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अम्बेडकरवाद की रक्षा के लिए लड़नी होगी स्वाधीनता संग्राम सरीखी लड़ाई!

14 अप्रैल है डॉ अंबेडकर जयंती । डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति समय के साथ-साथ विश्वमय फैलती ही जा रही है किन्तु खुद भारत में अम्बेडकरवाद बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है।

अम्बेडकरवाद की रक्षा के लिए लड़नी होगी स्वाधीनता संग्राम सरीखी लड़ाई!

नित नयी ऊंचाई छू रहा अम्बेडकरवाद 

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14 अप्रैल है डॉ अंबेडकर जयंती 

आज हम भारत रत्न उस बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की 132 वीं जयंती (Dr. Ambedkar's 132nd birth anniversary) मनाने जा रहे है, जिनके विषय में बहुत से नास्तिक बुद्धिजीवियों की राय है कि बहुजनों का यदि कोई भगवान हो सकता है तो वह डॉ. आंबेडकर ही हो सकते हैं, जिनकी तुलना लिंकन, बुकर टी वाशिंग्टन, मोजेज इत्यादि से की जाती है. 

आज मानवता की मुक्ति में अविस्मरणीय योगदान देने वाले ढेरों महापुरुषों का व्यक्तित्व और कृतित्व समय के साथ म्लान पड़ते जा रहा है पर, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर वह महामानव हैं, जिनकी स्वीकृति समय के साथ बढ़ती ही जा रही है. यही कारण है आंबेडकर जयंती विश्व की सबसे बड़ी जयंती का रूप अख्तियार कर चुकी है और आज यह भारत के अतिरिक्त दुनिया भर में ‘समानता दिवस’ ‘ज्ञान दिवस’, ‘न्यायबुद्धि दिवस’ इत्यादि के रूप में मनाई जा रही है. 

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खुद भारत में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा आंबेडकर जयंती को अपने स्थापना दिवस 6 अप्रैल से सप्ताह भर के लिए सामाजिक न्याय सप्ताह के रूप में मना रही है.

भारत में बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है अम्बेडकरवाद

यह सब इस बात का संकेतक है कि डॉ. आंबेडकर की स्वीकृति समय के साथ-साथ विश्वमय फैलती ही जा रही है. बहरहाल समय के साथ-साथ आंबेडकर और उनके वाद की स्वीकृति भले ही नित नयी उंचाई छूती जा रही हो, किन्तु देश-विदेश में फैले कोटि-कोटि आंबेडकरवादियों में बहुत कम लोगों को इस बात का इल्म है कि खुद भारत में अम्बेडकरवाद बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है और अगर इसे संकट-मुक्त नहीं किया गया तो आने वाले कुछ दशकों में लोग आंबेडकर को भूलना शुरू कर देंगे. ऐसे में आज इतिहास ने अम्बेडकरवाद को संकट-मुक्त करने की बड़ी जिम्मेवारी बहुजनवादी दलों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के कन्धों पर डाल दिया है. इसे देखते हुए अम्बेडकरवाद को संकट-मुक्त करने में होड़ लगाना सामाजिक न्यायवादी दलों, बुद्धिजीवियो, एक्टिविस्टों और दुनिया भर में फैले का आंबेडकरवादियों का अत्याज्य कर्तव्य बन गया है. 

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इस दिशा में अपना कर्तव्य निर्धारित करने के पहले आंबेडकरवादियों को अम्बेडकरवाद और इस पर आये संकट को ठीक से समझ लेना जरुरी है.

अम्बेडकरवाद क्या है?What is Ambedkarism in Hindi?

अम्बेडकर और सावरकर : भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुव

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वैसे तो अम्बेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, क्षेत्र  इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही अम्बेडकरवाद है और इस वाद का औजार है - आरक्षण! 

भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत किये गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है. 

बहरहाल दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया. ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से हिन्दू धर्म के प्राणाधार उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही. इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, भूस्वामित्व, राज्य संचालन, सैन्य वृत्ति, उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी. स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं.

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दलित : गुलामों के गुलाम

हिन्दू आरक्षण व्यवस्था (hindu reservation system) ने चिरस्थाई तौर पर भारत समाज को दो वर्गों में बांट कर रख दिया. एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग सवर्ण और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे. इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए. लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा.

रोम से लेकर अमेरिका तक मानवता को शर्मसार करने वाली जो दास प्रथा रही, उनमें गुलामों के लिए शैक्षणिक और धार्मिक गतिविधियां काफी हद तक मुक्त रहीं. मार्क्स के सर्वहारा सिर्फ आर्थिक रूप से विपन्न रहे पर, उनके लिए शिक्षा ग्रहण करने, अपने दुःख मोचन के लिए देवालयों में जाने तथा राजनीतिक गतिविधियों में शिरकत करने की कहीं भी मनाही नहीं रही! 

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इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं, जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया. यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा. इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही. वे गुलामों के गुलाम रहे. इन्हीं गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ. आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया.

आंबेडकरी आरक्षण से हुई हिन्दू आरक्षण की काट 

अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी. इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई. हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे. इससे धीरे-धीरे वे सांसद-विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे. दलित–आदिवासियों पर अम्बेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए. 

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संविधान में डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे कई राष्ट्रों के बराबर विशाल संख्यक पिछड़ी जातियों के लिए भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. उसके बाद ही अम्बेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए. लेकिन मंडल की जिस रिपोर्ट के बाद अम्बेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूना शुरू किया, उसी से इसके संकटग्रस्त होने का सिलसिला भी शुरू हुआ.

अम्बेडकरवाद को संकटग्रस्त करने के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार कौन है?     

मंडलवादी आरक्षण घोषित होते ही हिन्दू आरक्षण का सुविधाभोगी तबका शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए आंबेडकरी आरक्षण के खिलाफ मुस्तैद हो गया. इसके प्रकाशित होने के साल भर के अन्दर ही 24 जुलाई, 1991 नरसिह राव ने नवउदारवादी अर्थनीति ग्रहण की. इस अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत के शासक वर्ग ने आंबेडकरी आरक्षण के जरिये सामाजिक अन्याय की खाई से निकाले गए बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप ही आज अम्बेडकरवाद संकटग्रस्त हो गया है. 

24 जुलाई, 1991 के बाद शासकों की सारी आर्थिक नीतियाँ सिर्फ अम्बेडकरवाद की धार कम करने अर्थात आरक्षण के खात्मे और धनार्जन के सारे स्रोतों हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शिफ्ट करने पर केन्द्रित रहीं. इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों में किया, आंबेडकर प्रेम के दिखावे में सबको बौना बना चुके नरेंद्र मोदी ने उतना प्रधानमंत्री के रूप में अपने आठ साल के कार्यकाल में कर डाला है.

बहरहाल आरक्षण के खात्मे के मकसद से नरसिंह राव ने जिस नवउदारवादी अर्थनीति की शुरुआत किया एवं जिसे आगे बढ़ाने में उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने एक दूसरे से होड़ लगाया, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी जैसा शक्ति के स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है. 

आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दgकानें इन्हीं की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादा गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल व पोर्टल्स प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों के हैं. 

शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व के मध्य जिस तरह मोदी- राज में विनिवेशीकरण और निजीकरण के साथ लैट्रल इंट्री को जूनून की हद तक प्रोत्साहित करते हुए रेल, हवाई अड्डे, चिकित्सालय, शिक्षालय इत्यादि बेचने सहित ब्यूरोक्रेसी के निर्णायक पद सवर्णों को सौपें जा रहे हैं, उससे डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक - पूरी तरह एक सपना बनते जा रहे है. इस क्रम में अम्बेडकरवाद भारत में तेजी से अपना असर खोते जा रहा है.   

गुलामों की स्थिति में पहुँच गयी हैं वंचित जातियां 

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्र को संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर, 1949  को संसद के केन्द्रीय कक्ष से चेतावनी देते हुए कहा था,’ 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू होने के बाद हम एक विपरीत जीवन में प्रवेश करेंगे. राजनीति के क्षेत्र में मिलेगी समानता: प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार मिलेगा और उस वोट का समान मूल्य होगा. किन्तु राजनीति के विपरीत आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता. हमें इस असमानता को निकटतम भविष्य में ख़त्म कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.’ 

डॉ. आंबेडकर की उस चेतवानी को ध्यान में रखते हुए आजाद भारत के शासकों ने शुरुआत के प्रायः चार दशकों तक विषमता के खात्मे की दिशा में कुछ काम काम किया. इसी क्रम में ढेरों सरकारी उपक्रम खड़े हुए: बैंकों, कोयला खानों इत्यादि का राष्ट्रीयकरण हुआ. किन्तु 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने का बाद जब देश का शासक वर्ग अम्बेडकरवाद को संकटग्रस्त करने की दिशा में अग्रसर हुआ, भारत में मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या (आर्थिक और सामजिक –गैर-बराबरी) विस्फोटक बिंदु पर पहुच गयी. 

आज आर्थिक और सामाजिक विषमता की विस्फोटक स्थिति के मध्य, जिस तरह विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैट्रल इंट्री के जरिये शक्ति के समस्त स्रोतों से वंचित बहुजनों के बहिष्कार का एक तरह से अभियान चल रहा है, उसके फलस्वरूप, जिन वंचित जातियों को विश्व के प्राचीनतम शोषकों से आजादी दिलाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने वह संग्राम चलाया जिसके फलस्वरूप वह मोजेज, लिंकन, बुकर टी. वाशिंग्टन की कतार में पहुँच गए: वह जातियां आज विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुकी हैं. ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालात में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था.

सर्वव्यापी आरक्षण बने गुलामी से मुक्ति का प्रमुख एजेंडा!

बहरहाल भारत में आज वर्ग संघर्ष का खुला खेल खेलते हुए शासक दलों ने अम्बेडकरवाद को संकटग्रस्त करने के क्रम में जिन स्थितियों और परिस्थितियों का निर्माण किया है, उसमें बहुजनों को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों के लड़ाई की तरह एक नया स्वाधीनता संग्राम छेड़ने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है. इस क्रम में हम एक खास बात याद दिलाना चाहेंगे, वह यह कि दुनिया में जहां-जहां भी गुलामों ने शासकों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ी, उसकी शुरुआत आरक्षण से हुई. इसकी सबसे उज्ज्वल मिसाल भारत का स्वाधीनता संग्राम है. अंग्रेजी शासन में शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार दौर में भारत के प्रभुवर्ग के लड़ाई की शुरुआत आरक्षण की विनम्र मांग से हुई. तब उनकी निरंतर विनम्र मांग को देखते हुए अंग्रेजों ने सबसे पहले 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन के द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किया. एक बार आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखने के बाद सन 1900 में पीडब्ल्यूडी, रेलवे, टेलीग्राम, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर भारतीयों को नहीं रखे जाने के फैसले की कड़ी निंदा की कांग्रेस ने. तब उसने आज के बहुजनों की भांति निजी कंपनियों में भारतीयों के लिए आरक्षण का आन्दोलन चलाया था. हिन्दुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर, वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जाएँ. तब उनकी योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था, परीक्षा में कम ज्यादा नंबर लाना नहीं.

बहरहाल आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखते-चखते ही शक्ति के स्रोतों पर सम्पूर्ण एकाधिकार के लिए देश के सवर्णों ने पूर्ण स्वाधीनता का आन्दोलन छेड़ा और लम्बे समय तक संघर्ष चलाकर अंग्रेजों की जगह काबिज होने में सफल हो गए. 

भारत के स्वाधीनता संग्राम से प्रेरणा लेते हुए आंबेडकरवादियों को भी अपनी आज़ादी की लडाई सर्वव्यापी आरक्षण के लिए लड़नी चाहिए, जिसके दायरे में  शक्ति के समस्त स्रोतों अर्थात सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य, डीलरशिप; सप्लाई, सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि, ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में आरक्षण हो!   

अम्बेडकरवाद को चैम्पियन बनाने के लिए लड़नी होगी अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में रिवर्स पद्धति की लड़ाई! 

अम्बेडकरवाद की रक्षा की लड़ाई लड़ते हुए कुछ खास बातों को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है. भारत के शासक दलों की नीतियों के फलस्वरूप आज देश के टॉप की 10 % आबादी का जहाँ नेशनल वेल्थ पर 72% कब्ज़ा है, वहीँ नीचे की 50 प्रतिशत आबादी 3% धन-दौलत पर गुलर बसर करने के लिए विवश है. इसमें सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति आधी आबादी की  है, जिसके विषय में ग्लोबल जेंडर गैप-2021 की रिपोर्ट का दावा है कि भारत की आधी आबादी को  आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं. आज भारत नाईजेरिया को पीछे धकेल कर विश्व गरीबी की राजनधानी बन चुका है ,जबकि घटिया शिक्षा के मामले में भारत मलावी नामक छोटे देश को छोड़कर टॉप पर पहुँच गया है. देश की जो विशाल बहुसंख्य आबादी 3 से 6 % धन पर गुजारा करने के लिए विवश है; जिन समुदायों की आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं; जिनकी गरीबी के कारण भारत विश्व गरीबी की राजधानी बन गया है और जिनके बच्चे वर्ल्ड टॉप घटिया  शिक्षा पर निर्भर हैं वे और कोई नहीं आंबेडकर के लोग हैं: दलित,आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित! ऐसे में यदि अम्बेडकरवाद को बुलंदी प्रदान करना है तो शक्ति के स्रोतों का बंटवारा प्रचलित पद्धति के बजाय रिवर्स पद्धति में करना होगा. प्रचलित पद्धति के अनुसार शक्ति के स्रोतों के बंटवारे में प्राथमिकता जेनरल अर्थात सवर्ण वर्ग को मिलती है: इनके बाद बचा हिस्सा वंचितों अर्थात  दलित, आदिवासी,पिछड़ों को मिलता है. लेकिन शासकों के स्वार्थपरता से देश में जो भयावह विषमता की स्थिति पैदा हुई है, उससे समय की पुकार है कि शक्ति के स्रोतों के बंटवारे में प्राथमिकता सबसे पहले वंचित समुदायों को मिले. चूँकि आधी आबादी की दशा सबसे सोचनीय है इसलिए इतिहास की माग है कि वंचितों में भी सबसे पहले आधा हिस्सा उन समुदायों की आधी आबादी को मिले. 

इसलिए अम्बेडकरवाद के रक्षा की लड़ाई इस तरह हो कि  शक्ति स्रोतों: सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य,डीलरशिप; सप्लाई,सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली धनराशि, ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में सबसे पहले क्रमशः दलित , आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यकों और सवर्ण समुदायों के महिलाओं को 50% हिस्सा मिले. महिलाओं के बाद शेष पचास प्रतिशत हिस्सा उन समुदायों के पुरुषों को मिले. ऐसा करने पर अवसरों और संसाधनों में शेष 7.5% हिस्सा जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के पुरुषों को मिलेगा, जिन्होंने शक्ति के स्रोतों पर प्रायः 70 से 80% कब्ज़ा जमाकर अम्बेडकरवाद को असरहीन बना दिया है. जब सवर्णों की पुरुष आबादी अपने संख्यानुपात 7.5 % पर सिमटने के लिए बाध्य होगी तब उनके हिस्से का प्रायः 65 से 75% अतिरिक्त(सरप्लस) अवसर वंचितों में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा.ऐसी लड़ाई सफलता से लड़ने के बाद भारत समानता के मामले में विश्व के अग्रणीय देशो में शुमार होकर आर्थिक विषमताजन्य समस्त समस्यायों से पार पा लेगा तथा आधी आबादी 257 सालों के बाद अधिक से अधिक 57 सालों में आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबरी पर आ जाएगी. ऐसा होने पर अम्बेडकरवाद मनुवादियों की हर साजिश से पार पाकर निर्विवाद रूप से डेमोक्रेटिक व्यवस्था में श्रेष्ठतम वाद के रूप में स्थापित हो जायेगा!

- एच. एल. दुसाध

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

To protect Ambedkarism, a war like the freedom struggle will have to be fought!

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