Advertisment

कठपुतलियां बनाने की तैयारी : अब पढ़ाया जाएगा वर्दी वाला गुंडा

अब पढ़ाया जाएगा वर्दी वाला गुंडा | अगर साहित्य समाज का दर्पण होता है, तो... आजादी का अमृतकाल में समाज का सही चेहरा क्या है? अब छात्र पढ़ेंगे लुगदी साहित्य

Sarvamitra Surjan

सर्वमित्रा सुरजन

अब छात्र पढ़ेंगे लुगदी साहित्य

Advertisment

गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एमए के पाठ्यक्रम में 'लोकप्रिय साहित्यके प्रश्न पत्र (Question Paper of 'Popular Literature' in MA Course of Hindi Department of Gorakhpur University) का विकल्प रखा गया है। इसके तहत गुलशन नंदावेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक के 'नीलकंठऔर 'वर्दी वाला गुंडाजैसे उपन्यास पढ़ाने की बात की गई है। छात्रों को लुगदी साहित्य पढ़ने दिया जाएगाइस बात को लेकर बहुत से लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं। दरअसल कुछ लोगों की आदत ही होती हैहर बात में आदर्शों और सिद्धांतों की बात करने की। इन्हें लगता है कि जीवन में केवल अच्छी-अच्छी बातें ही की जाएंहर बात को गलत और सही को पैमाने पर परखा जाएतो दुनिया बेहतर बनेगी। लेकिन ऐसा कहीं होता है भला।

मर्यादाओं की बात करने से राम राज्य स्थापित नहीं होता। दुनिया के राजनैतिकसामाजिक इतिहास के पन्ने पलट कर देखिएबदलते वक्त के साथ नए-नए सिद्धांत पेश किए जाते रहेताकि इंसान और अधिक सभ्य बनेजिम्मेदार नागरिक बनेमानवाधिकारों की रक्षा होप्रकृति का संरक्षण हो। लेकिन क्या ऐसा हुआनहीं। दुनिया में अणु बम बने भी और गिराए भी गए। इसलिए अच्छा यही है कि कोरे आदर्शों की बात छोड़कर व्यावहारिक ज्ञान नई पीढ़ी को दिया जाए। गोरखपुर विश्वविद्यालय यही तो कर रहा है।

अगर साहित्य समाज का दर्पण होता है, तो... आजादी का अमृतकाल में समाज का सही चेहरा क्या है?

Advertisment

विश्वविद्यालय ने इस बात का भी संज्ञान लिया ही होगा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। भले ही गुलशन नंदा और सुरेंद्र मोहन पाठक गुजरे जमाने के लेखक हैंलेकिन समाज में चारों ओर नजर दौड़ाइए तो पता चलेगा कि उनकी लेखनी आज के माहौल को ही चित्रित कर रही है अर्थात उनके उपन्यास समाज का सही चेहरा दिखाएंगे। प्रेमचंदनिराला या महादेवी वर्मा इस समाज के लेखक अब कहां रहें या उनकी लेखनी के स्तर का समाज अब कहां रहा। गबन और गोदान में लिखी गई बातें अब मूर्खता लगेंगी। जब देश में आजादी का अमृतकाल चल रहा हैतब समाज में भाईचाराजाति प्रथा की बुराइयांगुलामी के कारणसांप्रदायिक तनाव इन सब पर कौन माथापच्ची करता रहे। किसे फुर्सत है कि परिचय इतनाइतिहास यही की व्याख्या करे और स्त्रियों का दर्द समझे। हिंदी के जो कालजयी उपन्यास या कहानियां हैंउनमें वही सारी बातें हैंजो उस वक्त के समाज में थीं। लेकिन अब समाज वैसा नहीं रहादेश वैसा नहीं रहातो साहित्य का अध्ययन भी वैसा क्यों रहे। अब बच्चों को वही पढ़ना चाहिएजो उन्हें रोजमर्रा के जीवन में नजर आता है और जिसमें उन्हें भी जीवन गुजारना है। सब के सब तो उठकर विदेशों में पढ़ाई के लिए नहीं जा सकते।

सरस्वती शिशु मंदिर और लुगदी साहित्य

सरस्वती शिशु मंदिर के बाद आगे की पढ़ाई यहीं करनी पड़ेगीतो क्यों न इस सच को स्वीकार करके ही पढ़ा जाए। और इस सच को स्वीकार करने में लुगदी साहित्य बड़े काम आएगा। क्योंकि इसमें बच्चों को वही सब मिलेगाजो वो टीवी चैनलों पर देख रहे हैंअखबारों में पढ़ रहे हैं। जैसे प्रेमचंद दलित को ठाकुर के कुएं से पानी न मिलने की मार्मिक व्याख्या करते हैंलेकिन उससे क्या समाज में दलितों को ठाकुरों के कुओं से पानी पीने मिल जाएगा। संविधान कहता हैतब भी ऐसा नहीं होता। बच्चे तो यही देख रहे हैं कि एक स्कूल का प्रधानाचार्य दलित बच्चे को अपने मटके से पानी पीने के कारण इतना पीटता है कि वो मर जाता है। किताब के सच और समाज के सच में इस फर्क को देखकर बच्चे भ्रमित हो जाएंगे कि सच क्या है। बच्चों को इस भ्रम से बचाने के लिए ही तो सारी कवायद की जा रही है।

Advertisment

क्या राजनीति भी समाज का दर्पण है?

साहित्य ही नहींराजनीति भी तो समाज का दर्पण है। जैसा समाजवैसे राजनेतावैसी ही राजनीति। तुम मुझे खून दोमैं तुम्हें आजादी दूंगाया जय जवानजय किसान जैसे नारों का आज बच्चे क्या करेंगे। वे हंसेंगे कि आजादी की बात तुम कर रहे होतो खून भी तुम्हीं दो। क्योंकि आज के बच्चे गोली मारोजैसे नारे सुनकर बड़े हो रहे हैं। कोई छुटभैया नेता ऐसी बातें करेतो उस पर गुंडे-मवाली का टैग लगाया जा सकता है। लेकिन माननीयों के मुख से अब ऐसी ही बातें निकल रही हैंतो उन्हें किस तरह गुंडा-बदमाश कहा जा सकता है। उन्हें तो झोले वाला या सूट-बूट वाला गुंडा भी नहीं कह सकते। क्योंकि वे तो खुद को विश्वगुरु कहते हैं। अपनी गुरुता में वे सुपारी ले ली हैया उल्टा लटका कर सीधा कर देंगेजैसी बातें जनसभाओं में करते हैं। 

अब लुगदी साहित्य के आलोचक जरा बताएं कि इन नारों को किस साहित्य में रखा जा सकता है। इससे पहले देश में प्रधानसेवक स्तर के किसी व्यक्ति ने ऐसा नहीं कहा कि मुझे बदनाम करने की फलाने ने सुपारी ले ली है। ऐसी भाषा तो हिंदी फिल्मों के मुंबइया डॉन लोग बोला करते थे। तब मां-बाप बच्चों को ऐसी फिल्में देखने से रोकते थेताकि उनके विचारों और भाषा का स्तर खराब न हो। तब लुगदी साहित्य भी दूसरी किताबों के भीतर रखकर पढ़ा जाता था। बड़ों के सामने ऐसी किताबें हाथ में नहीं ली जाती थीं। लेकिन अब राजनैतिक सभाओं में माफिया वाली भाषा बोली जा रही हैतो मां-बाप बच्चों को ऐसे भाषण सुनने से रोक नहीं सकते। वैचारिकता के साथ भाषायी गिरावट का झरना जब ऊपर से नीचे तक बह रहा हैतो विद्यार्थियों को उससे बचाया नहीं जा सकता।

Advertisment

वर्दी वाला गुंडा क्यों पढ़ाया जाएगा?

इसलिए गोरखपुर विश्वविद्यालय का तो धन्यवाद करना चाहिए कि उसने सच का सामना करने और करवाने की हिम्मत सबसे पहले दिखाई है। जल्द ही इसका अनुसरण बाकी विश्वविद्यालय करते दिखेंतो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे भी हमारे विश्वविद्यालयों में अब जमाना गुटबाजी से गैंगबाजी तक पहुंच गया है। गुटबाजी में थोड़ी मासूमियत बची रहने का एहसास होता थालेकिन अब बच्चों के साथ गैंग शब्द नत्थी करने का राजनैतिक दौर चल रहा है। इस गैंग युग में बच्चे देख रहे हैंसमझ रहे हैं कि स्कूलों में मॉरल साइंस यानी नैतिकता के जितने पाठ पढ़ाए गएहकीकत में उनका कितना कम इस्तेमाल किया जा रहा है। बच्चों को अंकों की दौड़ में आंख पर पट्टी बांधे जानवर की तरह दौड़ाया जाता हैउन्हें हांफने की इजाज़त भी नहीं होतीवर्ना वे असफल करार दिए जाते हैं। लेकिन ऊंचे पदों पर बैठे 56 इंची छाती वाले लोग अपनी असली डिग्री दिखाने की हिम्मत भी नहीं करते। कोई उस पर सवाल करे तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है। शिक्षा और ज्ञान के अलावा भी डिग्री दूसरे तरीकों से हासिल की जाती हैइस सच को भी बच्चे देख रहे हैं। इसलिए अच्छा है कि उन्हें वर्दी वाला गुंडा ही पढ़ने दिया जाए। कम से कम इससे वे आगे कुंठित होने से बच जाएंगे।

बच्चों की आसानी के लिए अब विश्वविद्यालय के अलावा स्कूली स्तर के पाठ्यक्रम में भी बदलाव किया गया है। मुगलों के इतिहास को स्कूली पाठ्यक्रम से लगभग गायब किया जा रहा है। लोकतंत्र और विविधतालोकतंत्र और चुनौती जैसे अध्याय नागरिक शास्त्र से हटाए जा रहे हैं। गांधी की हत्या के कारण और हत्यारों के इरादों को किताब से मिटा दिया गया है। भारत का इतिहास और राजनीति इन सबके बिना बन ही नहीं सकता। लेकिन अभी तो नया इतिहास और नयी राजनीति रची जा रही है। जिसमें यही सारी बातें बाधाएं लग रही हैं। इसलिए अभी बाधाओं को हटाने का काम चल रहा है। केवल सड़कों और शहरों के नाम बदलने से देश थोड़ी ना बदल जाएगा। देश तो लोगों के बदलने से बदलेगा। इसलिए नयी रस्सियां बांध कर कठपुतलियां तैयार की जा रही हैं।

Advertisment

सर्वमित्रा सुरजन

लेखिका देशबन्धु की संपादक हैं।

Advertisment
सदस्यता लें