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कभी हम सोने की चिड़िया के नाम से जाने जाते थे। पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोग आज भी उस शानदार अतीत पर गर्व करते हुए जी रहे हैं। एक ज़माना था जब सादगी हमारी संस्कृति में थी, दिखावा कम था और थोड़े में गुज़ारा करने की आदत थी। धीरे-धीरे ज़माना बदला, आधुनिकता की दौड़ में हम पश्चिमी संस्कृति को अपनाते चले गए और हम समाजवादी अर्थव्यवस्था (socialist economy) से बदलकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था (capitalist economy) के हामी होते चले गए।
कृषि प्रधान युग में जमीन का बहुत महत्व था और ज्य़ादा उपज के लिए ज्य़ादा ज़मीन की दरकार थी। तब श्रम-शक्ति का ज़माना था, फिर कारखाने आये, बड़ी-बड़ी मशीनें आईं, उनका विरोध होता रहा, पर ज़माना बदलता रहा और एक-एक मशीन ने कई-कई आदमियों का काम करना शुरू कर दिया। विज्ञान ने कुछ और प्रगति की और कंप्यूटर जी आ टपके। कंप्यूटर ने दुनिया को बदला। फिर जब इंटरनेट की शुरुआत हुई तो मानो चमत्कार ही हो गया। शून्य का आविष्कार, पहिए का आविष्कार, टेलिफोन और बिजली के बल्ब का आविष्कार आदि विज्ञान के विकास के विभिन्न मोड़ बने, पर आज वे छोटी बातें नज़र आती हैं। इंटरनेट के बाद सोशल मीडिया ने एक बार फिर हमारे जीने के अंदाज़ को बदला है।
हर युग में खूबियां और खामियां होती हैं
पुराने ज़माने में कई खूबियां थीं, पर कुछ खामियां भी थीं। नए ज़माने में भी खूबियां और खामियां दोनों ही हैं। हमें सिर्फ यह याद रखना चाहिए कि पुराने ज़माने को पुराना कहा ही इसलिए जाता है क्योंकि वह पुराना था, अतीत है, बीत चुका है। वर्तमान हर क्षण नया है, नवीन है। पुराने ज़माने की सभी बातें नये ज़माने पर लागू नहीं हो सकतीं। हम समय की सूइयों को वापिस नहीं ले जा सकते। बदलते समय के साथ कुछ चीज़ें भी बदल ही जाती हैं। हमें इस बदलाव को समझना होगा, अपनाना होगा और इससे लाभ उठाना होगा, अन्यथा हम भी पुराने पड़ जाएंगे।
हमारी असली पहचान क्या है?
हम अतीत से सीख सकते हैं, अतीत पर गर्व कर सकते हैं पर यदि हमारा वर्तमान गौरवशाली न हो तो हम अतीत पर गर्व करते नहीं रह सकते। अतीत बीत चुका है अत: हमारा अतीत, हमारा भविष्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार हम क्या कर सकते हैं (what can we do) इससे किसी को मतलब नहीं है, क्योंकि हम जो कर चुके हैं वह हमारी पहचान है, हमारी क्षमता का पैमाना है। हमारी असली पहचान हमारी उपलब्धियों और हमारे वर्तमान से है। इसलिए प्रगति का तार्किक तरीका यही है कि हम अपने अतीत से सीखें, उस सीख का वर्तमान में प्रयोग करें और भविष्य को सुधारने के लिए उचित कदम उठायें। ऐसा हर मोर्चे पर करना होगा।
हमारे संविधान निर्माताओं ने पूंजीवादी ढांचा नहीं अपनाया था
हम जानते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने एक समाजवादी देश की कल्पना की थी जहां गरीबों को भी उन्नति के समान अवसर उपलब्ध हों। उन्होंने सरकार का पूंजीवादी ढांचा नहीं अपनाया था। उसीका परिणाम था कि देश में लाइसेंस राज आरंभ हुआ। धीरे-धीरे जब लाइसेंस राज की खामियां उजागर हुईं और अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी तो मजबूरन देश को पूंजीवाद की राह पर चलना पड़ा।
भारत में उदारवाद के प्रणेता डॉ मनमोहन सिंह
स्वर्गीय प्रधानमंत्री नरसिंह राव की सरकार ने उदारवाद की शुरुआत की और देश में विकास की एक नई लहर चली। पीवी नरसिंह राव की सरकार में वित्त मंत्री रहे डॉ मनमोहन सिंह को उदारवाद के प्रणेता के रूप में याद किया जाता है। प्रधानमंत्री बनने के बाद डॉ मनमोहन सिंह ने कई अन्य उदारवादी कदम उठाये और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया, सब्सिडी पर अंकुश लगाए। मैंने सदैव इस बात की हिमायत की है कि उद्योग-व्यापार आदि में सरकार की भूमिका न्यूनतम होनी चाहिए। हम राशन में पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (public distribution system in ration - सार्वजनिक वितरण प्रणाली) का हश्र भी देख चुके हैं और मेरा सदैव यह मत रहा है कि इस भ्रष्टाचारी प्रणाली को बदला जाना आवश्यक है। मोदी सरकार ने हर सरकारी सुविधा को आधार कार्ड से जोड़कर इसे एक नया आयाम दिया है जिससे सरकारी सुविधाओं के उपभोग से संबंधित भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है।
समस्या यह है कि सब्सिडी के मामलों में हम अक्सर भावुकता से सोचते हैं और दिल के फैसले को दिमाग पर हावी होने देते हैं। इससे भी ज्य़ादा संवेदनशील मुद्दा आरक्षण का है। आरक्षण एक मीठा जहर है जिसने दलित समाज को बैसाखियों का आदी बना दिया है और दलित वोटों के लालच में राजनीतिज्ञों ने समाज में घृणा के बीज बो दिये हैं। पश्चिमी कार्य-संस्कृति (वर्क कल्चर) ने हमें निरपेक्ष रहकर चीज़ों और घटनाओं का विश्लेषण करना सिखाया है।
आज हमें यह सोचना होगा कि क्या हम अनुदान की प्रथा को ज्य़ादा तर्कसंगत बना सकते हैं, क्या हम दया के पात्र बने रह कर आरक्षण की बैसाखियों पर चलना चाहते हैं, क्या हम भ्रष्टाचार और अकुशलता को बर्दाश्त करने के आदी बने रहना चाहते हैं या उनकी तुरंत शिकायत करके देश को बदलना चाहते हैं, क्या हम पुराने तर्कों और वहमों में फंसे रहकर कुछ ‘कर्मकांड’ करते रहना चाहते हैं या उनका वैज्ञानिक विश्लेषण करके अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहते हैं? क्या हमारे पास अपने जीवन को कुछ और बढ़िया बनाने का कोई विचार है या हम एक ढर्रे पर जीना चाहते हैं?
क्या हम अपने आसपास के लोगों को जागरूक बनाकर समाज को बेहतर बनाना चाहते हैं या फिर ‘हमें क्या?’ की उदासीनता ओढ़े रखना चाहते हैं? क्या हम सचमुच आधुनिक हुए हैं या सिर्फ आधुनिकता का लबादा ओढ़े हुए हैं?
अगर हम आज बदलेंगे तो अपना कल बदल पायेंगे। अगर हम आज नई तकनीक का लाभ उठाएंगे और उसे जीवन में अपनाएंगे तो नई संस्कृति, नई अर्थव्यवस्था, नए जीवन-मूल्यों को आत्मसात कर पायेंगे, वरना हम सचमुच पीछे रह जाएंगे। तकनीक के इस ज़माने में जब जीवन बहुत तेज हो गया है, सूचनाएं हमारी उंगलियों के पोरों पर हैं और माउस के एक क्लिक से हम सारी दुनिया से जुड़ जाते हैं, वहां हमें वैश्विक कार्य-संस्कृति, वैश्विक आवश्यकताओं और वैश्विक सोच को समझना होगा, खुद को उसके अनुसार ढालना होगा। आधुनिकता के इस दौर में हम पाषाण युग की संस्कृति अपना कर प्रगति नहीं कर सकते। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा, कार्य-संस्कृति बदलनी होगी, ताकि हम नए ज़माने की सुविधाओं का स्वागत कर सकें और नए ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार नई सुविधाओं का आविष्कार कर सकें।
युवाओं में उद्यम की सोच विकसित करना, उन्हें नवीनतम तकनीक से परिचित करवाना, उद्यम में सफलता के लिए सेल्स, मार्केटिंग, एकांउंटिंग आदि की जानकारी देना आज की अनिवार्य आवश्यकता है।
नौकरी कितनी ही अच्छी और सुविधाजनक क्यों न हो, वह परिवार के सिर्फ एक सदस्य को रोज़गार देती है, उद्यम के विकास से परिवार के कई सदस्यों को रोज़गार मिलता है और परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त दूसरे लोगों के लिए रोज़गार का सृजन अलग से होता है। जीतो दुनिया, क्रिटिकल एज्ज, बिज़स्टार इंटीग्रेटिड सर्विसिज़ और स्किल4सक्सेस जैसी बहुत सी संस्थाएं इसी काम में लगी हैं। एक नागरिक के रूप में जरूरतमंद युवाओं को इन संस्थाओं और इनकी सेवाओं जानकारी देकर भी हम देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती में योगदान देंगे। देश सेवा का यह भी एक रूप है जो हमारे स्वर्णिम भविष्य की गारंटी है।
पी. के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।