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पपीहरा : मिट्टी के खिलौने बनाने वाली प्रेमलता की कहानी

पपीहरा : मिट्टी के खिलौने बनाने वाली प्रेमलता की कहानी

Papihara: Story of Premlata who made clay toys

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पिछले दिनों कई बार बेंगलुरु, दिल्ली जाना हुआ, तब समझ आया कि कंक्रीट के बसते जंगलों में हम जमीन और मिट्टी से कितने दूर होते जा रहे हैं। बड़े शहरों में मिट्टी और उसकी खुशबू कितनी दूर की बात लगती है, इसलिए मन में एक चाह रह जाती है काश कि हम अपने गांव की मिट्टी में वापस जा पाते। आज हम मिट्टी से जुड़ी एक संघर्षशील लोक-कलाकार प्रेमलता की बात करेंगे, जो मिट्टी के खिलौने बनाना सिखाती हैं।

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बीते तीस वर्षों से मध्य प्रदेश के पिपरिया में रहने वाली प्रेमलता शौकिया तौर पर मिट्टी से खिलौने बनाने का काम करती हैं। प्रेमलता बच्चों और बड़ों को भी मिट्टी के विभिन्न खिलौने बनाना सिखाती हैं।

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प्रेमलता के बनाए खिलौनों पर इतनी सुंदर डिजाईन किस तरह से बनाई जाती है, जानकर हैरानी होती है। आमतौर पर फेंक दी जाने वाली तरह-तरह की चीज़ें, जैसे गुजिया बनाने का सांचा, टूटे खिलौनें आई-ड्रॉप की शीशी, स्केच पेन के ढक्कन, तरह-तरह की चूड़ियां, पेन की रिफिल, प्यालियां आदि, इसके अलावा भी बहुत तरह के सामान प्रेमलता जी के पिटारे में मिल जाते हैं। प्रेमलता इनका इस्तेमाल मिट्टी के खिलौनों को आकार और उन पर डिजाईन बनाने के लिए करती है।

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सर्वाधिक लोकप्रिय खिलौना पपीहरा

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इन खिलौनों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय तरह-तरह के आकार वाली सीटियां है, जिसे प्रेमलता पपीहरा कहती हैं।

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प्रेमलता कहतीं है कि बच्चों और बड़ों को भी इस तरह की सीटियां बनाना और बजाना चाहिए। मिट्टी को आकार देते समय हम प्रकृति से जुड़ाव तो महसूस करते ही हैं, कलात्मकता को भी समझते हैं, सीटी बजाने से सांसों की कसरत होती है और फेफड़े मजबूत होते हैं, तो स्वास्थ्य को भी फायदा होता है।

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हाथों में मिट्टी को आकार देते-देते प्रेमलता पंडित अपनी कहानी बहुत ही उत्साह से सुनाते हुए कहती हैं कि, 'गांव में जब गाय चराने जाती थी और गायों को बुलाना होता था, तो मैं हाथ से बनाई मिट्टी की सीटी बजाती और मेरी गाय मेरे पास आ जाती और उसके पीछे-पीछे दूसरों की गाय भी आ जाती' ।

वह आगे कहती हैं मुंगेर में रहते थे, बचपन में कभी स्कूल नहीं जाने दिया, लेकिन स्कूल से बाहर छुप छुप कर सुनती तो पाठ याद हो जाता, बकरी चराते समय वही पाठ साथ के बच्चों को सुनाती। तब किसी बच्चे ने स्लेट, किसी ने कलम दे दी।

वह बताती हैं कि एक दिन उन्होंने अपनी मां से कहा कि “मैं स्कूल जाऊंगी”। उसी दिन शाम को खाना खाते समय मां ने बाबूजी को बता दिया। बाबूजी ने हंस कर कहा कि ईए-बीए पास कर लेगी और लिए-दिए साफ कर देगी।

उनकी हंसी सुनकर प्रेमलता को थोड़ा बुरा लगा तो बाबूजी ने समझाया- तू पढ़ना चाहती है, सुनकर अच्छा लगा, लेकिन यहां तो कोई बेटी पढ़ती ही नहीं है, तू कैसे इतनी दूर जाएगी। इस गांव से तो केवल तीन ही बेटियां जो विधायक, वैद्य़ और सरपंच की हैं वही पढ़ने जाती है।

वह कहती हैं, “मैं तो स्कूल जाऊंगी”, मैंने जिद पकड़ ली।

प्रेमलता आगे बताती हैं, पहले ही दिन स्कूल चली तो और बच्चे भी मिल गए। दो नदी पार कर ली, फिर एक नाले को पार करते हुए दो बच्चे बहने लगे, मैंने छलांग मार कर एक बच्चे का पैर पकड़ लिया और उसे बचा लिया, एक बच्चा बह गया। घर वापस गई तो बहुत डर गई, घर के आसपास भीड़ जमा थी, लगा कि अब तो मार पड़ेगी। लोगों ने बाबूजी से कहा कि आपकी बेटी ने जान बचा ली, तब बाबूजी ने गले लगा लिया। कहते- कहते प्रेमलता जी का गला भर आया, बोलने लगीं कि बाबूजी भी बहुत डरते थे, कहने लगे कि बेटी इसलिए मैं मना करता था।

वह बताती हैं घर में चाक पर काम होता था, लेकिन उन दिनों लड़कियों को चाक पर बैठने की भी मनाही थी। बचपन में आवाज निकलने के लिए आम की गुठली, कनकव्वै की पत्तियों से सीटी बजाते। मिट्टी से खेलतीं, हाथ से मिट्टी के बर्तन वगैरह तो बना लेती थीं, मैदान में मिट्टी के खिलौने बनाने लगीं और वहीं पर तरह-तरह के पपीहरे बनाने लगीं। वह कहती हैं कि अब तो बच्चों को समय ही नहीं मिलता और मौके मिलते भी है तो मां-बाप कहते है कि हाथ, पैर, कपड़े गंदे हो जाएंगे। हमको अच्छा ही लगता है कि हमने वो दिन देखे हैं। खेत-खलिहान हल बख्खर का सब काम करना हमें आता था।

वह बताती हैं, “चुपके से चाक पर हाथ आजमा लेती थी। मां को मालूम पड़ा तो उनको भी अच्छा लगा। मां बीमार रहने लगी तो जल्दी ही बारह साल की उम्र में ही शादी कर दी गई। शादी क्या होती है मालूम ही ना था, हम तो सहेलियों के साथ दुल्हन दुल्हन खेलती थीx। तीन साल बाद गौना हुआ और तब से पिपरिया में ही हूं। एक बार अपने बच्चे को पपीहरा से आवाज निकाल कर बहला रही थी, तभी उसकी आवाज सुनकर डॉ. मीरा सदगोपाल पास आई, उन्होंने पपीहरा देखा और कहा तुम नहीं जानती कि इसको बनाने के क्या मायने हैं। फिर उन्होंने बहुत प्रोत्साहित किया, तब से मिट्टी के खिलौने बनाने और सिखाने का सिलसिला दुगने उत्साह से आज तक चल रहा है।“

प्रेमलता जी ने देवास, हरदा, दिल्ली, भोपाल, खजुराहो, उज्जैन, लखनऊ, मुम्बई, शाहपुर, चीचली, धमतरी और राजस्थान के इलाकों में बहुत सारी कार्यशालाएं कीं। उज्जैन में कलागुरू विष्णु चिंचालकर स्मृति पुरस्कार मिला। मुम्बई में एक फैलोशिप मिलने वाली थी, लेकिन छोटे कस्बे से कस्बे से आने के कारण वह फैलोशिप उनको नहीं मिल सकी। म.प्र. माटीकला बोर्ड से भी सम्बद्ध हैं तो लोकरंग और अन्य कार्यक्रमों में उनको बुलाया जाता रहा है।

अपने बीते दिनों की याद करके प्रेमलता बतातीं है कि एक बार लखनऊ में कार्यशाला के दौरान कुछ बच्चियों ने मिट्टी का पपीहरा तो बना लिया, लेकिन उसे बजाने ने इंकार कर दिया। बहुत पूछने पर एक बच्ची ने बताया कि वह सीटी नहीं बजा सकतीं क्योंकि वह लडकी है, यह सुनकर वह दंग रह गईं।

राजस्थान में एक सम्मेलन में 5000 से अधिक महिलाएं आई थी, उनमें कईं बूढ़ी महिलाओं ने विभिन्न खिलौने बनाना सीखे और सीटी बनाई और बजाई भी।

प्रेमलता का शुरू से खेत खलिहान नदी पानी और प्रकृति जुड़ाव रहा है, इसलिए उनकी बनाए हुए आकारों में गिलहरी, हाथी, छिपकली, पैर, कछुआ, सांप मिलते ही है। पपीहरा के लम्बे, गोल और विभिन्न आकृतियों के होते हैं।

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प्रेमलता ने कभी भी इन आकृतियों रंग करने का नहीं सोचा, जैसी भी आकृतियां हैं मूल रूप से ही रखती हैं। खिलौनों को जमीन पर, भट्टी में और मटके में भी पका लेती हैं, लेकिन लोग तो बिना पका भी ले लेते हैं।

बहुत सादगी और सहज रूप से रहने वाली प्रेमलता बताती हैं कि कभी भी इंसान और भगवान का आकार नहीं बनाती, बचपन में मां ने कहा था कि कोई चूक हो गई तो बहुत दुख मिलेगा, वह बात मन में रह गई।

प्रजनन जागरूकता कार्यक्रम में चालीस साल पहले काम करतीं थीं। प्रेमलता बतातीं है कि वह पढ़ी-लिखी नहीं हैं, थोड़ा बहुत लिखना जानती थीं, एक बार किसी रिपोर्ट में उन्होंने बच्चेदानी को मच्छरदानी लिख दिया तो उनकी खूब हंसी उड़ाई गई, मन में आज भी लगता है कि काश मैं पढ़ पाती।

वह याद करतीं है कि पिताजी जब पिपरिया आए तो वह रोने लगे, कहने लगे माफ करना, मैं तुम्हें पढ़ा नहीं सका, पढ़ा देता तो आज कहीं और होती। अब मुझे लगता है बच्चे कोई अवसर ना चूकें, उनको मिट्टी से जोड़ सकूं, खूब सिखाऊं उनका साथ दूं।

प्रेमलता बच्चों के साथ काम करते हुए, खिलौने बनाते हुए बहुत खुश हैं। कोई अवसर चूके नहीं तो प्रेमलता के संघर्ष को याद कर कबीर याद आ ही जाते हैं जैसे कुम्हार द्वारा मिट्टी रौंदने की प्रक्रिया में बहुत सहना पड़ता है, उसी प्रकार जीव को रूप ग्रहण करने में काल और कर्मों की अनेक यातनाएं सहनी होती हैं।

माटी मलनि कुँभार की, घनी सहै सिरि लात।

इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अबकी घात।।

- मनोज निगम

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

Papihara: Story of Premlata who made clay toys

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