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Opportunities in disaster: This disaster is not natural but pure man-made
आपदा में अवसर !
मेधाएँ काम पर लगी हैं।
वे जल्दी ही इस महानिकाले को महाभिनिष्क्रमण बना देंगी।
वे मजदूरों के इस अभूतपूर्व हांके को त्याग, तपस्या और घर वापसी की रूमानी कहानियों में बदल देंगी।
वे भुला देंगी कि लोगों को धक्का दिया गया। उनकी रोजी, रोटी और खोली छीनकर उन्हें सड़कों पर धकेला गया। उनके पास कोई चारा नहीं छोड़ा गया। उन्हें एक दिन की मोहलत भी नहीं दी गई।
गोदामों में इतना अन्न जमा है कि सारे देश को दो तीन बरस बिठा कर खिलाया जा सकता है। लाखों टन अनाज चूहे खा रहे हैं, बर्बाद हो रहा है या सड़ रहा है।
तमाम धर्मशालाएं, होटल, स्कूल, कॉलेज खाली हैं। करोड़ो बेरोजगार बैठे हैं।
एक-एक मजदूर के सम्मानजनक अवकाश का इंतजाम किया जा सकता था। लेकिन नहीं किया गया। जान बूझकर। समझ बूझ कर।
यह आपदा को अवसर में बदलने की कला है। शहर मजदूरों से खाली हो जाएंगे तो छोटे मोटे काम धंधे बंद होंगे और बड़े पूँजीशाहों के दिन बहुरेंगे।
मजदूर कमजोर होगा तो उसके रहे सहे मानवीय अधिकार भी छीने जा सकेंगे। इसे महान सुधार बताया जाएगा।
उधर खेती में भी बड़े पूँजीशाहों द्वारा ठेके पर खेती का रास्ता खोलकर छोटे किसानों को बेदखल किया जाएगा। इसे कृषि सुधार कहा जाएगा।
मजदूरों के प्रतिरोध को पूरी तरह खत्म करके संकट में पड़ी पूंजी के लिए रास्ता हमवार किया जाएगा।
हम दो अलग-अलग आपदाओं का सामना कर रहे हैं।
महामारी तो सारी दुनिया में है। लेकिन महानिकाला, इतने बड़े पैमाने पर और इस कदर बेरहम, केवल भारत में है।
यह दूसरी आपदा प्राकृतिक नहीं है। शुद्ध मानव निर्मित है। यह पिछले सौ वर्षों की सबसे बड़ी शान्तिकालीन त्रासदी है।
क्या नेताओं-नौकरशाहों को करोड़ो प्रवासी मजदूरों के वज़ूद का भान ही नहीं था? क्या वे अचानक धरती फाड़ के सामने आ गए?
क्या कुछ साल पहले नोटबंदी करने वालों को इल्म ही नहीं था कि लोगों को कितनी तकलीफ होगी? कि इकोनॉमी किस कदर तबाह होगी?
या जान बूझ कर उसे इस तरह किया गया कि लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा तकलीफ़ हो?
जैसे तालाबन्दी की गई। चार घण्टे की नोटिस पर। मुक़म्मल तालाबन्दी।
दुनिया के सबसे बड़े महामारी-ग्रस्त देशों ने भी ऐसा नहीं किया।
घरेलू हिंसा सब जगह है। लेकिन पक्के पितृसत्ताक बीवी को ज़्यादा से ज़्यादा चोट पहुंचाने के तरीके ढूंढते हैं।
अधिकतम बेरहमी से मारने के प्रयोग करते हैं। सबसे ज़्यादा बेतुके बहाने ढूंढते हैं।
वे समझबूझ कर ऐसा करते हैं। इससे तकलीफ़ को बर्दाश्त करने का माद्दा बनता है। दासता की आदत डाली जाती है। पीड़ित को हिंसा में मज़ा आने लगता है।
क्या भारत की जनता राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे ही किसी प्रयोग का सामना कर रही है?
यह प्रयोग एक नवाचार है। दुनिया में इसकी कोई मिसाल नहीं है। इतिहास इसके लिए सही नाम की तलाश करेगा। कुछ लोग इसे मोदीत्व कहते हैं।
प्रो. आशुतोष कुमार की एफबी टिप्पणी के संपादित अंश