिस्से में नहीं आयी। स्वयंभू राष्ट्रवादी सरकार ने इसे राष्ट्रसेवा में वीरगति प्राप्त होने का तमगा थमाने की बजाय इस पर गंदे होने, सड़-गल जाने, तुड़-मुड़ जाने, उम्र पूरी हो जाने जैसी तोहमतें अलग से मढ़ दीं। जिस काम के लिए लाये गए थे वह काम पूरा हो गया है, अब इनकी जरूरत ही क्या है जब बैंक के भंडार में बाकी नोटों की तादाद पर्याप्त है आदि आदि के बोदे बहाने बनाकर, उलाहने मारकर "मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं" का गाना अलग से सुना दिया।

मोदी सरकार की यूएसपी क्या है? 
Advertisment

मौजूदा हुक्मरानों की यूएसपी - ख़ास विशिष्टता - यह रही है कि वे जानते कुछ हैं नहीं, मानते किसी की हैं नहीं !! अब यह थोड़ी और आगे बढ़ी है और अपने अलावा सबको, विशेषकर देश की जनता को भी अपने जैसा मूर्ख और अविवेकी मानने तक जा पहुंची है। अर्थव्यवस्था के लिए महाविनाशकारी और जनता के लिए अत्यंत दुखदायी साबित हुई पिछली नोटबंदी के समय किये गए दावों का नतीजा क्या हुआ, इस बात का जवाब न देकर तब उन्होंने झांसे और कुतर्क सुनाये थे, बाद में उसका जिक्र करना ही बंद कर दिया। उसी तर्ज पर इस दो हजार के नोट की बंदी - जो उनके हिसाब से नोटबंदी है ही नहीं - में उसी तरह का तूतक तूतक तूतिया राग अलापा जा रहा है। सामने वालों को परम मूर्ख मानकर गप्पें हांकी जा रही हैं। एक तरफ दावा किया जा रहा है कि पिछली कई वर्षों से दो हजार वाले नोट चलन में ही नहीं थे, दूसरी तरफ खुद रिज़र्व बैंक कह रहा है कि ये (इतने चले कि चलते चलते) मैले कुचले हो गए। कि क्लीन नोट पालिसी के तहत गन्दी मुद्रा वापस होनी चाहिये। कि इन्हें नोटबंदी के बाद बाजार में नकदी कमी पूरी करने के लिए छापा गया था वह काम हो गया, अब इधर तरल मुद्रा इफरात में हैं और उधर ऑनलाइन पेमेंट बहुत ज्यादा बढ़ गया है; जबकि असल बात इससे उल्टी है। दो हजार के नोट नोटबंदी के बाद नहीं छपे थे, उन्हें नोटबंदी के एलान से पहले ही छापा जा चुका था, और यह भी कि आज भी भारत में कैशलेस लेनदेन का प्रचलन आम नहीं हुआ है। भारत का स्वभाव बाकी विकसित देशों से अलग है। इसमें नकदी के प्रति लगाव और मुद्रा के प्रति आश्वस्ति भाव एक प्रभावी गुण है। भले प्रधानमंत्री और उनकी "मैं तो दो हजार के नोट का इस्तेमाल ही नहीं करती" वाली वित्तमंत्राणी इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस बारे में कुछ भी नहीं बोले हैं मगर - इतिहास की पढ़ाई करके केन्द्रीय बैंक के प्रमुख तक पहुंचे - आरबीआई के गवर्नर चार दिन बाद बोले तो सही मगर छोड़ सही बात बाकी सब बोले। 

अरक्षनीय का रक्षण करने, बेतुके की तुक तलाशने के काम पर अब गोदी मीडिया की चीखा ब्रिगेड और आई टी सैल के भक्त गिरोह को लगा दिया गया है। पिछली नोटबंदी के वक़्त उसमें जीपीएस और सीक्रेट माइक्रो चिप ढूँढने बताने वाले ये चतुर सुजान अब हाँफते, हड़बड़ाते हुए जितने कारण गिनाते हैं, उतने, बल्कि उतने से ज्यादा ही सवालों से घिर जाते हैं। पहले उन्होंने इसे काला धन बाहर निकालने का मोदी का मास्टर स्ट्रोक बताया - सवाल उठना जायज था कि चौतरफा तबाही लाने वाली पिछली नोटबंदी के बाद काला धन बाहर आया है या दिन दूनी रात चौगुनी की रफ़्तार से बढ़ा है ? अकेले स्विस बैंक को ही देख लें तो 2017 में उसकी तिजोरियों में भारत के लोगों के 7000 करोड़ रूपये अटे थे, मोदी के मास्टर स्ट्रोक के बाद 2021 में वे सवा तीन गुना बढ़कर 30500 करोड़ रूपये हो गए, वर्ष 2022 का भी जोड़ लें तो करीब पांच गुना भारतीय धन से स्विस बैंक्स पटी हुयी हैं। यह राशि पिछली 14 वर्षों की अधिकतम रकम है। गरज ये कि न खुदा ही मिला, न विसाले सनम; न इधर के रहे, न उधर के रहे। 

लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने के चक्कर में वे समझते हैं कि जैसे हिन्दुस्तानी नहीं जानते कि काले धन और काली कमाई में कितना फर्क होता है, कि जैसे लोग इतने मूर्ख हैं कि उन्हें नहीं पता कि काली कमाई का मुश्किल से 1% हिस्सा ही नकद कैश में होता है, बाकी 99% परनामी बेनामी संपत्तियों की खरीद, बिना दफ्तर और पते वाली अडानी बंधुओं की शेल कंपनियों जैसी घोटाला कम्पनियों और उनके जरिये बेनामी निवेश में लगता है। सोने की खरीद में खर्च होकर चोला बदल लेता है और विदेशी बैंकों में जमा हो कर ऊपर लिखे आंकड़े में बदल जाता है। भक्क बिरादरी और नत्थी मीडिया दावा कर रहे हैं कि इन दो हजारियों से सोना, जमीन और साजो-सामान की खरीद फरोख्त तेजी से बढ़ेगी इसलिए उनका दावा है कि यह अर्थव्यवस्था में तेजी लाने वाला मास्टर स्ट्रोक है। ऐसी कहानियां सुन सुनकर देश भले आजिज आ गया हो, भाई लोगों को शर्म नहीं आयी। 

Advertisment

5 वर्षों से जिनका छपना ही बंद कर दिया गया था, वास्तविकता यह है कि यह डूबती संभावनाओं के मद्देनजर की गयी एक सतही राजनीतिक तिकड़म के सिवा और कुछ नहीं है। तरकश के सारे जहर बुझे तीर आजमाने के बाद भी कर्नाटक में निर्णायक शिकस्त के बाद उस हार से ध्यान बंटाने के लिए दो हजार के नोट की विदाई का दांव चला गया। उन्हें लगता है कि भले चलन में कम थे, मगर चर्चा में लाने के लायक तो हैं ही। इसके अलावा उनकी कुटिल निगाह इसी साल के अंत में होने वाले 5 राज्यों - मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में होने वाले चुनावों पर है। चुनाव से पहले विपक्षी पार्टियों द्वारा इकठ्ठा किये गए चुनाव फण्ड उनके निशाने पर है। चौबीस घंटा सातों दिन सालों साल सिर्फ और केवल चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा इस तरह की तिकडमों में सिद्धहस्त है। सात साल पहले 8 नवम्बर 2016 की शाम 8 बजे खुद टीवी पर आकर विनाशकारी नोटबंदी के समय भी तीन महीने बाद फरवरी - मार्च 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव थे। 

अपनी आत्ममुग्धता और शेखचिल्ली से भी ज्यादा बड़े वाले आत्मविश्वास में हुक्मरान भूल रहे हैं कि काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती, कि लोगों को एक ही तूतक तूतक तूतिया राग बार बार नहीं सुनाया जा सकता। वे यह भी भूल रहे हैं कि जब दरिया झूम के उठते हैं तो उन्हें तिनकों से नहीं टाला जा सकता। 

बादल सरोज 

सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

Rs 2000 note was disposed of with a press release

Advertisment
सदस्यता लें