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Parliament dissolution in Nepal: Oli narrative is the natural culmination of cash Maoism
बीते जनवरी महीने में नेपाल की संसद को जबरिया भंग करते हुए ही नेपाल में हिटलर (Hitler in Nepal !) के ओली आख्यान का जन्म हुआ है. इस आख्यान का नाम खड्ग प्रसाद ओली उर्फ़ केपी ओली (Khadga Prasad Sharma Oli commonly known as K. P. Sharma Oli) है, जो आज नेपाल के प्रधानमंत्री हैं.
इस त्वरित टिप्पणी में केपी ओली के हिटलर अवतार के वैचारिक कैनवास को विवेचित करने का प्रयास किया गया है.
केपी ओली इतिहास की उस उपज की पैदावार हैं, जिसे लेखक “कैश माओवाद” (Cash Maoism in Nepal) के रूप में सूत्रबद्ध करता है.
बरसों पहले नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-माले ने यांत्रिक मार्क्सवादी थीसिस “सेमी-कोलोनियल, सेमी फ्यूडल” की पीठ पर सवार होकर नेपाल में गास-बास-कपास, लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के सवालों को हल करने के लिए झापाली आन्दोलन चलाया था. जिसके मूल में था, माओ विचार (या माओवाद) अर्थात् सशस्त्र संघर्ष की धारा जो सत्तर के दशक में भारत के नक्सलवाड़ी से नेपाल के झापा जिले में फैली थी.
उस दौर में इसके नेपाली समाज में फैलने से पहले ही राजशाही की निरंकुश पंचायत व्यवस्था द्वारा निर्ममता पूर्वक रौंद दी गयी थी. उस समय केपी ओली और साथियों के साथ गिरफ्तार हुए थे और उन्होंने 14 साल जेल में काटे. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) इसी झापाली आन्दोलन (Jhapeli movement) की उपज है, जो बाद में कई गुटों के सम्मिलन के बाद अभी कल तक नेकपा (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) अर्थात एमाले के रूप में जानी गयी थी.
कैश माओवाद के छुटभैये संस्करण ही साबित हुए केपी ओली
अलबत्ता केपी ओली कैश माओवाद के छुटभैये संस्करण ही साबित हुए क्योंकि कालांतर में नव्वे के दशक में इसका भरा पूरा संस्करण जन्मा. उस समय राजा वीरेंद जनप्रतिरोध के कारण निर्दलीय पंचायत व्यवस्था को ख़त्म करने को राजी हुए थे और बहुदलीय लोकतंत्र के तहत संसद आस्तित्व में आई थी. तब केपी ओली की पार्टी के नेता मदन भंडारी हुआ करते थे. तब एमाले संसद में घुस कर कभी राजावादी पार्टियों के साथ, तो कभी नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा अथवा गिरिजा प्रसाद कोइराला गुट के अंतर्विरोधों का उपयोग करते हुए शांतिपूर्ण क्रान्ति करने को आमादा थी.
लगभग उसी समय नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पुलिस आर्मी के सैन्य दमन का बहादुरी पूर्वक सामना करते हुए रोल्पा जिले के थाबांग गाँव से फैलकर पूरे नेपाल को अपने चपेट में ले रही थी.
नेपाल उबल रहा है : धीरे-धीरे नकाब उतर रहा है तथाकथित क्रांतिकारियों का
“सेमी-कोलोनियल, सेमी फ्यूडल” नेपाल की दलाल पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करके जनतंत्र, जनजीविका और राष्ट्रीयता के सवालों को हल करने के लिए सशत्र संघर्ष की यह धारा 1996 से 2006 तक आन्दोलनरत थी और यह झापा आन्दोलन का पूर्ण संस्करण थी. इस धारा को माओवादी आन्दोलन कहा गया और इसने देशव्यापी आकार ही ग्रहण नहीं किया बल्कि सोवियत संघ के विघटन अर्थात “इतिहास के अंत” के बाद विश्व को समाजवाद का नया सपना दिखाया. लेकिन नेपाल जैसे एक पूँजीवादी (भले ही पिछड़े हुए) समाज में 1949 की चीन की नक़ल से पैदा हुआ “दीर्घकालीन माओवादी जनयुद्ध” अंततः प्रचंड युद्ध सरदार व दुमछुल्ला बाबूरामों की शीघ्र विजय की नीति की भेंट चढ़ गया. और भारत में संरक्षण में संविधान सभा के जरिये संसद में अवतरित होकर ब्राह्मणवादी “राज्य की पुनर्संरचना” में सिमटकर और भी फासीवादी प्रतिक्रियावादी रूप अख्तियार कर लिया. सरकारी तौर पर 13000 लोगों का बलिदान सिर्फ इसलिए हुआ कि माओवादी संसद में घुस सकें.
2008 में संविधान सभा चुनाव के बाद राजशाही से नेपाल को मुक्ति तो मिली और इस तरह बिना राजा के दलाल पूँजीवादी व्यवस्था को टिकाने के लिए संसद अवतरित हुई. अब मुक्ति-क्रान्ति का सपना धरा का धरा रह गया. लेकिन पूंजीवादी नवउदारवादी नेपाल में पहले से ही मौजूद रोटी-कपड़ा-मकान के प्रश्नों से लेकर उत्पीड़ित समुदायों (महिला-दलित-जनजाति-मधेसी-भाषाई अल्पसंख्यक) के सवाल यथावत ही बने रहे.
राजा का शासन तो चला गया लेकिन अब एक राजा के स्थान पर राजा प्रचंड-राजा बाबुराम-राजा माधव नेपाल-राजा झलनाथ खनाल-राजा मधेस इत्यादि से लेकर नेपाल में दर्जनों राजा पैदा हो गए.
तत्पश्चात राजनैतिक दलों की आपसी खींचतान के बीच अवतरित हुआ था, 2015 का संघीय गणतंत्र नेपाल का “समाजवाद उन्मुख संविधान. इस संविधान के आधार पर पहली बार कम से कम श्रमिकों व उत्पीड़ित समुदायों (महिला-दलित-जनजाति-मधेसी-भाषाई अल्पसंख्यक) के सवालों को थोड़ा गंभीरतापूर्वक लेने की कोशिस की गयी. नेपाली कांग्रेस का युग अब विगत की चीज़ हो गयी थी, क्योंकि कैश माओवाद अब दिल्ली के रथ पर सवार था. लेकिन अब चूकिं संसद में प्रचंड के अलावा माधव नेपाल-केपी ओली की एक और बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियाँ मौजूद थीं. इसलिए तो कैश माओवाद के छुटभैये (झापाली) व भरे पूरे (रोल्पाली) संस्करण ने मिलकर नेपाल को समृद्धि व विकास के पथ पर ले जाने के लिए एक व्यवस्था कायम की, जिसके परिणामस्वरुप दो कम्युनिस्ट पार्टियाँ मिलकर एक हुईं. और 2017 के उत्तरार्ध में हुए चुनाव द्वारा नेपाली संसद में इस नयी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना दो तिहाई बहुमत कायम किया.
इस तरह इस पार्टी ने आपस में मिल बाँट कर खाने के लिए यह व्यवस्था की थी कि ओली व प्रचंड संयुक्त रूप से पार्टी के सर्वेसर्वा रहेंगे और सरकार का काम ओली संभालेगें. जब यह नयी कम्युनिस्ट पार्टी बनी, (जिसे डबल नेकपा के रूप में जाना गया क्योंकि चुनाव आयोग की लिस्ट पहले से ही 1949 में कामरेड पुष्पलाल श्रेष्ठ द्वारा कलकत्ता में स्थापित पुरानी नेकपा विद्यमान थी), तो बिलकुल उसी समय अपनी पहली किताब लिखते हुए मैंने एक कविता लिखी, जो यहाँ उद्धृत की जा रही है;
नेपाल जंजाल, भारत बेताल
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नेपाल जंजाल
है इंद्रजाल
यह ऐसा है मायाजाल
चीन जहाँ पर खेले है जनभावना का करके ख्याल
देश मेरा भारत है जहाँ एकमात्र बेताल
नेपाल जंजाल
है इंद्रजाल
जनता तो करना चाहे है खूब बवाल
कम्युनिस्ट एकता हो जाए तो बन जाए नेपाल
पर लाल भोज राजा गठबंधन का होगा ऐसा कुछ हाल
काठमांडू स्विट्ज़रलैंड बनेगा अबकी साल
स्वप्न दिखाया जो महेंद्र ने साल साठ पंचायत साल
मदन भंडारी औ प्रचंड ने मिल कर खाया इसका माल
माओ में लेनिन मार्क्स मिला के तीन ताल
नेपाल जंजाल
है इंद्रजाल
गठबंधन राजनीति का विधिवत श्रीगणेश हो अब आरम्भ काल
(नेपाल के दो तथाकथित वाम दलों एमाले व माओवादी केंद्र की एकता के अवसर पर; 29 अक्टूबर, 2017)
लेकिन सवाल जो मौजूं है यहाँ पर, जिसके कारण संसद में दो तिहाई बहुमत वाली डबल नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी जनवरी, 2021 में टूट गयी और संसद भंग कर दी गयी.
यह है, अमेरिका की नेपाल को सैन्य अखाड़ा बनाकर चीन को घेरने की रणनीति.
चीन के बेल्ट एंड सिल्क रोड प्रोजेक्ट में नेपाल भी शामिल है और यह चीज जिसके मूल में है, दिल्ली की देखरेख में इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत नेपाली संसद में एमसीसी (मिलेनियम कारपोरेशन प्रोजेक्ट) पास करने का सवाल.
कोरोना महामारी फैलने के बीच नेपाली सांसदों के बहुमत हिस्से के इसके खिलाफ खड़े होने के कारण प्रचंड, माधव नेपाल, झलनाथ खनाल जबरदस्त दबाव में थे. और इसीलिए तो वे एमसीसी प्रोजेक्ट को थोड़े बदलाव के साथ संसद में पास करने की बात कर रहे थे. क्योंकि यदि एमसीसी पास होता है तो वह दिन दूर नहीं जब कहने को ही सही पर नेपाल सरकार का अपने भूभाग पर ही कोई अधिकार नहीं रह जाएगा और नेपाल दक्षिण एशिया का रवान्डा बन जाएगा.
लेकिन ओली एमसीसी को अक्षरशः पास करने को कटिबद्ध थे. चीन ने तो बहुत कोशिश की कि 2017 में गठित पार्टी न टूटे, अपने दूत भी भेजे, काठमांडू में मौजूद महिला चीनी राजदूत भी ओली-प्रचंड कंपनी से कई बार मिलीं. उनका प्रयास यह था कि संसद भंग न हो. 1990 में पंचायत व्यवस्था के पतन के बाद आस्तित्व में आये बहुदलीय लोकतांत्रिक युग से लेकर राजतंत्र की समाप्ति के बाद आज के संघीय गणतांत्रिक युग तक कोई भी सरकार पूरे पांच साल तक नहीं टिक सकी. यदि ओली की सत्ता लम्बे समय तक टिकी रही, और लग यही रहा है कि यह टिकी रहेगी. तथापि नेपाल का बौद्धिक नागरिक समाज के ओली के इस हिटलरी संस्करण के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है और कल ही वेटेरन कम्युनिस्ट नेता किरण, आहुति, विप्लव व ऋषिराम कट्टेल नेतृत्व की चार कम्युनिस्ट पार्टियों ने ओली के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाकर आन्दोलन का एलान कर दिया है.
भले ही ओली ने अगले छह महीने के भीतर आम चुनाव करवाने का शिगूफा छोड़ा है. पर नेपाली अखबारों के हवाले से कहना पड़ता है कि यह बिलकुल भी संभव नहीं है. कयास यह लगाया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में संसद पुनर्स्थापित करने के प्रश्न पर लगी याचिकाएं का निर्णय ओली सरकार के पक्ष में जा सकता है.
यह अकारण नहीं है कि काठमांडू में नागरिक समाज आन्दोलन को भयभीत करने के लिए हाल ही में सिंहदरबार के आस पास वाले क्षेत्र में नेपाली सेना की बख्तरबंद गाड़ियाँ ड्रिल करती देखी गयीं.
वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक प्रदीप गिरी ने ऋषि धमला को दिए गए अपने एक हालिया इंटरव्यू में फरमाया कि नेपाल के निर्वाचन आयोग से जब यह पूंछा गया कि क्या अगले छह महीनों में चुनाव कराये जा सकते हैं, तो निर्वाचन आयोग का दो टूक जवाब था कि यह संभव नहीं है और उस स्थिति में सरकार के पास देश में आपातकाल लगाने का भी विकल्प आ सकता है.
फलतः केपी ओली अपनी तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी मुखौटा हटाकर सत्ता पर कब्ज़ा जमाकर बैठ तो गए हैं, पर इसके साथ ही वे पूरी तरह से नंगे हो गए हैं.
आहा केपी ओली, प्रचंड, माधव नेपाल, झलनाथ खनाल!!! इन सबका मिल बाँट कर देश को खाने का सपना आखिरकार कैश माओवादी आख्यान की स्वाभाविक बलि चढ़ गया!!! क्योंकि ओली अंततः चीन की तरफ न खड़े रहकर अमेरिका के पक्ष में दिल्ली के साथ खड़े हुए.
सशत्र संघर्ष से जन्मे कैश माओवाद का यही अपराध है कि इस तख्तापलट के बीच आम नेपाली जनता का बड़ा हिस्सा उदासीन बना हुआ है. यांत्रिक मार्क्सवाद (जिसे मैं उर्फ़ स्वयं भू कवि ब्राह्मणवादी मार्क्सवाद कहता हूँ) के झापाली-रोल्पाली सशत्र आन्दोलन संस्करण से जन्मे कैश माओवाद का सबसे बड़ा अपराध यह है कि अपने अधिकारों के लिए सदा उठ खड़े होने वाली जनता की चेतना को इसने संज्ञाशून्य बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. जनता के गास-बास-कपास अर्थात रोटी-कपडा-मकान के सवाल 1949 से लेकर आज तक जस के तस कायम हैं तथा दिनों दिन और भी बदतर हुए हैं. नेपाल की लगभग 66% आबादी यदि खाड़ी देशों, मलेशिया, कोरिया व भारत से कमा कर रेमिटेंस न भेजे और साम्राज्यवादी दाता संगठनों से सरकार को वैदेशिक अनुदान न मिले तो नेपाल की अर्थव्यवस्था ठप्प हो जाती है.
भले ही आज प्रचंड एंड कंपनी की नेता रामकुमारी झांकरी को देशद्रोह के अपराध में जेल में ठूंस दिया गया हो (जो रातोरात रिहा भी हो गयीं), क्योंकि उसे पता है कि सरकार में कोइराला रहे, देउबा रहे, बाबुराम रहे, ओली रहे या प्रचंड, दिल्ली से संरक्षित नेपाल की संसदीय व्यवस्था उसके सवालों को कभी हल नहीं कर सकेगी.
-डॉ. पवन पटेल
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(लेखक कवि व नेपाली समाज के एक भारतीय अध्येता हैं. नेपाल पर दो किताबें प्रकाशित; “द मेकिंग ऑफ़ ‘कैश माओइज्म’ इन नेपाल: ए थाबांगी पर्सपेक्टिव, आदर्श बुक्स: नई दिल्ली (2019)” व ताजा किताब “एक स्वयं भू कवि की नेपाल डायरी”, मैत्री पब्लिकेशन; पुणे (2021)”. सम्प्रति वे अपने गृह नगर बाँदा में रहकर खेतीबाड़ी करते हैं.)