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हिंदुत्व और हिन्दू की केंचुली उतार, सनातन का बाना धारण करने की संघ परिवार की जुगत

Sangh Parivar tries to shed the scum of Hindutva and Hinduism and wear the banner of Sanatan. सनातन धर्म का वैदिक धर्म के साथ क्या रिश्ता है? हिन्दू धर्म और हिंदुत्व को छोड़ कर सनातन के पीछे क्यों दौड़ पड़ा संघ परिवार?

Sangh Parivar tries to shed the scum of Hindutva and Hinduism and wear the banner of Sanatan

Sangh Parivar tries to shed the scum of Hindutva and Hinduism and wear the banner of Sanatan

तमिलनाडु में साहित्यकारों और कलाकारों की एक वैचारिक सभा में डीएमके के युवा नेता उदयनिधि स्टालिन के सनातन धर्म के उन्मूलन वाले बयान के बाद भाजपा और संघ का पूरा गिरोह अपने सारे कपड़े फाड़कर देश भर में बबाल मचाने में भिड़ा है। उनके ब्रह्मा जी को छोड़कर कुनबे में जितने भी देव दानव, गण, भक्तगण, गणवेशधारी और हिंदुत्व पुंगव, बन्धु और भगिनियां हैं वे पूरा गोला बारूद लेकर इसे धर्मोन्माद में बदलने और राजनीतिक मुद्दा बनाने में जुटे हुए हैं। 

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"सनातन उन्मूलन सम्मेलन" में भाग लेते हुए पहले उदयनिधि स्टालिन ने "भारतीय मुक्ति संग्राम में आरएसएस का योगदान" शीर्षक से व्यंग्यचित्रों वाली एक पुस्तक का विमोचन किया था; भक्तगण इसके बारे में एक भी शब्द नहीं बोल रहे, वे इसके बाद दिए गए भाषण में उन्होंने सनातन धर्म को लेकर जो टिप्पणियां की थी उन्हें लेकर भनभनाये हुए हैं। 

उदयनिधि स्टालिन ने अपने संबोधन में सम्मेलन के शीर्षक को बहुत अच्छा बताया और इसके लिए बधाई देते हुए कहा कि 'सनातन विरोधी सम्मेलन' के बजाय 'सनातन उन्मूलन सम्मेलन' रखा जाना इसलिए ठीक है क्योंकि हमें कुछ चीज़ों को ख़त्म करना होगा। सिर्फ उनका विरोध करने से काम नहीं चल सकता। जैसे मच्छर, डेंगू बुखार, मलेरिया, कोरोना वायरस इत्यादि का विरोध करना काफी नहीं होता, उन्हें खत्म करना होता है ठीक उसी तरह सनातन धर्म भी ऐसा ही है जिसका हमें विरोध नहीं करना है बल्कि इसका उन्मूलन करना है। उन्होंने कहा कि सनातन समानता और सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ है। "सनातन सिद्धांत और लोकतांत्रिक सिद्धांत के बीच दो हज़ार साल पुराना संघर्ष है. वे वर्षों पहले मौजूद सनातन सिद्धांत को वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं। फासीवादी ताक़तें हमारे बच्चों को पढ़ने से रोकने के लिए कई योजनाएं लेकर आ रही हैं. सनातन की नीति यही है कि सबको नहीं पढ़ना चाहिए। एनईईटी परीक्षा इसका एक उदाहरण है।" उन्होंने चेतावनी दी कि "अगर सनातन सत्ता में वापस आते हैं, तो वर्णाश्रम और जातिगत भेदभाव फिर से अपना सिर उठाएगा।" इसलिए "हमारा पहला काम सनातन को हटाना है न कि केवल उसका विरोध करना। सनातन समानता और सामाजिक न्याय का विरोध करता है। इसका मतलब है वो चीज़ जो स्थायी हो यानी ऐसी चीज़ जो कभी न बदली जा सके, जिस पर कोई सवाल न उठाए. यही सनातन का अर्थ है।"

पहले जानिए सनातन क्या है

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जिस सनातन को लेकर इतना हल्ला मचाया जा रहा है वह सनातन क्या है इस पर आने से पहले यह जानना दिलचस्प होगा कि पिछले कुछ महीनों - अधिकतम एक साल - से आरएसएस और उसके कुनबे की भाषा में अचानक सनातन के इतनी प्रमुखता हासिल करने के पीछे मकसद क्या है ? संघ और उसकी सभी भुजाएं अब तक हिन्दू और हिंदुत्व की बातें करती रही हैं। हिन्दू धर्म वालों की एकता बनाकर, हिंदुत्व पर आधारित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का दावा करती रही हैं। 

जानिए हिन्दू राष्ट्र में रहने की गोलवलकर की बताई 5 योग्यताएं क्या हैं

गोलवलकर की 1939 में लिखी किताब "हम और हमारी राष्ट्रीयता", जिसे आरएसएस ने अभी तक आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया, फिलहाल उससे अपनी असंबद्धता ही जाहिर की है, उसमें हिन्दू राष्ट्र में रहने की 5 योग्यतायें गिनाते समय एक धर्म - सनातन धर्म - का उल्लेख छोड़कर अभी तक संघ के प्रचार साहित्य में भी सनातन का उस तरह जिक्र नहीं मिलता जिस तरह हाल के कुछ महीनो में शुरू हुआ है।

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हर जगह हिन्दू पहचान, हिन्दू धर्म, हिंदुत्व और उस पर आधारित हिन्दू राष्ट्र की बात मिलती है। हिंदुत्व भी वह वाला जिसे उन सावरकर ने परिभाषित किया था जो खुद किसी धर्म में विश्वास नहीं करते थे और घोषित रूप से स्वयम को नास्तिक बताते थे। 

हिन्दू धर्म और हिंदुत्व को छोड़ कर सनातन के पीछे क्यों दौड़ पड़ा संघ परिवार?

संघी गिरोह द्वारा अचानक से हिन्दू धर्म और हिंदुत्व को कब और क्यों गंगा में सिरा दिया गया और बंद अंधेरी गुफा में पड़े सनातन की प्राणप्रतिष्ठा कर दी गयी ? यह अचानक नहीं हुआ। इसकी भी एक क्रोनोलोजी है। मुख्य वजह यह है कि हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता के उभार के बाद से देशभर में चले विमर्श में हिंदुत्व के वर्णाश्रम, जाति श्रेणी क्रम के अमानवीय आधार, लोकतंत्र और समता के निषेध के आपराधिक रूप जनता के सामने आये हैं - नतीजे में इसकी अमानुषिकता उजागर हुई है। इनके कथित सामाजिक समरसता के अभियानों के बावजूद दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़े समुदायों और महिलाओं के एक बड़े हिस्से में हिंदुत्व के असली चेहरे की भयावहता सामने आयी है - उनकी इसके प्रति अरुचि बढ़ी है, अविश्वास बढ़ते-बढ़ते तिरस्कार भाव तक पहुँचने लगा है। इसी के साथ, इसी बीच, हिन्दू शब्द के उदगम को लेकर आई जानकारियों ने भी इस गिरोह को असुविधा में डाला है। लिहाजा बहुत ही सोचे समझे तरीके से पिछले कुछ महीनों से इस कुनबे ने हिन्दू, हिंदुत्व की केंचुली उतारना और सनातन की खाल ओढ़ कर नया बाना धारण करना शुरू कर दिया है।  

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हालांकि जिस सनातन की ये दुहाई दे रहे हैं वह सनातन क्या और कितना सनातन है यह बात भी कोई दबी छिपी नहीं है। 

सनातन एक आधुनिक पहचान है जो विविधताओं से भरी हिन्दू परम्परा के प्रभुत्वशाली ब्राह्मण धर्म में कुरीतियों के विरुद्ध हुए धार्मिक सुधार आंदोलनों के मुकाबले घनघोर पुरातनपंथी रूढ़िवाद की पहचान के रूप में सामने आयी। 

बंगाल के नवजागरण सहित ब्रह्मोसमाज आन्दोलन, दक्षिण के जाति और वर्णाश्रम विरोधी मैदानी और वैचारिक संघर्षों, महाराष्ट्र के सामाजिक सुधारकों की मुहिमों और खासकर उत्तर भारत में मूर्तिपूजा, अंधविश्वास और एक हद तक जाति विरोधी आन्दोलन आर्य समाज के बरक्स असमानता, ऊंचनीच और भेदभाव का धुर पक्षधर पुराणपंथ सनातन के नाम पर गिरोहबंद हुआ। 

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सनातन धर्म का वैदिक धर्म के साथ क्या रिश्ता है?

18वीं और 19वीं सदी में सनातनियों का सबसे बड़ा युद्ध जिस आर्य समाज के साथ हुआ था उस आर्य समाज का तो नारा ही वेदों की ओर वापस लौटने का था, इसलिए सनातन धर्म का वैदिक धर्म के साथ कोई रिश्ता होने का सवाल ही नहीं उठता। यूं भी चारों वेदों में कहीं सनातन नहीं है, 14 ब्राम्हण ग्रंथों, 7 अरण्यकों, 108 उपनिषदों - जिनमें से ज्यादातर एक दूसरे के खिलाफ भी राय देते हैं- में इसका कोई महात्म्य नहीं समझाया गया है। एक भागवत को छोड़कर, जो तुलनात्मक रूप से आधुनिक है, 18 पुराणों में भी सनातन का कहीं जिक्र नहीं मिलता। 

श्री कृष्ण - जिनके उपदेश वाले ग्रंथ गीता को संघ भाजपा भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करता रहा है - उन्होंने तो धर्म की जो परिभाषा दी है वह सनातन को अधर्म करार देती है। वे कहते हैं कि "जो समय के साथ नहीं बदलता, जो अपरिवर्तित और सनातन रहता है वह धर्म नहीं अधर्म है।" 

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प्रश्न यह था कि जब द्रौपदी का चीरहरण किया गया तब द्यूत सभा में मौजूद सभी ज्ञानियों के चुप रहने पर कृष्ण ने अपनी आपत्ति दर्ज की और इसे अधर्म बताया। भीष्म और विदुर ने अपनी अपनी प्रतिज्ञाओं के पालन का धर्म निबाहने का हवाला देते हुए खुद कृष्ण को कठघरे में खडा किया और कहा कि उन्होंने शस्त्र न उठाने का वचन तोड़कर खुद अधर्म किया है। इसके जवाब में कृष्ण धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि "जिस धर्म का पालन करने की बात आप कर रहे है वह धर्म नहीं है। धर्म किसी वचन से बंधा नहीं होता, वह लगातार बदलता है, जो समय के साथ नहीं बदलता वह अधर्म है।" 

उदयनिधि स्टालिन के खिलाफ युद्ध जैसा छेड़े आरएसएस और भाजपा यदि सनातन की सनातनता पर सचमुच में गंभीर हैं तो उन्हें पहले कृष्ण के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिये। 

रही सनातन के शाब्दिक अर्थ के हिसाब से अनादिकाल से चले आने की बात है तो पाली भाषा में लिखे ग्रंथों में उन बुद्ध और उनके बौद्ध धर्म को भी सनातन कहा गया है जिन गौतम बुद्ध का खुद का यह कहना था कि "दुनिया में कुछ भी स्थिर नहीं है। कुछ भी शाश्वत नहीं है। कुछ भी सनातन नहीं है। व्यक्ति और समाज के लिये परिवर्तन ही जीवन का नियम है। वेदों को प्रमाण मानने से इनकार करने वाले, ईश्वर के अस्तित्व को भी न मानने वाले पृथ्वी के इस हिस्से के पहले नास्तिक धर्म में भी "है भी नहीं भी है" का संशयवाद है - हालांकि इसके बाद भी जैन धर्मावलंबियों का दावा है कि वह भी अनादिकाल से अस्तित्वमान है। 

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ठीक यही वजह है कि सनातन धर्म में सनातन क्या है यह बात कोई सनातनी भी न खुद समझ पाया है ना हीं किसी को समझा पाया है। 

ताजा विवाद के बाद अचानक धर्मवेत्ता बन गए राजनाथ सिंह का राजस्थान में दिया गया भाषण इसी गफलत का एक और नमूना है। वे सनातन की ठीक उलटी परिभाषा देते हुए वह सब बातें बखानने लगते हैं सनातन जिनके पूरी तरह खिलाफ है। उन्होंने दावा किया कि "जो जड़ में हैं वही चेतन में है, जो पिंड में है वही ब्रह्माण्ड में है, जो छोटे में है वही बड़े में है, जो मेरे में है वही तेरे में है।" अरक्षनीय का रक्षण करते करते वे यहाँ तक बोल गए कि "जो जात पात और धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता, न जिसका आदि है न अंत है वही सनातन धर्म है।" जाहिर सी बात है कि वे बता कम रहे थे छुपा ज्यादा रहे थे। 

यह कुनबा जिस सनातन धर्म की बात कर रहा है वह वर्णाश्रम पर आधारित, जाति प्रथा और उसके आधार पर ऊंच - नीच यहाँ तक कि छुआछूत तक में यकीन करने, महिलाओं को शूद्रातिशूद्र मानने को धर्मसम्मत बताने वाली व्याधि है जिसका सही नाम ब्राह्मण धर्म है। वही ब्राह्मण धर्म जिसके खिलाफ पिछले ढाई तीन हजार वर्षों में भारत में दार्शनिक और धार्मिक विद्रोह होते रहे; जिससे लड़ते-लड़ते जैन, बौद्ध, लोकायत धारा, सिख, शैव, भांति भांति के वैष्णव जैसे अनेक धर्म और उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम में अनेकानेक पंथ विकसित हुए। यह वह सांघातिक बीमारी है जिसने इस देश को करीब डेढ़ हजार वर्ष तक घुप्प अँधेरे में डालकर रखा - मनुस्मृति के आधार पर हाथ और दिमाग को एक दूसरे से काटकर भारत के विज्ञान, साहित्य, सांस्कृतिक और सामाजिक विकास को अवरुद्ध करके रख दिया, सड़ांध पैदा कर दी। यह वही जकड़न है जिससे निजात पाने के लिए कबीर से लेकर रैदास, गुरु घासीदास से होते हुए राजा राममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने अपने तरीकों से जद्दोजहद की। जोतिबा फुले से पेरियार होते हुए अम्बेडकर तक ने निर्णायक चोटें की। ईएमएस नम्बूदिरिपाद और ए के गोपालन से होते हुए वाम आन्दोलन ने इसे सुधार से आगे बढाया और सामाजिक बदलाव की लड़ाई से जोड़ा। इन्हीं संघर्षों का असर था जिसने भारत के संविधान के रूप में मूर्त आकार ग्रहण किया। जिसने भारत को मध्ययुगीन यातना गृह से बाहर निकाल एक सभ्य समाज बनाने की पृष्ठभूमि तैयार की। यही बाद में 70 के दशक में देश की राजनीति में सामाजिक प्रतिनिधित्व में गुणात्मक परिवर्तन के रूप में दिखा। 

इस तरह यह जहां एक ओर कुख्यात हो गए हिंदुत्व की नई पैकेजिंग है वहीं दूसरी ओर इन ढाई तीन हजार वर्षों के वैचारिक संघर्षों की उपलब्धियों का नकार भी है। संविधान और उसमें दी गयी समता, समानता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का धिक्कार भी है। यह बर्बर असलियत को छिपाने का कपट है। 

राजनाथ सिंह के दावे को सावरकर की 1923 की पुस्तक हिंदुत्व, जिसे संघ- भाजपा अपना ध्येय मानती है, में लिखे के आधार पर जांच कर देखना चाहिए। बकौल सावरकर '"वर्ण व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है।” यह भी कि “जिस देश में चातुर्वर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है। आर्यावर्त नहीं है।" और आगे बढ़कर सावरकर इसे और स्पष्ट करते हैं कि "ब्राह्मणों का शासन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श होगा।" वे यह भी कहते हैं कि “सन 1818 में यहां देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिन्दू साम्राज्य (पेशवाशाही) की कब्र बनी।” 

ध्यान रहे यह वही पेशवाशाही है जिसे हिन्दू पदपादशाही के रूप में फिर से कायम कर आरएसएस एक राष्ट्र बनाना चाहता है और इसी को वह हिन्दू राष्ट्र बताता है। भारत के इतिहास में कलंक के रूप में जानी जाने वाली यह पेशवाशाही क्या थी इसे जोतिबा फुले की 'गुलामगीरी' या भीमा कोरेगांव की संक्षेपिका पढ़ कर जाना जा सकता है। 

यही बात संघ के एकमात्र गुरु जी गोलवलकर ने कही थी कि "ईरान, मिस्र, यूरोप तथा चीन के सभी राष्ट्रों को मुसलमानों ने जीत कर अपने में मिला लिया, क्योंकि उनके यहां वर्ण व्यवस्था नहीं थी। सिंध, बलूचिस्तान, कश्मीर तथा उत्तर-पश्चिम के सीमान्त प्रदेश और पूर्वी बंगाल में लोग मुसलमान हो गए क्योंकि इन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था को कमजोर बना दिया था।" इनका सनातन धर्म की बहाली का दावा वर्णाश्रम की बहाली के सिवा कुछ नहीं है। 

इस मामले में भी इस कुनबे की हिटलर के साथ आश्चर्यजनक समानता है; हिटलर जो खुद नास्तिक था, 18 वर्ष का होने के बाद कभी मास या प्रेयर में नहीं गया उसने भी अपने कर्मों को जायज ठहराने के लिए न केवल '"सकारात्मक ईसाई धर्म" के नाम पर एक नया धर्म और उसका नया चर्च बनाने की कोशिश की थी, ईसा मसीह को भी एक आर्य सेनानी के रूप में स्थापित करने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी, बल्कि इतिहास के कूड़ेदान से निकालकर अपना एक अलग देवता भी प्रतिष्ठित कर दिया था। 

उनकी ताजा भड़भड़ाहट की वजह यह है कि हिंदुत्व और हिन्दू की जगह सनातन का जाप कर उसी पुराने और त्याज्य पर नया मुलम्मा चढ़ाने की इस कोशिश को लोग समझने लगे हैं। भट्टी सुलगने के पहले ही समता, सामाजिक सुधार, लोकतंत्र और संविधान की हिमायती ताकतें उसे बुझाने के लिए खुद जाग चुकी हैं औरों को भी जगा रही   हैं। तमिलनाडु के साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की वह सभा    इसी जागरण अभियान का हिस्सा थी।                                                  

कहने की आवश्यकता नहीं कि संघ और भाजपा जितना शोर मचाएंगे उतना ही इसके खिलाफ प्रतिरोध भी तेज से तेजतर होगा।

बादल सरोज 

सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा

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