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पैबंद की हँसी : गोल टिकुली के पीछे कसमसाते शब्द

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Guest writer
12 Sep 2022
चल ना वहाँ ...

पैबंद की हँसी

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बरेली कवियों -शायरों का मनपसन्द शहर है। किशन सरोज, ज्ञानवती सक्सेना, वसीम बरेलवी - ये कुछ ऐसे नाम हैं, जो बरेली के बाजार में नहीं, कविता के घर-आँगन में झुमका गिराते हैं। बरेली की कविताई का अपना ही रंग और अपना ही नूर है। समकालीन पीढ़ी में भी यहाँ के कई नाम ऐसे हैं, जिन्होंने वैश्विक स्तर पर नाम कमाया है। उनमें से एक, मेरी आत्मीय कवयित्री डॉ कविता अरोरा हैं, जिन्होंने स्वयं तो नाम कमाया ही, दूसरों की भी मदद करने के लिए हाथ बढ़ाया है।

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कविता जी के सृजन और वाग्मिता से मेरा घनिष्ठ परिचय एक बार बरेली में ही 'गीतगागर' मंच पर हुआ, जिसकी वह संचालक थीं और जिसमें मेरा एकल काव्यपाठ था। यह एक विशिष्ट साहित्यिक आयोजन था, जिसके मूल में बरेली के तत्कालीन डीएम वीरेंद्र कुमार सिंह जी थे, जो गीत के अद्भुत पारखी हैं। उस आयोजन में कविता जी से मैं पहली बार मिला था, तबियत भी मेरी बहुत खराब थी। इसके बावजूद कविता जी के धारा-प्रवाह संचालन ने ऐसा समां बाँधा कि दर्शक दीर्घा झील के पानी की तरह अंत तक स्थिर रही। एक दिन में ही पारिवारिक अपनत्व-सा हो गया कविता जी से।

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बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि ये पास के ही उस बदायूँ नगर की हैं, जहाँ कवियों को सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलता है।

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कार्तिक पूर्णिमा को जन्मी कविता जी एमए, पीएचडी और प्रयाग संगीत समिति से सीनियर डिप्लोमा प्राप्त हैं। संगीत में अपनी विशेषज्ञता का लाभ उठाते हुए इन्होंने पीएचडी डिग्री का विषय भी ऐसा ही चुना था- रुहेलखंड मंडल में संगीत व्यवसाय में कार्यरत व्यक्तियों का समाजशास्त्रीय अध्ययन।'

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जहाँ तक मुझे मालूम है, संगीत व्यवसाय का समाजशास्त्रीय अध्ययन करने वाली ये प्रथम विदुषी हैं। नए दौर के अनुकूल इन्होंने डिजिटल दुनिया में भी बड़ी महारत हासिल की हैं और इनका पोर्टल हस्तक्षेप गूगल द्वारा दो बार सम्मानित भी हुआ है।

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देश के सबसे पुराने पोर्टल में से एक 'हस्तक्षेप.कॉम' की सह सम्पादिका के रूप में इन्होंने देश भर के कवियों, गीतकारों और गद्यकारों के ऑडियो - वीडियो बनाये, लाइव डाक्यूमेंट्री बनायीं और 'साहित्यिक कलरव' का संयोजन करते हुए तमाम कवियों को डायरियों के पृष्ठों से निकाल कर डिजिटल दुनिया की सैर करायी। यह अपने में एक बड़ी उपलब्धि है।

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छात्रावस्था में ये एआईएसएफ की जिला अध्यक्ष भी रहीं और बाद में 'सुरकला संगम' के माध्यम से देश के तमाम नामी-गरामी कवियों और शायरों को बरेली के काव्यमंच पर लाने का महत्वपूर्ण प्रयास भी किया। एक हजार से अधिक साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामजिक आयोजन ये कर चुकी हैं, जिनमें दस दिवसीय मुंशी प्रेमचंद महोत्सव '19 उल्लेखनीय हैं।

इनका रिश्ता अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से ऐसा है कि इनके हाथ लगाए बिना किसी का गोवर्धन उठ ही नहीं पाता।

इसके अलावा दो दर्जन से अधिक देशों की भिन्न-भिन्न हैसियत से यात्रा भी इनकी उपलब्धियों के विशिष्ट खाते में है।

प्रसार भारती से लम्बी अवधि से ताल्लुक रहने के कारण कविता जी आकाशवाणी और दूरदर्शन पर आये दिन दिखती रहती हैं। छायी रहती हैं पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों पर अपनी कविता, कहानी, निबंध की लड़ी के साथ। इस सबके बावजूद ये कितनी सहज-सरल हैं ! फलों से लदी आम की झुकी डाली की तरह सरस, सुरभित और सुमधुर। इनकी कविताओं के भी कमोबेश ये ही गुण हैं।

इस संग्रह की कविताएँ आपको ऐसा बाँधती हैं कि बहुत देर तक एक अनुरणन आपके दिलो-दिमाग में काँपता रहता है। बड़े-बड़े दावे नहीं। बड़ी-बड़ी डींगें भी नहीं। ये कविताएँ महज अपनी तुर्श भाषा और इश्कबाज लहजे से आपकी दुखती रगों को सहलाती हैं। तनाव पैदा करने वाली कविताएँ तो हर जगह मिल जाएँगी, मगर सुकून देने वाली हवा के झोंके आपको इन्हीं कविताओं की झुरमुटों में मिलेंगी। कैसे -कैसे शब्दचित्र हैं ! मैं देखकर अवाक् हो गया -

रात की पड़ी गालियां बुहार

कच्चे आँगन में

गोबर के फूल डालती है।

उपले पथी दीवारों पर

सप्राण टँगी क्लासिक तस्वीरें। ..

देर तक मैं सोचता रहा कि काश ! मेरे पास ऐसी भाषा होती !

छंदमुक्त कविताएँ तभी पाठक को बाँधती हैं, जब उसके अल्फाज में नयापन हो, जादू हो।

 'शक्ल पर चिंताओं के पैरों के निशान'

 'इश्क के जिस्म को जिन्दा चिना जाना मंजूर नहीं'

 'इक उनींदी रात के पाँव में इश्क पहना दे' '

'गोल टिकुली के पीछे इक दास्ताँ मौन है'

 ये कुछ पंक्तियाँ हैं, जिन्होंने न केवल पूरी कविता में जान डाल दी है, बल्कि हिंदी भाषा को भी नया तेवर दिया है।

वैसे, कला संकाय के पाठ्यक्रमों में काव्यांश को रखने का प्रयोजन भी यही है कि शिक्षार्थी भाषा की बारीकियों और आंतरिक सौंदर्य से परिचित हो जाए।

एक कविता में ये कहती हैं-

नींद को बेचैन टहलते हुए देखती हूँ

घर के पीछे वाले बाग़ में।

नींद का बेचैन होकर रात में पीछे वाले बाग़ में टहलना अनूठा प्रयोग है।

भावों की यह सान्द्रता इन्हें अमृता प्रीतम के पास ले जाती है। गोल टिकुली के पीछे कसमसाते शब्द तीसरी कसम खाकर आपको लौट आने को विवश करते हैं।

इनकी बेचैनी शब्दों की बेचैनी में तब रूपांतरित हो जाती है, जब ये कहती हैं -

कई दफा बिस्तर के इक किनारे पर

पड़ी रही हूँ मैं

रात रात भर, एक ही करवट।

इन छंदमुक्त कविताओं में मैंने कदम-कदम पर गीतों, ग़ज़लों और नज़्मों के नए तेवर देखे। जिंदगी और ख्वाब के, प्यार और मनुहार के अनेक रूप देखे हैं।

मैं कविता जी को बधाई देता हूँ कि इन्होंने हिंदी कविता को नया तेवर दिया, नयी भाव-भंगिमा दी।

साथ ही, कृतज्ञता भी व्यक्त करना चाहता हूँ कि इन्होंने इन कविताओं को समग्र रूप से पढ़ने का पहली बार अवसर मुझे ही दिया।

यदि आपने यहाँ तक पढ़ा है तो मुझे पूरा विश्वास है कि आप एक साँस में पूरी किताब पढ़ जाएँगे और अंत में आप जरूर कहेंगे कि

मैंने जितना कहा, उससे कई गुना अधिक खूबसूरत हैं कविता जी की ये कविताएँ।

बुद्धिनाथ मिश्र

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