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आप सोशल मीडिया-मीडिया पर अंगुली क्यों उठाते हैं?

आप यदि सोशल मीडिया, मीडिया और साहित्यालोचना के बारे में नहीं जानते तो जाने बिना लिखते क्यों हैं ॽ सोशल मीडिया-मीडिया पर अंगुली उठाकर आप मूलतः अपने निकम्मेपन पर ही अंगुली उठाते हैं।

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आप सोशल मीडिया-मीडिया पर जाने बिना क्यों लिखते हैं ॽ

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आप यदि सोशल मीडिया, मीडिया और साहित्यालोचना के बारे में नहीं जानते तो जाने बिना लिखते क्यों हैं ॽ सोशल मीडिया-मीडिया पर अंगुली उठाकर आप मूलतः अपने निकम्मेपन पर ही अंगुली उठाते हैं।

ज्ञानियों का एक वर्ग है जो  सोशल मीडिया और उस पर लिखने वालों पर बेसिर-पैर की बातें लिखकर सोशल मीडिया के संबंध में अपनी अज्ञानता और घृणा का परिचय देता रहता है, जब कम्युनिकेट करना नहीं आता तो ´हाय हाय´, ´पतन पतन´की भाषा बोलने लगते हैं।

आधुनिक मीडियम और विधारूपों के विकास में आत्मप्रचार की भूमिका

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जितने भी आधुनिक मीडियम और विधारूप हैं वे आत्मप्रचार के बिना नहीं बनते। किसी में यह मात्रा कम है तो किसी में ज्यादा।आत्मप्रचार या प्रचार ये दोनों संचार के लिए जरूरी तत्व हैं। हिन्दी साहित्य में इन दिनों साहित्यकार, लेखक, आलोचक आदि की जो दयनीय स्थिति नजर आ रही है उसकी जड़ें हिंदी विभाग की संरचना, शिक्षक की वैचारिक संरचना और ज्ञान की विश्वव्यापी परंपरा से उसके अलगाव में है।

क्या सोशल मीडिया या मीडिया से आलोचना के ह्रास का कोई संबंध है?

आलोचना के ह्रास का सोशल मीडिया या मीडिया से कोई संबंध नहीं है। दूसरी बात यह कि साहित्यालोचना कभी अखबारों या सोशल मीडिया से नहीं बनी। दुनिया के सभी प्रमुख आलोचकों ने जो भी आलोचना लिखी है, वह मीडिया से प्रभावित होकर या मीडिया में रहकर नहीं लिखा है।

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साहित्यालोचना की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार?

साहित्यालोचना की दुर्दशा के लिए लेखक-आलोचक-प्रकाशक और हिंदी के शिक्षक सीधे जिम्मेदार हैं।

सवाल यह है आलोचकों ने आलोचना लिखनी क्यों बंद कर दी ॽ क्या सोशल मीडिया या मीडिया ने आलोचना न लिखने के लिए दवाब डाला है ॽ या फिर आलोचना न लिखने के लिए कोई फतवा जारी हुआ है ॽ

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प्रत्येक माध्यम खास ऐतिहासिक परिस्थितियों में जन्म लेता है, यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप जानें कि सोशल मीडिया क्यों और कैसे आया ॽ लेकिन आपकी प्रकृति है कि आप बिना जाने लिखते हैं। यह दोष है, लेकिन अधिकांश हिंदी प्रोफेसरों में बिना जाने लिखना-बोलना अब दोष नहीं माना जाता, हम सभी में यह बीमारी अंदर तक घुस आई है कि हम बिना जाने हर विषय पर बोलने और लिखने को तैयार हो जाते हैं।

हर मीडियम की अपनी सर्जनात्मक क्षमता होती है, मीडियम में सर्जनात्मक क्षमता न हो तो वह आम जनता में स्वीकृति अर्जित नहीं कर पाता। सोशल मीडिया की सर्जनात्मक क्षमता अब तक के सभी माध्यमों से कई गुना ज्यादा है। यह मानव सभ्यता का अब तक का सबसे शक्तिशाली माध्यम है। इसमें पहले के सभी माध्यम समाहित हैं। यह माध्यम तिकड़म-घृणा-जोड़तोड़ आदि के आधार पर अपना विकास नहीं करता।

रीयल टाइम मीडिया है सोशल मीडिया
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सोशल मीडिया वस्तुतः कम्युनिकेशन का मीडियम है। इसमें जो व्यस्त है वह सर्जक है। हिंदी के स्वनामधन्य आलोचकों का इससे कोई संबंध नहीं है। यह सोशल मीडिया है, रीयल टाइम मीडिया है, यह साहित्य नहीं है। यह नए किस्म का कम्युनिकेशन है। यह साहित्य नहीं है। हम जिसे साहित्य कहते हैं वह प्रिंटयुग और उससे पूर्व की विरासत की देन है।

सोशल मीडिया और उसके विधारूप भिन्न हैं। उनको पुराने साहित्यरूपों के साथ एकमेक नहीं करना चाहिए। साहित्यालोचना के पतन के कारण सोशल मीडिया में नहीं खोजने चाहिए। साहित्यालोचना के पतन पर हम समय-समय पर बहुत लिख चुके हैं, फुरसत हो तो पढ़ लें।

दूसरी बात यह कि सोशल मीडिया आने के बाद पहली, दूसरी, तीसरी साहित्य परंपरा का अंत हो चुका है। साहित्य की मनमानी परंपरा बनाकर जिस रास्ते पर हिंदी वाले चलते रहे हैं उसको हमेशा के लिए दफ्न कर दिया गया है।

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सोशल मीडिया के अपने ठाट हैं, अपना मुहावरा है, अपनी सर्जनात्मकता है और विराट संचार का रीयल टाइम फलक है। इसने सामान्य से पाठक को भी शक्तिशाली बनाया है। लेखक को भी ताकत दी है। वे लेखक सोशल मीडिया से शक्ति ग्रहण नहीं कर सकते जो पुराने मीडिया से रीतिवादियों की तरह अभी भी जुड़े हैं।

प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी

Why do you point fingers at social media?

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