विभीषिका का स्मरण या स्मरण की विभाषिका : नयी विभीषिकाएं रचने के लिए विभीषिका स्मरण

विभीषिका का स्मरण या स्मरण की विभाषिका : नयी विभीषिकाएं रचने के लिए विभीषिका स्मरण

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने स्वतंत्रता के साल भर चलने वाले अमृत महोत्सव की पूर्व-संध्या में, ट्वीट कर के जिस तरह अचानक इसका एलान किया कि अब से 14 अगस्त के दिन का ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस (partition horror memorial day) के रूप में पालन किया जाएगा, उसने जाहिर है कि खुद शासन में शामिल लोगों समेत सभी को चौंकाया है। हालांकि, प्रधानमंत्री के ट्वीट के कुछ ही अंतराल पर, इस संबंध में जाहिर है कि ट्विटर समेत औपचारिक गजट सूचना भी जारी कर दी गयी, फिर भी ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी की खास निर्णय शैली के अनुरूप, यह फैसला भी बिना किसी खास विचार-विमर्श के, प्रधानमंत्री कार्यालय के सीमित दायरे में ही लिया गया है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल तक में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की गई

अचरज नहीं है कि भाजपा प्रवक्ता बिना रत्तीभर समय गंवाए, मोदी सरकार के ‘विभाजन विभीषिका स्मरण’ के ‘कदम’ का गुणगान करने में जुट गए, फिर भी सचाई यही है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, इसका कोई साक्ष्य सामने नहीं आया है कि स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले, इस नये दिवस के पालन का राष्ट्र की ओर से फैसला लेने से पहले, राजनीतिक राय के अन्य हिस्सों से परामर्श करने या किसी भी तरह की सार्वजनिक बहस की तो बात ही क्या करना, केंद्रीय मंत्रिमंडल तक में इस विषय में कोई चर्चा की गयी हो! जाहिर है कि बिना किसी विमर्श के हठात इस तरह के दिवस के पालन का एलान, इस ‘विभाजन विभीषिका स्मरण’ की गंभीरता को और वास्तव में इसके वास्तविक उद्देश्यों को ही गहरे संदेहों के दायरे में खड़ा कर देता है।

अचरज नहीं कि कई टिप्पणीकारों ने इस स्मरण को विधानसभाई चुनाव के अगले चक्र के तकाजों से जोड़कर देखा है, जिसमें उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के चुनाव भी शामिल हैं, जहां अपनी सरकार बचाने के लिए भाजपा को, मुस्लिमविरोधी हिंदुत्ववादी लामबंदी की खासतौर पर जरूरत पड़ सकती है। ऐतिहासिक किसान आंदोलन का संचालन करने वाले, संयुक्त किसान मंच के भाजपा को हराने के स्पष्ट संकल्प के साथ अपने ‘मिशन उत्तर प्रदेश’ तथा ‘मिशन उत्तराखंड’ का एलान करने के बाद, जाहिर है कि हिंदुत्ववादी लामबंदी पर भाजपा की निर्भरता और ज्यादा बढ़ गयी है। लेकिन, इस ‘विभीषिका स्मरण’ के पीछे के राजनीतिक-चुनावी खेल पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे। फिलहाल तो हम खुद को इस ‘विभीषिका स्मरण’ के चरित्र और भूमिका तक ही सीमित रखना चाहेंगे।

इस नये दिवस के पालन के अपने फैसले को ट्वीट करते हुए प्रधनमंत्री ने कहा : ‘‘देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों एवं भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी।’’

अगली सुबह, स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने इस विवरण में बड़ी संख्या में लोगों को अंतिम संस्कार तक नसीब नहीं होने की बात और जोड़ी। बेशक, इस सबसे कोई असहमत नहीं हो सकता है। इस संदर्भ में किसी एक दिन का ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में पालन के लिए तय किया जाना भी, शायद ही किसी को अनुचित लगे। विभाजन की जो विभीषिका, स्वतंत्रता के साथ जुड़कर आयी थी, उसके लिए स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले यानी 14 अगस्त का दिन तय किया जाना भी उपयुक्त ही है, हालांकि यह विभीषिका किसी खास दिन तक सीमित नहीं थी बल्कि हफ्तों और महीनों में फैली रही थी।

फिर भी, हालांकि यह घोषणा स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के साल भर लंबे सिलसिले की पूर्व-संध्या में आयी थी, इसे महज एक और उत्सव नहीं माना जा सकता है। इसलिए, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि हमें विभाजन की उस विभीषिका को क्यों याद रखना चाहिए? जाहिर है कि इस विभीषिका को याद रखने की जरूरत को पहचान कर, उसकी स्मृति को दर्ज करने तथा सुरक्षित करने के प्रयत्न, विभाजन के समय से ही चले आ रहे थे। निजी इतिहासों, संस्मरणों, वृत्तांतों से लेकर, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला और अंगरेजी के अनेक प्रमुख साहित्यकारों की बेशुमार महत्वपूर्ण कृतियां तक, इसे स्मृति को प्रभावशाली ढंग से दर्ज करती हैं। मंटो, भीष्म साहनी, खुशवंत सिंह, कृष्नचंदर और अमृता प्रीतम के नाम और इसी प्रकार बंगाल के विभाजन के संदर्भ में फिल्मकार ऋत्विक घटक का नाम, सहज ही इस सिलसिले में जुबान पर आ जाते हैं।

बेशक, इसके बावजूद इस महादेश की इस सबसे भयानक त्रासदी को याद करने के लिए जो भी किया गया हो या किया जाए, कम ही होगा। तब एक राष्ट्रीय ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ भी क्यों नहीं?    

लेकिन, सवाल तो यह है कि क्या ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ की नरेंद्र मोदी की कल्पना, इस भयानक त्रासदी को याद रखने के अब तक के प्रयासों की मुख्यधारा के काम में कुछ जोड़ती है, उसे आगे बढ़ाती है? शायद नहीं। बेशक, यह दिन विभाजन की विभीषिका के स्मरण के लिए है। लेकिन, ऐसी किसी भी विभीषिका का स्मरण अपने आप में काफी नहीं होता है। इतना ही महत्वपूर्ण यह भी होता है कि विभीषिका को हमें किसलिए याद रखना है? इस किसलिए के दो विरोधी उत्तर हमारे देश के स्वतंत्रता के फौरन बाद के दौर की एक सबसे महत्वपूर्ण और नाटकीय घटना में, हमें विरोधियों के तौर पर गुत्थमगुत्था नजर आते हैं, इसलिए हम इस घटना का किंचित विस्तार से जिक्र करना चाहेेंगे। हमारा इशारा, 30 जनवरी 1948 के दिन घटी एक और त्रासदी की ओर है, जो विभाजन की त्रासदी के साथ गुंथी हुई थी--महात्मा गांधी की हत्या

बेशक, महात्मा गांधी की हत्या हिंदू सांप्रदायिकतावादियों ने की थी। वास्तव में, गांधी के जीवनीकार, प्यारेलाल के अनुसार ‘गांधी-विरोधी हिंदू अतिवादियों’ ने, 30 जनवरी 1948 के कामयाब हमले से पहले, पांच और नाकाम कोशिशें गांधी को मारकर रास्ते से हटाने की की थीं।

गांधी की हत्या की पहली कोशिश 25 जून 1934 को की गयी थी। इसके बाद, 1944 की जुलाई से लगाकर, 20 जनवरी 1948 के बीच हुई चार विफल और अंतत: 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या में, नाथूराम गोडसे नेतृत्वकारी भूमिका में शामिल रहा था, जो गांधी के प्रति इन ताकतों की गहरी तथा पक्की शत्रुता की ही गवाही देता है। लेकिन, यहां हम एक जरा भिन्न पहलू पर ध्यान खींचना चाहते हैं।

अदालत में नाथूराम गोडसे के बयानों से और उससे भी बढ़कर, गांधी की हत्या की 20 जनवरी 1948 की आखिरी विफल कोशिश में पकड़े गए, मदनलाल पहवा के बयानों से साफ है कि स्वतंत्रता के फौरन बाद, हिंदुत्ववादी अतिवादियों ने अगर किसी भी कीमत पर गांधी की हत्या को अपना मुख्य कार्यक्रम बना लिया था, तो इसके पीछे स्वतंत्रता के साथ आयी विभाजन की विभीषिका का उनका स्मरण भी था। वे गांधी की हत्या कर, अपने हिसाब से विभाजन की विभीषिका का भी बदला ले रहे थे। यही, विभाजन की विभीषिका का पहले प्रकार का स्मरण है।

उसी विभीषिका के इससे बिल्कुल भिन्न प्रकार के स्मरण का मॉडल खुद महत्मा गांधी प्रस्तुत कर रहे थे, जो इसीलिए विभीषिका को याद करने के पहले तरीके के अनुयाइयों की गोलियों के निशाने पर थे। यह मॉडल था, उस विभीषिका की निरर्थकता, दरिंदगी तथा विनाशकता के खिलाफ, उसका मुकाबला करने के लिए, मनुष्यता को जगाने का। इस विभीषिका के दौरान और उसके फौरन बाद, अपने आखिरी महीनों, हफ्तों, दिनों में, गांधी ठीक इसी मुहिम में जुटे रहे थे। और उनकी यह मुहिम पूरे अविभाजित भारतीय महादेश में फैली हुई थी।

पहले स्वतंत्रता दिवस पर गांधी, पूर्वी बंगाल में दंगों की आग बुझाने में लगे थे। फिर दिल्ली तथा उत्तरी भारत के अन्य हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा की वैसी ही आग बुझाने में जुटे। और विभाजित भारत में सांप्रदायिकता की आग के ठंडा पड़ते ही, इसी मिशन को लेकर नव-गठित पाकिस्तान जाने की उनकी इच्छा थी।

विभाजन की विभीषिका के स्मरण का गांधी का मॉडल क्या है ?

कहने की जरूरत नहीं है कि विभाजन की विभीषिका के स्मरण का गांधी का मॉडल, उसी समय इस विभीषिका की आंग को ठंडा करने का और यह सुनिश्चित करने के प्रयास करने का मॉडल था कि भविष्य में, वैसी विभीषिका को किसी भी रूप में फिर नहीं दोहराया जाए। दूसरी ओर, गोडसे कुनबे का विभीषिका स्मरण, बदले के सांप्रदायिक आख्यान में वैसी ही विभीषिका को दोहराने के लिए था। पहला, विभीषिका के घावों पर मरहम लगाने के लिए था और दूसरा, घावों को कुरेद-कुरेदकर नासूर बनाने का, जिससे वैसी विभीषिकाओं का रास्ता बनाने वाला जहर ही निकल सकता है। यही जहर गोडसे की रिवाल्वर से गोली बनकर निकला और एक  और विभीषिका रच गया।

दुर्भाग्य से, किंतु पूरी तरह से प्रत्याशित रूप से, नरेंद्र मोदी का ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ का फैसला मदनलाल पहवा-गोडसे आदि की धारा का ही विभीषिका स्मरण ज्यादा लगता है, गांधी की परंपरा का विभीषिका स्मरण कम। इस स्मरण की सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि यह गांधी की तरह, विभाजन की विभीषिका को मनुष्यता की एकीकरणकारी दृष्टि से देखने का दिखावा तक नहीं करता है और उसे देश विभाजन से भी आगे, सांप्रदायिक विभाजन की नजर से ही देखने जा रहा है।

जाहिर है कि इस स्मरण में, पाकिस्तान/ मुसलमान विभीषिका के कर्ता हैं और भारत/ हिंदू विभीषिका के शिकार! विभीषिका का ऐसा इकतरफा, झूठा और वास्तव में सांप्रदायिक स्मरण, अपने दायरे में वैसी ही विभीषिकाएं रचने के लिए उकसाने का ही काम कर सकता है।

बेशक, विभीषिका स्मृति दिवस की घोषणा के अपने ट्वीट के पूरक के तौर पर, उसके साथ जोडक़र किए गए दूसरे ट्वीट में प्रधानमंत्री मोदी ने रस्मअदायगी के तौर पर यह भी जोड़ा है कि ‘‘यह दिन हमें भेदभाव, वैमनस्य और दुर्भावना के जहर को खत्म करने के लिए न केवल प्रेरित करेगा बल्कि इससे एकता, सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनाएं भी मजबूत होंगी।’’ लेकिन, इस रस्मअदायगी में भी जिस तरह सांप्रदायिक सौहाद्र्र का उल्लेख तक करने से बचा गया है, वह इस स्मरण के पीछे की असली नियत का पता दे देता है। यह विभीषिका स्मरण तो और नयी विभीषिकाएं रचने के लिए ही है।  

राजेंद्र शर्मा

पीएम मोदी की नज़र पाकिस्तान पर ! 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' | भारत विभाजन

अगला आर्टिकल